विश्व स्वास्थ्य संगठन के सॉलिडैरिटी ट्रायल के ताजा नतीजे भारत की COVID-19 मैनेजमेंट को मुश्किल बना सकते हैं.

15 अक्टूबर को, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने सॉलिडैरिटी थेरेप्युटिक्स ट्रायल के नतीजे जारी किए और कहा कि Gilead Sciences Inc की रेमडेसिविर (Remdesivir) से कोरोना के मरीज के जिंदा बचने या अस्पताल में भर्ती रहने की अवधि पर या तो बहुत कम असर पड़ा या कोई असर नहीं पड़ा है.

महाराष्ट्र में वर्धा के कस्तूरबा हॉस्पिटल और महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (MGIMS) के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉ एस.पी कलंत्री ने अपने ट्वीट में यही बात कही है,

भारत के लिए इसका क्या मतलब है, जहां रेमडेसिविर कोविड-19 मैनेजमेंट के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रोटोकॉल का हिस्सा है?

फिट ने इस पर और जानकारी के लिए दिल्ली के होली फैमिली अस्पताल में क्रिटिकल केयर मेडिसिन के सीनियर कंसलटेंट, इंटेंसिविस्ट डॉ सुमित रे से बात की है, जो एक कोविड वार्ड की देखभाल करते हैं.

“एक लेख में कहा गया था कि रेमडेसिविर ऐसी दवा है जो एक बीमारी की तलाश में है. यह इबोला में नाकाम रही, यह सार्स (SARS) और मर्स (MERS) में नाकाम रही. इसलिए हमें इस बार शक था.”
डॉ सुमित रे

पहले बुनियादी बातें जान लेते हैं कि रेमडेसिविर क्या है और इसके कैसे काम करने की उम्मीद थी.

रेमडेसिविर क्या है?

रेमडेसिविर एक एंटीवायरल दवा है, जिसे अमेरिकी दिग्गज दवा कंपनी गिलियड साइंसेज ने बनाया है. इसे एक दशक पहले हेपेटाइटिस C और सांस संबंधी वायरस (respiratory syncytial viruses या RSV) का इलाज करने के लिए बनाया गया था, लेकिन इसे कभी बाजार में उतारने की मंजूरी नहीं मिली.

'एंटीवायरल दवा' वायरल संक्रमण के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवाएं होती हैं.

कोविड-19 इस दवा को फिर से चर्चा में ले आई- और इसके बावजूद कि इसके कोविड-19 में काम करने का कोई क्लीनिकल सबूत नहीं था, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को रेमडेसिविर की पेशकश की.

खुद गिलियड ने भी ऐसा दावा नहीं किया कि यह काम करती है, लेकिन यह संभावित रूप से काम करेगी, इस उम्मीद ने दवा को सुर्खियों में ला दिया.

जल्द ही अप्रैल में न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन ने एक अध्ययन प्रकाशित किया, जिसमें 61 मरीजों को शामिल किया गया था, जिन्हें कोविड-19 बीमारी होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया था, उनमें से 53 मरीजों को दवा दी गई थी. इसमें 68 फीसद लोगों में सुधार हुआ था जबकि 13 फीसद की मौत हो गई थी. हालांकि, वे यह निश्चित रूप से कहने में सक्षम नहीं थे कि ऐसा दवा के कारण था क्योंकि यह कोई कंट्रोल ग्रुप नहीं था.

यह याद रखना जरूरी है कि गिलियड के कर्मचारी भी इस पेपर के सह-लेखक थे. डॉ रे कहते हैं, “यह हितों के टकराव का खुला मामला है.”

कोरोना मरीजों को कब दी जानी चाहिए रेमडेसिविर?

“कोविड-19 तेजी से प्रतिकृति (replicating) बनाने वाला सांस का वायरस है- यह HIV, हेपेटाइटिस B या C का उल्टा है जो बहुत धीमे वायरस हैं. एंटीवायरल धीमी रफ्तार से प्रतिकृति बनाने वाले वायरस में काम करते हैं क्योंकि बिल्ड-अप में समय लगता है इसलिए आप एंटीवायरल द्वारा उन्हें ब्लॉक कर सकते हैं. लेकिन तेजी से प्रतिकृति बनाने वाले वायरस में एंटीवायरल देने का आदर्श समय लक्षणों के शुरू होने से भी पहले होता है और उससे पहले जब वायरस तेजी से कॉपी बनाना शुरू कर दे- बशर्ते कि आप बता सकें कि मरीज को कब संक्रमण हुआ.”
डॉ सुमित रे

वह कहते हैं कि आपको “90 फीसद मरीजों” के लिए इसकी जरूरत नहीं होगी. कल्पना करें कि अगर आप यह पता लगा सकते हैं कि किसी को लक्षणों के बिना वायरल संक्रमण है, तो एंटीवायरल के कामयाब होने के लिए इसे देने का यही सबसे अच्छा समय है. डॉ रे कहते हैं, “एक बार जब वायरस प्रतिकृति बनाना शुरू कर देता है, तो एंटीवायरल कुछ खास नहीं कर सकता है.”

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इसका कोई मतलब नहीं है- हम लक्षणों के दिखने से पहले यह कैसे तय कर सकते हैं कि वायरस है? “सांस की बीमारियों में एंटीवायरल के मामले में हमेशा यह पहले मुर्गी थी या अंडा वाला सवाल रहा है.”

यह आमतौर पर सभी एंटीवायरल के मामलों में होता है, लेकिन रेमडेसिविर और कोविड-19 पर ध्यान केंद्रित रखते हुए, डॉ. रे कहते हैं कि हमें सॉलिडैरिटी ट्रायल और एडेप्टिव कोविड-19 ट्रीटमेंट ट्रायल (ACCT1) जो यूके और यूरोप में एक बड़ा ट्रायल था, के नतीजों की पड़ताल करने की जरूरत है. अब ACCT1 ट्रायल ने अस्पताल में भर्ती रहने की अवधि में कमी दिखाई लेकिन बड़े ट्रायल से रोगियों के उप-समूहों का विश्लेषण करना जरूरी है.

“ऐसा लगता है कि ACCT1 ट्रायल में आए सकारात्मक नतीजे का कारण मुख्य रूप से यह था कि इसने उन मरीजों पर काम किया जिन्हें रेमडेसिविर जल्दी मिल गई थी और उन्हें कम ऑक्सीजन की जरूरत थी. इसलिए जिन लोगों को ऑक्सीजन नहीं मिली, उन्हें फायदा भी नहीं हुआ, जिन लोगों को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन मिली (यानी उन्हें ज्यादा ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत थी) या वेंटिलेटर, जिसका मतलब है कि उन्हें गंभीर बीमारी थी, इसलिए भी उन्हें फायदा नहीं हुआ.”
डॉ सुमित रे

तो ऐसे में दवा देने का समय और संक्रमण की गंभीरता निर्णायक निर्धारक हैं.

“दूसरी तरफ, अगर मरीज को हल्की बीमारी थी जिसमें ऑक्सीजन की जरूरत नहीं थी, तो उन्हें फायदा नहीं हुआ क्योंकि वैसे भी अपने आप ठीक हो जाते- और इसलिए रेमडेसिविर के नतीजों में कोई अंतर नहीं दिखाई देगा.”
डॉ सुमित रे

इसलिए ACCT1 ट्रायल में उप-समूह के विश्लेषण से, यह साफ है कि अगर किसी को भी फायदा हुआ है, तो यह कम ऑक्सीजन की जरूरत वाले मरीज थे. डॉ रे कहते हैं कि कि उप-समूह में, नस्लीय और भौगोलिक रूप से, यह सिर्फ उत्तरी अमेरिका के श्वेत लोगों के लिए फायदेमंद थी यूरोपीय, एशियाई या अश्वेत लोगों में नहीं. डॉ रे कहते हैं, “ऐसे में इसकी भूमिका सवालों के घेरे में है.”

हालांकि, सॉलिडैरिटी ट्रायल में, किसी भी उप-समूह में किसी को फायदा नहीं हुआ.

डॉ रे कहते हैं, “सांस की बहुत सी बीमारियों में, ज्यादातर एंटीवायरल का कोई फायदा नहीं दिखता है. आमतौर पर उन मरीजों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, जिन्हें कोई गंभीर बीमारी है जिनका इलाज ICU केयर, ऑक्सीजन आदि से होता है."

इन नतीजों के बाद अब रेमडेसिविर क्या होगा?

कोविड-19 के 2 फेज हैं:

  1. वाइरेमिया फेज: जिसमें शरीर में वायरस होता है
  2. एक्यूट (तीव्र) फेज जहां इम्युन प्रतिक्रिया में समस्या आ जाती है

डॉ रे कहते हैं, “आमतौर पर जब हमारी इम्युनिटी प्रतिक्रिया में समस्या होती है तो स्टेरॉयड की भूमिका आती है और यहां ऑक्सीजन और वेंटिलेटर पर रखे मरीजों को सबसे ज्यादा फायदा होता है. चूंकि स्टेरॉयड बहुत सफल रहे हैं, ऐसे में जिस दिन कोविड-19 का पता चल रहा है हर कोई स्टेरॉयड लिख रहा है और यह असल में एक बड़ी समस्या पैदा कर रहा है. यह वाइरेमिया को लंबा कर रहा है और उस चरण में इम्युन प्रतिक्रिया को दबा रहा है, जबकि इसकी जरूरत होती है. इम्युन प्रतिक्रिया एक जरूरी बुराई है और हमें कोविड-19 के लिए इसकी संतुलित जरूरत है- ऐसी चीज जो वायरस पर ठीक से हमला करती है, लेकिन हमारे शरीर पर नहीं."

अब जहां स्टेरॉयड की जरूरत है, वहां डॉक्टर रेमडेसिविर से इलाज कर रहे थे. “लेकिन इस ट्रायल के साथ, रेमडेसिविर की भूमिका पर सवाल लग जाते हैं.”

देखिए, हमने सरकार द्वारा इसकी सिफारिश किए जाने के बावजूद हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन (HCQ) को भी जल्द ही बंद कर दिया था, क्योंकि रिकवरी ट्रायल से पता चलने लगा था कि इसके नतीजे खराब थे- हालांकि इसकी सिफारिश जारी रही. रेमडेसिविर के बारे में बता दें कि, हमने इसे रोका नहीं है, लेकिन हम इसका इस्तेमाल बीमारी के समय को ध्यान में रखते हुए विवेक का इस्तेमाल करते हुए कर रहे हैं.
डॉ सुमित रे

इसलिए डॉक्टर कम ऑक्सीजन की जरूरत वाले मरीजों में शुरुआती उभार में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. “हम शुरुआती चरण में बहुत अधिक आक्रामक तरीके से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, और एक बार जब मरीज वेंटिलेटर पर आ जाता है या अधिक गंभीर होता है, तो रेमडेसिविर का इस्तेमाल करना बहुत फायदेमंद नहीं रह जाता है. हालांकि हमने इसका इस्तेमाल किया था क्योंकि इसकी सिफारिश की गई थी और हमें लगा कि इसका फायदा है.”

“अब हम इसके इस्तेमाल पर सवाल उठा रहे हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि हमने रेमडेसिविर का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद कर दिया है. कोविड मरीजों के बारे में क्लीनिकल प्रेक्टिस में यह कठिन सवाल है.”
डॉ सुमित रे

डॉ रे कहते हैं कि उन्हें कॉन्वेलेसेंट प्लाज्मा (convalescent plasma) के मामले में इसी तरह के सवालों से जूझना पड़ा. आखिरकार ICMR के अध्ययन ने इसे अप्रभावी बताया.

हालांकि कोविड के इलाज में डॉक्टर अंतिम निर्णय लेने वाले होते हैं, लेकिन मरीज को भी अपनी बात कहने का हक है. क्या होता है जब अप्रभावी क्लीनिकल नतीजे के बावजूद रेमडेसिविर (या कॉन्वेलेसेंट प्लाज्मा) जैसी दवा को बहुत ज्यादा प्रचारित किया जाता है? खासतौर से इस तथ्य को देखते हुए कि कोविड-19 का वायरस, जिसने दुनिया भर को चपेट में ले लिया है और रोगी दोगुना परेशान है. डॉ रे अपना ख्याल जाहिर करते हैं, “कल्पना करें कि अगर कोई शख्स बीमार है और हम सरकारी दिशानिर्देशों का हिस्सा होने के बावजूद उसे रेमडेसिविर नहीं देते हैं, और रोगी मर जाता है. तब परिवार हमें दवा नहीं देने के लिए दोषी ठहराएगा.”

प्लाज्मा के लिए, पर्याप्त सबूत नहीं थे इसलिए मरीजों को अधिक जानकारी के वास्ते इंतजार करने के लिए समझाना आसान था. “हमने इसके खिलाफ कड़ी लड़ाई लड़ी, हमने इसे 300 में से सिर्फ 4 मरीजों को दिया और केवल इसलिए कि असल में उन्होंने ही इसकी मांग की थी और हम दबाव में थे.”

“ऐसी बहुत सी दवाएं हैं जो बिना सबूत के प्रचारित हो जाती हैं या उन्हें लेने को कहा जाता है.”
डॉ सुमित रे

डॉ रे कहते हैं कि गाइडलाइंस में बहुत स्पष्ट शब्दों का इस्तेमाल करने की जरूरत है, जहां क्रिटिकल केयर वाले मरीजों के खास वर्गों को दवा देने के लिए डॉक्टरों को आजादी दी गई हो.

तो फिलहाल मंत्रालय ने कहा है कि वे सॉलिडैरिटी ट्रायल के डेटा की जांच कर रहे हैं और मौजूदा गाइडलाइंस पर दोबारा नजर डाल रहे हैं.

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