दुनिया भर में नोवल कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) के प्रकोप ने कई तरह की चुनौती दी है. कोई दवा और कोई वैक्सीन न होने के अलावा जिस तेजी से ये वायरस लोगों में फैला उसके कारण मेडिकल जगत इससे निपटने के लिए जरूरी चीजों जैसे मास्क, पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (PPE) और कुछ दवाइयों की कमी से भी जूझ रहा है.
उन्हीं में से एक है वेंटिलेटर, वो डिवाइस जो रेस्पिरेटरी या लंग फेल्योर के मरीजों में इस्तेमाल की जाती है.
हम जानते हैं कि SARS-CoV-2 वायरस मरीज के रेस्पिरेटरी सिस्टम पर अटैक करता है. ऐसे में जब COVID-19 महामारी का रूप ले चुकी है, हर देश के लिए पर्याप्त वेंटिलेटर की उपलब्धता जरूरी हो गई है. हालांकि ऐसा नहीं है कि कोरोना वायरस से संक्रमित हर मरीज को वेंटिलेटर की जरूरत हो. इसे लेकर भी चर्चा हो रही है कि क्या इस महामारी में वेंटिलेटर के प्रयोग पर जल्दबाजी दिखाई जा रही है.
COVID-19 के किन मरीजों को कब पड़ती है वेंटिलेटर की जरूरत और किस तरह वेंटिलेटर से मरीजों को मदद मिलती है, ये समझते हैं.
COVID-19 के सीवियर मामलों में जब वायरस फेफड़ों को ज्यादा नुकसान पहुंचाने लगता है, जिससे सांस लेने की प्रक्रिया में बाधा आने लगती है, ऑक्सीजन लेवल नीचे जाने लगता है, तो मरीज की हालत में सुधार लाने के लिए वेंटिलेटर का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि मरीज सांस ले सके और शरीर में ऑक्सीजन का लेवल मेंटेन रहे.
कोविड-19 के मामलों पर वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की ओर से दिए गए आंकड़ों के मुताबिक हर 6 में से 1 मरीज गंभीर रूप से बीमार पड़ सकता है. इसका मतलब है कि कोविड-19 के करीब 5% मामले क्रिटिकल होते हैं.
फोर्टिस हॉस्पिटल, वसंत कुंज में पल्मोनोलॉजी डिपार्टमेंट के डायरेक्टर और मेडिकल क्रिटिकल केयर के हेड डॉ विवेक नांगिया बताते हैं किCOVID-19 पर बाहर की स्टडीज हैं कि 2% से 3% लोगों को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है.
जब बीमारी के कारण फेफड़े काम करना बंद कर देते हैं, शरीर के लिए सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया वेंटिलेटर की मदद से कराई जाती है.
इसके साथ ही मरीज को दवा दी जाती है ताकि उनके रेस्पिरेटरी मसल्स को आराम मिले और उनके सांस लेने की प्रक्रिया पूरी तरह से मशीन से रेगुलेट हो.
डॉ विवेक नांगिया के मुताबिक शुरुआत में 2 से 3 दिन तक ऐसा किया जाता है कि मरीज अपनी तरफ से सांस न ले, वेंटिलेटर ही उनकी सांस कंट्रोल करे. जैसे-जैसे मरीज में रिकवरी शुरू होती है, तो दवाइयों को हटाया जाता है और धीरे-धीरे मरीज को खुद से सांस लेना शुरू करने के लिए प्रेरित किया जाता है.
इस तरह मरीज को संक्रमण से लड़ने और उबरने का समय मिल जाता है. हालांकि इस दौरान पेशेंट को 24/7 देखभाल और निगरानी की जरूरत होती है.
वेंटिलेटर दो तरह के होते हैं:
इन्वेसिव में एक ट्यूब को मुंह के रास्ते गले से होते हुए सांस की नली में डालते हैं और फिर उसको वेंटिलेटर से कनेक्ट करते हैं.
नॉन-इन्वेसिव में सिर्फ एक मास्क यूज करते हैं, जो नाक और मुंह को कवर करता है और उसके जरिए मरीज को वेंटिलेट किया जाता है. ये मास्क ऑक्सीजन के एक बैग से जुड़ा होता है.
हाल ही में फाइनेंसशियल टाइम्स की एक रिपोर्ट में मरीजों को इन्वेसिव वेंटिलेटर पर रखने की जल्दबाजी का जिक्र किया गया और इसके संभावित नुकसान की चेतावनी दी गई.
इस रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में एमोरी यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर क्रेग जाबाले का मानना है कि मरीज को वेंटिलेटर पर रखने से पहले उसकी कंडिशन का सही असेस्मेंट होना चाहिए क्योंकि कोरोना वायरस के बारे में हम हर बार नई चीजें सीख रहे हैं.
यूरोपियन डॉक्टरों के एक ग्रुप ने अमेरिकन जर्नल ऑफ रेस्पिरेटरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन को एक लेटर सबमिट किया, जिसमें डॉक्टरों को गैर जरूरी मकैनिकल वेंटिलेशन से बचने की बात कही गई थी.
कई एक्सपर्ट्स का कहना है कि कुछ मरीजों के मकैनिकल वेंटिलेशन से मदद मिल सकती है, लेकिन डॉक्टर इसके प्रयोग में जल्दबाजी दिखा रहे हैं, जिससे कि बेवजह मरीज एक ट्रॉमैटिक ट्रीटमेंट से गुजर रहे हैं, जबकि कम या नॉन इन्वेसिव रेस्पिरेटरी सपोर्ट भी प्रभावी हो सकता है.
यूके के इंटेंसिव केयर स्पेशलिस्ट डॉ रॉन डेनियल कहते हैं कि कोरोना प्रकोप के शुरुआती चरणों के दौरान, कई देशों में डॉक्टरों ने मरीजों को ब्लड में ऑक्सीजन के लो लेवल के आधार पर वेंटिलेटर पर रखा. अब हम लक्षणों के आधार पर ये देखते हैं कि पेशेंट को सांस लेने में कितनी तकलीफ हो रही है.
वेंटिलेटर कोई रामबाण नहीं है. हाल ही में पेपर के अनुसार, COVID-19 के 12 प्रतिशत रोगियों को, जिन्हें न्यूयॉर्क के सबसे बड़े हॉस्पिटल सिस्टम में वेंटिलेटर पर रखा गया, उनमें से 88 फीसदी मरीजों की मौत हो गई.
फिट से बातचीत में बाहर की स्टडीज के आधार पर डॉ नांगिया इस संबंध में 50% से 80% डेथ रेट की बात करते हैं.
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि हमें ये समझने की जरूरत है, वेंटिलेटर जैसी टेक्नीक से हम पेशेंट को ठीक नहीं कर रहे होते हैं बल्कि इनके सहारे उसे तब तक जिंदा रखते हैं, जब तक शरीर वायरस से अपनी लड़ाई जारी रखता है.
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