अगर कोरोना से होने वाली मौतों पर लगाम लगानी है, तो संक्रमण की रोकथाम और वैक्सीनेशन के साथ ही ये भी जरूरी है कि कोरोना वायरस के कारण बीमार पड़ने वाले लोगों का क्लीनिकल मैनेजमेंट बेहतर तरीके से हो.
कोरोना का सामना करते हुए एक साल से ज्यादा का वक्त बीत गया है, ऐसे में कोरोना से बीमार पड़ रहे लोगों को अब कौन-कौन सी दवाइयां दी जा रही हैं? ऐसी दवा जो कोरोना से निपटने में सहायक हो, इसे लेकर क्या कुछ पता चल सका है? क्या कोई दवा कोरोना के खिलाफ कारगर साबित हुई है? यहां एक्सपर्ट्स से समझते हैं.
जैसा कि महामारी की शुरुआत से ही कहा जा रहा है कि COVID-19 से बीमार होने वाले ज्यादातर लोग घर पर ही ठीक हो जाते हैं. वहीं कुछ चीजें जो आप फ्लू होने पर बेहतर महसूस करने के लिए करते हैं, जैसे - पर्याप्त आराम करना, अच्छी तरह से हाइड्रेटेड रहना, बुखार और दर्द से राहत के लिए दवाएं लेना - COVID-19 के मामले में भी मदद करते हैं.
इसके अलावा, हर देश की स्वास्थ्य एजेंसियों की ओर से कोरोना के क्लीनिकल मैनेजमेंट प्रोटोकॉल निर्धारित हैं, जिनका पालन अस्पताल और डॉक्टर कोरोना रोगियों की कंडिशन के अनुसार करते हैं. गंभीर बीमारी के जोखिम वाले लोगों के लिए कई दवाइयों के इमरजेंसी या ऑफ-लेबल इस्तेमाल की भी मंजूरी दी गई है.
दिल्ली के क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट डॉ. सुमित रे बताते हैं कि अब दवाइयां कम हुई हैं. वो कहते हैं, "फालतू की दवाइयां कम हो गई हैं क्योंकि उस टाइम पर ये नई बीमारी थी और बिना पर्याप्त सबूत के कुछ दवाइयां इस्तेमाल हो रही थीं."
डॉ. रे कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हमारे पास कोई जादूई दवा आ गई है और क्रिटिकल केयर में कभी भी कोई मैजिक बुलेट नहीं होती. एक बीमारी को लेकर जो हमारी समझ होती है कि किस तरह हमारे शरीर को इन्फेक्शन इफेक्ट करता है और शरीर किस तरह रिस्पॉन्स करता है, उस हिसाब से कैसी दवाइयां और किस फेज में कौन सी दवाई देनी है, ये तय करना होता है."
मुंबई के जसलोक हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर में इमरजेंसी मेडिकल सर्विसेज डिपार्टमेंट के हेड डॉ. सुनील जैन कहते हैं कि हमने गंभीर रूप से बीमार मरीजों के ट्रीटमेंट के लिए नई तकनीकों और दवाइयों को शामिल करने के तरीकों के बारे में सीखा है, जिनका रोगियों की रिकवरी पर पॉजिटिव असर पड़ा है और मौत की आशंका घटाने में मदद मिली है.
डॉ. सुनील जैन बताते हैं कि COVID-19 के ट्रीटमेंट में एंटीवायरल दवाइयां जैसे रेमडेसिविर, ग्लूकोकॉर्टिकॉयड्स और टोसीलिजुमैब शामिल हैं.
वो कहते हैं कि हॉस्पिटल में एडमिट बहुत से गंभीर लक्षणों वाले मरीजों का कई दवाइयों के साथ इलाज किया जा सकता है ताकि नुकसान की प्रगति को धीमा किया जा सके और लक्षणों से राहत मिल सके.
डॉ. सुमित रे बताते हैं कि जब वायरस शरीर के अंदर होता है, उसी टाइम पर एंटीवायरल देने का फायदा है. 7 से 10 दिन बाद आमतौर पर वायरस शरीर में नहीं रहता है और COVID-19 में शरीर और फेफड़ों को जो क्षति होती है, वो शरीर के ही डिसरेगुलेट हुए इम्यून रिस्पॉन्स के कारण होती है. कुछ लोगों में थोड़ा असंतुलित रिस्पॉन्स होता है, जिसे मेडिकल टर्म में डिसरेगुलेटेड इम्यून रिस्पॉन्स कहा जाता है. इस फेज में इम्यून मॉड्यूलेशन, स्टेरॉयड मददगार होता है.
डॉ. रे इस बात जोर देते हैं कि यहां पर पेशेंट सेलेक्शन बहुत जरूरी है. दवाइयों के असरदार होने की टाइमिंग अलग है और साइड इफेक्ट अलग हैं, जैसे टोसिलोजुमैब का साइड इफेक्ट ये है कि इतना सीवियर इम्यून सप्रेसंट है कि सेकेंडरी इन्फेक्शन के चांसेज बढ़ सकते हैं.
इसके अलावा ये भी है कि किसी दवा पर काफी मरीज रेस्पॉन्ड करेंगे और मरीजों की एक छोटी संख्या रेस्पॉन्ड नहीं करेगी, चाहे जितनी बेस्ट ट्रीटमेंट दी जाए.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से दुनिया भर के 30 देशों के 500 अस्पतालों में लगभग 12 हजार कोरोना मरीजों के साथ COVID-19 ट्रीटमेंट को लेकर जो क्लीनिकल ट्रायल (सॉलिडैरिटी ट्रायल) लॉन्च किया गया, उसके अंतरिम नतीजे 15 अक्टूबर, 2020 को जारी किए गए.
सॉलिडैरिटी ट्रायल का मकसद COVID-19 के रोगियों में 3 महत्वपूर्ण परिणामों पर दवाओं के प्रभाव का मूल्यांकन करना है: मृत्यु दर, सहायक वेंटिलेशन की आवश्यकता और अस्पताल में रहने की अवधि.
जब से महामारी शुरू हुई है, डॉक्टर बहुत बीमार COVID-19 रोगियों का इलाज कॉर्टिकोस्टेरॉयड से कर रहे हैं.
डॉ. सुमित रे बताते हैं कि सॉलिडैरिटी, रिकवरी जैसे बड़े ट्रायल्स हुए हैं, जिसमें स्टेरॉयड का फायदा देखा गया है, उन मरीजों पर जो ऑक्सीजन पर हैं या वेंटीलेटर पर हैं.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स के मुताबिक डेक्सामेथासोन (Dexamethasone) कोरोना वायरस के कारण गंभीर रूप से बीमार लोगों की मौत का रिस्क घटाने में मददगार हो सकती है.
डॉ. रे के मुताबिक जो कोरोना रोगी ऑक्सीजन की कम मात्रा पर हैं, उनके मामले में शुरुआत में Remdesivir का प्रभाव देखा गया है.
अक्टूबर 2020 में, FDA ने COVID-19 के उपचार के लिए एंटीवायरल ड्रग रेमडेसिविर को मंजूरी दी. इसका इस्तेमाल 12 साल और इससे ज्यादा उम्र के रोगियों के लिए किया जा सकता है, जिन्हें COVID-19 के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया हो. क्लीनिकल ट्रायल्स के मुताबिक रेमडेसिविर रिकवरी में तेजी ला सकता है.
हालांकि भारत के कोविड क्लीनिकल मैनेजमेंट प्रोटोकॉल के मुताबिक इसका इस्तेमाल 12 साल से कम उम्र के बच्चों, प्रेग्नेंट या ब्रेस्ट फीड कराने वाली महिलाओं और किडनी की गंभीर बीमारी के मरीजों के लिए नहीं किया जा सकता है.
22 अप्रैल 2021 को जारी हुए वयस्क कोविड मरीजों के लिए भारत के कोविड क्लीनिकल मैनेजमेंट प्रोटोकॉल में रेमडेसिविर को इमरजेंसी यूज ऑथराइजेशन/ऑफ लेबल यूज की कैटेगरी में रखते हुए कुछ विशेष परिस्थितियों में इस्तेमाल के बारे में बताया गया है.
इसके मुताबिक रेमडेसिविर (इमरजेंसी यूज ऑथराइजेशन) को सिर्फ उन्हीं मरीजों को दिया जा सकता है-
जिन्हें मॉडरेट ये सीवियर बीमारी हो (सप्लीमेंटल ऑक्सीजन की जरूरत हो रही हो)
कोई रीनल या हेपटिक डिस्फंक्शन न हो
जिनमें लक्षण के सामने आए 10 दिन से ज्यादा न हुए हों
उन मरीजों के लिए इस्तेमाल नहीं करना है, जो ऑक्सीजन सपोर्ट पर नहीं हैं
सॉलिडैरिटी ट्रायल का ग्लोबल प्लेटफॉर्म नए ट्रीटमेंट ऑप्शन का मूल्यांकन करने के लिए तैयार है, जिसमें लगभग 500 हॉस्पिटल ट्रायल साइट के तौर पर खुले हैं. अब नए एंटीवायरल ड्रग्स, इम्यूनोमॉड्यूलेटर्स और एंटी-SARS-CoV-2 मोनोक्लोनल एंटीबॉडी का मूल्यांकन होना है.
मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज उन एंटीबॉडीज का मानव निर्मित वर्जन है, जो हमारा शरीर रोगाणुओं से लड़ने के लिए बनाता है.
डॉ रे बताते हैं कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज के अलावा इम्यून मॉड्यूलेशन पर रिसर्च चल रहा है कि इम्यूनिटी को कैसे मॉड्यूलेट किया जाए कि वो न ओवररिएक्ट करे, न अंडररिएक्ट करे.
भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से कोविड-19 के लिए छह बार क्लीनिकल मैनेजमेंट प्रोटोकॉल जारी किए जा चुके हैं.
3 जुलाई 2020 के बाद वयस्क कोरोना रोगियों के क्लीनिकल मैनेजमेंट का जो गाइडेंस 22 अप्रैल 2021 को जारी हुआ, उसमें सभी विपरीत संकेतों को ध्यान में रखते हुए हल्के कोविड में आइवरमेक्टिन, हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन (HCQ) जैसी दवाइयों के इस्तेमाल किए जा सकने के बारे में लिखा है, लेकिन ये स्पष्ट किया गया है इन पर साक्ष्य की निश्चितता कम है.
Remdesivir के अलावा Tocilizumab और Convalescent plasma को भी सीमित सबूतों के आधार इमरजेंसी यूज ऑथराइजेशन/ऑफ लेबल यूज की कैटेगरी में रखा गया है.
डॉ रे बताते हैं कि ट्रायल्स के मुताबिक कोरोना में हाइड्रॉक्सीक्लोक्वीन और प्लाज्मा थेरेपी (Convalescent plasma) को खास असरदार नहीं पाया गया है.
JAMA जर्नल में दिसंबर 2020 में पब्लिश एक लेख में, शोधकर्ताओं ने बताया कि प्लेसिबो की तुलना में COVID-19 में सांस संबंधी बीमारी से पीड़ित वयस्कों के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का कोई क्लीनिकल फायदा नहीं हुआ.
वो कहते हैं कि ज्यादातर लोग जो कोरोना से बुरी तरह बीमार पड़ते हैं, उनमें हाइपर इम्यून रिस्पॉन्स देखा गया है.
डॉ रे बताते हैं कि उनके हॉस्पिटल के आईसीयू में 600 पेशेंट रहे, उनमें से सिर्फ 5 मरीजों में प्लाज्मा का इस्तेमाल किया गया, वो भी उनके परिवार के बहुत कहने पर, लेकिन उससे कोई खास फायदा नहीं दिखा है.
ICMR के महानिदेशक (डीजी) बलराम भार्गव ने पिछले साल अक्टूबर में कहा था कि COVID-19 के क्लीनिकल मैनेजमेंट प्रोटोकॉल से प्लाज्मा थेरेपी को हटाया जा सकता है.
यह बयान प्लाज्मा थेरेपी की प्रभावकारिता पर किए गए कई अध्ययनों के मद्देनजर आया था, जिसमें पाया गया था कि इससे गंभीर बीमारी की स्थिति में मृत्युदर में कमी नहीं हुई. सितंबर में सामने आए इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) की स्टडी से पता चला था कि प्लाज्मा थेरेपी कोविड-19 के गंभीर मरीजों की जान बचाने में कामयाब नहीं रही है.
भारत ने प्लाज्मा थेरेपी की प्रभावकारिता का अध्ययन करने के लिए 'प्लेसिड परीक्षण' नाम से दुनिया की सबसे बड़ी रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड स्टडी की थी. देशभर के 39 केंद्रों पर 22 अप्रैल से 14 जुलाई के बीच 464 रोगियों पर परीक्षण किया गया था.
हालांकि 22 अप्रैल 2021 को जारी क्लीनिकल गाइडेंस में प्लाज्मा थेरेपी को हटाया नहीं गया है, इसमें कहा गया है कि सिर्फ कुछ खास परिस्थितियों में इस थेरेपी को किया जा सकता है अगर शुरुआती मॉडरेट बीमारी हो (लक्षण आने के 7 दिनों तक, 7 दिनों बाद कोई यूज नहीं).
कोरोनो के खिलाफ हमें वैक्सीन की जरूरत है, लेकिन जो लोग कोरोना वायरस से गंभीर रूप से बीमार पड़ रहे हैं, उनके लिए हमें कोविड पर असर करने वाली दवाइयों की भी जरूरत है.
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Published: 12 Apr 2021,06:24 PM IST