अमेरिका के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीज (NIAID) के डायरेक्टर डॉ एंथनी एस फाउची ने वैक्सीन डेवलपमेंट में तेजी लाने के लिए 'ह्यूमन चैलेंज ट्रायल' किए जाने पर चिंता जताई है.

डॉ फाउची ने ये बातें इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के ऑनलाइन इंटरनेशनल सिंपोजियम में कही हैं, जो कि 30 जुलाई को हुआ.

उन्होंने कहा कि जानबूझकर किसी को कोरोना वायरस से एक्सपोज करना ठीक नहीं है क्योंकि अब तक इस बीमारी का कोई पुख्ता ट्रीटमेंट साबित नहीं हो सका है.

दूसरी ओर, उसी सिम्पोजियम में मौजूद कई दूसरे विशेषज्ञों का मानना था कि चैलेंज ट्रायल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एड्रियन हिल ने कहा, "हमारे पास चैलेंज ट्रायल और रैंडमाइज्ड कंट्रोल ट्रायल दोनों के लिए एक्सपेरिमेंटल थेरेपीज हैं और मलेरिया व हैजा जैसी दूसरी बीमारियों के लिए इन्हें बिना किसी समस्या के अंजाम दिया जा चुका है.

हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि नोवेल कोरोना वायरस को पूरी तरह से हराने का एकमात्र तरीका इसके खिलाफ वैक्सीन डेवलप करना है. सोशल डिस्टेन्सिंग और लॉकडाउन इसको फैलने से रोक सकते हैं, लेकिन वैक्सीन ही इसे पूरी तरह से रोकने का कारगर उपाय है.

लेकिन वैक्सीन तैयार होने में वक्त लगता है. इसमें कई स्टेज शामिल होते हैं. जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं.

सबसे तेजी से वैक्सीन मम्प्स के लिए तैयार हुआ था है- इसमें चार साल लगे थे.

लेकिन फिलहाल SARS-CoV-2 हर दिन हजारों की जान ले रहा है, ऐसे में क्या दुनिया इंतजार कर सकती है? यही सवाल 'ह्यूमन चैलेंज ट्रायल' बहस के केंद्र में भी है, ट्रायल जो वैक्सीन डेवलपमेंट में तेजी ला सकता है. लेकिन इसे लेकर अहम नैतिक दुविधा भी हैं, विवाद भी हैं.

'ह्यूमन चैलेंज ट्रायल' क्या है?

सुरक्षा और असर जांचने के लिए वैक्सीन का टेस्ट जरूरी है. क्लीनिकल ट्रायल के बाद के स्टेज (फेज III) में, जब सुरक्षा को लेकर आश्वस्त हो जाते हैं, तो शोधकर्ता आमतौर पर हजारों वॉलंटियर्स को 2 ग्रुप्स में बांटते हैं - एक को वैक्सीन और दूसरे को प्लेसीबो दिया जाता है.

इसके बाद, वे इंतजार करते हैं.

वैक्सीन ने काम किया या नहीं, ये तभी पता चलता है, जब वॉलंटियर अपनी रोजमर्रा के काम जारी रखते हुए वायरस के संपर्क में आते हैं, जिसके बाद दोनों ग्रुप्स के बीच तुलना करके ये देखा जाता है कि क्या जिन्हें वैक्सीन दी गई, वो संक्रमण से सुरक्षित हैं? इसमें हफ्तों, महीनों, या सालों तक का समय लग सकता है, खासकर जब लोग सचेत रूप से सावधानियों का पालन कर रहे हैं और संक्रमण से बचने के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग के उपाय कर रहे हैं.

‘ह्यूमन चैलेंज ट्रायल’ में जानबूझ कर लोगों को संक्रमित कर इस प्रक्रिया में तेजी लाई जाती है. यानी उनके शरीर को पैथोजेन से लड़ने के लिए ‘चुनौती’ दी जाती है. माना जाता है कि वैक्सीन लगवा चुका शख्स वायरस के खिलाफ इम्युनिटी विकसित कर लेते हैं, तो फिर जल्द ही टेस्ट किया जा सकता है.

ऐसे ट्रायल्स को इन्फ्लूएंजा, मलेरिया, टाइफाइड, हैजा और शिगेला जैसी अन्य बीमारियों में के लिए अपनाया जा चुका है.

नैतिक दुविधा: एक्सपर्ट्स क्या सोचते हैं

फिट से बात करते हुए, वेलकम ट्रस्ट डीबीटी इंडिया एलायंस के वायरोलॉजिस्ट और सीईओ डॉ. शाहिद जमील ने कहा, "अधिकांश बीमारियों के लिए जहां इन ट्रायल्स का इस्तेमाल किया गया है, वहां बीमारी को हरा देने वाली दवाएं उपलब्ध थी, जैसे कि मलेरिया. लेकिन COVID-19 अलग है क्योंकि इसकी कोई सटीक दवा नहीं है.”

कोई ज्ञात इलाज, दवा या उपचार के बिना पांच महीने पुरानी बीमारी के लिए चैलेंज ट्रायल करने में, इस सवाल पर ध्यान खींचा है कि- वायरस से जानबूझकर स्वस्थ लोगों को संक्रमित करना कितना नैतिक है?

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फोर्टिस, गुरुग्राम में इंफेक्शियस डिजीज कंसल्टेंट डॉ. नेहा गुप्ता बताती हैं, “एक सुरक्षित और कुशल वैक्सीन विकसित करने की जरूरत आज के समय में सबसे अहम है. ये एक जरूरी स्वास्थ्य प्राथमिकता है.”

जसलोक अस्पताल में इंफेक्शियस स्पेशलिस्ट डिजीज के डायरेक्टर डॉ. ओम श्रीवास्तव कहते हैं,

“कोई स्पष्ट जवाब नहीं है. आप विनाशकारी या घातक परिणामों की संभावना को नकार नहीं सकते. ये सब इसपर भी निर्भर है कि ये कितना जरूरी है और क्या कोई अन्य विकल्प नहीं है? यहां संतुलन महत्वपूर्ण है.”
डॉ. ओम श्रीवास्तव

दुनियाभर में इसपर जारी है बहस

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने COVID-19 को लेकर ट्रायल के लिए 8 क्राइटेरिया तय करते हुए डॉक्यूमेंट जारी किया है.

न्यू जर्सी में रटगर्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की एक टीम ने COVID -19 के लिए इन स्टडी की सक्रिय रूप से वकालत की है, जिसमें वॉलंटियर्स को वायरस से संक्रमित कराया गया है, साथ ही प्रयोगों की सुरक्षा और नैतिकता सुनिश्चित करने के तरीके भी बताए गए हैं. उनका मानना है, "वैक्सीन परखने में तेजी लाकर ऐसी स्टडी, कोरोना वायरस से संबंधित मृत्यु दर और रोग के वैश्विक बोझ को कम कर सकते हैं."

द जर्नल ऑफ इंफेक्शियस डिजीज में प्रकाशित स्टडी का तर्क है कि सिर्फ स्वस्थ युवा वयस्कों को शामिल किया जाए, जो प्राकृतिक संक्रमण के बाद बीमारी को लेकर कम जोखिम में हैं और जिनमें इंफेक्शन का हाई बेस लाइन रिस्क हो, ऐसे में नेट रिस्क को कम किया जा सकता है. इन लोगों पर निगरानी रखी जाएगी, और किसी भी संक्रमण के बाद, सबसे अच्छी उपलब्ध देखभाल दिया जाएगा.

फेज 3 ट्रायल जिसमें हजारों वॉलंटियर्स को शामिल किया जाता है, उसकी जगह ‘ह्यूमन चैलेंज ट्रायल’ न सिर्फ प्रक्रिया में तेजी लाएगा, बल्कि इससे ट्रायल में शामिल होने वाले व्यक्तियों की संख्या भी कम होगी.

अमेरिका के 34 साल के जोश मॉरिसन किडनी डोनर्स के लिए काम करने वाले वकील हैं. उन्होंने वॉलंटियर्स को संगठित करने के लिए '1DaySooner’ नाम से एक ग्रुप शुरू किया है, जो COVID-19 के लिए चैलेंज स्टडी में भाग लेने के लिए तैयार होगा. 102 देशों से 16,000 से ज्यादा लोगों ने इसके लिए हस्ताक्षर किए हैं.

हालांकि इस तरह के ट्रायल्स के लिए कोई सुनिश्चित पब्लिक प्लान नहीं है, लेकिन कई राजनेता और विशेषज्ञ इसके लिए जोर दे रहे हैं. एनबीसी न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक लंदन स्थित hVIVO और स्विट्जरलैंड स्थित एसजीएस भी इन स्टडी को शुरू करने के लिए काम कर रहे हैं. यहां तक कि खाद्य और औषधि प्रशासन (एफडीए), जिसने बिना इलाज के कभी भी इस तरह के ट्रायल्स की इजाजत नहीं दी है, उसने भी इसपर फैसला नहीं किया है.

एक बयान में, इसने कहा-

“ह्यूमन चैलेंज स्टडी COVID-19 को रोकने के लिए वैक्सीन डेवलपमेंट में तेजी लाने का एक तरीका है क्योंकि इन स्टडी में वायरस के संपर्क में आने वाले वॉलंटियर शामिल हैं, इसलिए ये संभावित वैज्ञानिक, व्यवहार्यता और नैतिक मुद्दों को उठाते हैं. एफडीए उन लोगों के साथ काम करेगा जो इन मुद्दों का मूल्यांकन करने में मदद करने के लिए ह्यूमन चैलेंज ट्रायल का संचालन करने में रुचि रखते हैं.”
एफडीए

2016 में जीका वायरस के लिए इन ट्रायल्स को अस्वीकार कर दिया गया था, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा नॉन-पार्टिसिपेंट जैसे वॉलंटियर्स के सेक्सुअल पार्टनर्स जो शामिल नहीं थे, उनके जोखिम को देखते हुए किया गया था.

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Published: 13 May 2020,05:32 PM IST

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