(यह लेख फिट की #DecodingPain सीरीज का हिस्सा है. इस सीरीज में हम दर्द की हर परत– अहसास, वजह, इससे जुड़े कलंक, दवा और ट्रीटमेंट के बारे में गहराई से जानेंगे.)
साल 2018 के अप्रैल में एक दिन शिरीन को सिरदर्द हुआ... और यह तब से फिर कभी बंद नहीं हुआ.
वह बताती हैं, “कई बार यह बहुत तेज हो जाता है, लेकिन पिछले 3 सालों में ऐसा कोई लम्हा नहीं आया जब यह मौजूद नहीं था.”
कई डॉक्टरों और स्पेशललिस्ट से मिलने का भी कोई फायदा नहीं हुआ.
एमआरआई? कुछ नहीं निकला. सीटी स्कैन? कुछ नहीं निकला. एक्स-रे? कुछ नहीं निकला.
तब उन्होंने साइकोलॉजिकल ट्रिगर्स की संभावनाओं को खंगाला.
पुरानी घटनाओं को याद करते हुए शिरीन कहती हैं, “ऐसी कोई घटना नहीं है जिससे मैं इसे जोड़ सकूं, लेकिन निश्चित रूप से मेरी जिंदगी में ऐसा वक्त था, जब मैं बहुत ज्यादा भावनात्मक तूफानों से गुजर रही थी.”
लगभग उसी समय उनकी दादी भी गुजर गईं, जिनके वह बहुत करीब थीं.
वह बताती हैं, और तभी से सिरदर्द शुरू हुआ, जब वह शारीरिक या भावनात्मक रूप से थकी होती हैं तो यह बहुत तेज हो जाता है.
यही वह कड़ी है जिसे उनके इलाज में मनोचिकित्सक बाकी दूसरे साइकोलॉजिकल ट्रीटमेंट के साथ दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं.
बीती कुछ सदियों में आधुनिक चिकित्सा पद्धति के विकास के साथ मन और शरीर के बीच की कड़ियों के बारे में हमारी समझ काफी बढ़ी है.
पहले के एक लेख में, FIT ने मन और आंत के बीच संबंध को समझाया था और बताया था कि एक की सेहत दूसरे पर किस तरह असर डालती है.
इसी तरह, दर्द को मानसिक तनाव (mental stress) से जोड़ने का विचार कोई नया नहीं है.
आइए प्राचीन ग्रीस से शुरुआत करते हैं. मशहूर दार्शनिक प्लेटो ने दर्द और आनंद को भावनाओं का रूप बताया था.
जिस तरह दुनिया के साथ हमारा संपर्क सुख देता है, उसी तरह यह दुख का कारण भी बन सकता है.
प्लेटो जैसे प्राचीन दार्शनिकों ने शारीरिक और भावनात्मक में फर्क नहीं किया, और दर्द को लेकर बहुत सी थ्योरी ने दर्द को उत्तेजना की भावनात्मक प्रतिक्रिया बताया है.
17वीं सदी में फ्रांसीसी दार्शनिक और वैज्ञानिक रेने देकार्ते (René Descartes) यह विचार पेश करने वाले पहले शख्स बने कि दर्द दिमाग से आता है. उन्होंने दर्द को दिमाग में रहने वाली ‘आत्मा’ का उत्पाद भी बताया है.
तेजी से आगे बढ़ते हुए 1900 में चलते हैं, जब ‘द गेट कंट्रोल थ्योरी ऑफ पेन’ (The Gate Control theory of pain) में पहली बार बताया गया कि अगर किसी को किसी भी तरह के आघात (trauma) का सामना करना पड़ता है, तो आवेग (impulses) रीढ़ की हड्डी तक जाते हैं, और नर्वस सिस्टम के जरिए दिमाग तक पहुंचते हैं.
इस थ्योरी में कल्पना की गई है कि किसी की रीढ़ की हड्डी में कई छोटे गेट या दरवाजे होते हैं, जो इन संकेतों को दिमाग तक जाने का रास्ता देते हैं, जहां इसे प्रोसेस किया जाता है.
उदाहरण के लिए अगर कोई शख्स उच्च स्तर के भावनात्मक आघात से गुजर रहा है, तो दर्द के आवेग ज्यादा आजादी से दिमाग तक सफर करते हैं.
यह सिद्धांत आज भी दर्द की हमारी समझ में इस्तेमाल होता है.
डॉ. प्रवीण गुप्ता कहते हैं, “कोई भी बीमारी, कोई भी आघात इस संवेदनशीलता को बदल सकता है कि किस तरह कोशिकाएं ट्रांसमीटरों के स्राव (सिक्रीशन) को चलाएंगी. इसलिए मुमकिन है कि सेल फंक्शन में बदलाव से पेन ट्रांसमीटरों का असामान्य सिक्रीशन हो.”
डॉ. प्रवीण गुप्ता कहते हैं, “जब इस तरह का दर्द लंबे समय तक बना रहता है, तो इसे क्रोनिक दर्द (chronic pain) के रूप में जाना जाता है.”
इस मिसफायर को ट्रिगर करने वाला आघात शारीरिक और मानसिक कोई भी हो सकता है. वे कहते हैं,
अपोलो हॉस्पिटल, दिल्ली के न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट संदीप वोहरा के मुताबिक, “अलग-अलग लोगों में आघात दिमाग पर अलग तरह से असर डालता है, और मनोवैज्ञानिक तनाव आपके शरीर में अलग-अलग चैनलों के माध्यम से अलग तरह से दिखाई दे सकता है.”
जब मानसिक तनाव के चलते शरीर में दर्द होता है तो इसे मनो-दैहिक दर्द (psychosomatic pain) कहा जाता है.
संदीप वोहरा बताते हैं,
डॉ. संदीप वोहरा आगे बताते हैं कि जब लगातार पेनकिलर्स दवाओं से भी दर्द खत्म नहीं होता है तो यह साइकोसोमैटिक दर्द की निशानी है.
आसान शब्दों में कहा जाए तो, जब दिमाग तनाव में होता है, तो दिमाग के ट्रांसमीटरों में बदलाव से इससे जुड़े न्यूरोट्रांसमीटर्स में बदलाव होता है.
न्यूरोट्रांसमीटर की फायरिंग में यह बदलाव शारीरिक दर्द के असल लक्षणों की ओर ले जाता है जैसे फाइब्रोमायल्जिया (fibromyalgia- व्यापक स्तर पर मांसपेशियों और हड्डियों में दर्द के साथ थकान और नींद, स्मृति व मूड से जुड़ी दिक्कतें) के मामले में.
मानसिक और शारीरिक तनाव का यह रिश्ता इतना उलझा हुआ है कि कह पाना मुश्किल है कि कहां एक खत्म होता है और कहां से दूसरा शुरू होता है.
वकील, मेंटल हेल्थ एक्टिविस्ट और क्रोनिक पेन वारियर स्वाति को जब फाइब्रोमायल्जिया की रिपोर्ट सौंपी गई तो न तो इसकी कोई वजह बताई गई, न ही ट्रीटमेंट का कोई उपाय बताया गया.
वह मेंटल हेल्थ और शारीरिक दर्द दोनों से जूझने के बारे में बताती हैं कि किस तरह उनके मामले में शारीरिक दर्द के चलते उनको मानसिक बीमारी का पता चला.
लगातार दर्द जैसी अदृश्य बीमारियों में ‘जख्म’ नहीं दिखते हैं, जो उनके इलाज को और ज्यादा मुश्किल बना सकते हैं.
अगर इसकी बुनियादी वजह कोई मनोवैज्ञानिक समस्या है, तो इसकी तह तक पहुंचना और भी मुश्किल हो सकता है.
वह बताती हैं, “मैंने कई बार इसे किसी पुरानी बात से जोड़ने की कोशिश की. काश वे मुझे सिर्फ इतना बता पाते कि यह किस खास मनोवैज्ञानिक समस्या की वजह से है, तो कम से कम मुझे पता होता कि इससे कैसे निपटना है.”
मेडिकल प्रोफेशनल भी अक्सर हवा में तीर छोड़ते रह जाते हैं.
शिरीन कहती हैं, “मैं इसके बारे में बहुत कुछ सुन चुकी हूं. एक साइकोलॉजिस्ट ने मुझसे कहा कि मेरा सिरदर्द बीस साल की उम्र के बाद के तीन-चार सालों का शादी का तनाव भर था. वह मुझसे बात किए बिना ही इस नतीजे पर पहुंच गए थे.”
इस सवाल पर कि वह बुनियादी वजह कैसे पता लगाते हैं, डॉ. वोहरा बताते हैं,
डॉ. प्रवीण गुप्ता कहते हैं, “लंबे समय तक लगातार दर्द (Chronic pain) की तकलीफ लोग सालों झेलते रहते हैं.”
और इसकी बड़ी वजह मेडिकल प्रोफेशनल्स तक में जागरुकता, डायग्नोसिस और गाइडेंस की कमी है.
वह जोर देकर कहते हैं, मगर “इसका इलाज किया जा सकता है.”
जैसा कि स्वाति के मामले में है. हालांकि अभी भी उनको फाइब्रोमायल्जिया और कई बार तकलीफ बहुत बढ़ जाती है, मगर जबसे बाई-पोलर डिसऑर्डर का इलाज शुरू किया गया है, उनका माइग्रेन खत्म हो गया है.
डॉ. प्रवीण गुप्ता कहते हैं, “इसीलिए सही डायग्नोसिस और बुनियादी वजह का पता लगाना बहुत जरूरी है.”
डॉ. गुप्ता उन कदमों के बारे में बताते हैं, जिन्हें साइकोसोमैटिक क्रोनिक पेन के इलाज में इस्तेमाल किया जा सकता है.
सबसे पहले तो मरीज को यह समझाना होगा कि बुनियादी वजह तक पहुंचना एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है.
मरीज को दर्द की शारीरिक प्रक्रिया के बारे में बताना.
दर्द के ट्रिगर्स की पहचान करें, फिर उन ट्रिगर्स का इलाज करें या उनसे बचें.
काउंसलिंग के जरिए दर्द की शुरुआत की पहचान करना. इसमें आघात से राहत देने के लिए कुछ दवाओं की भी जरूरत पड़ सकती है.
इसके बाद दर्द के शारीरिक हिस्से को ठीक करने के लिए उचित मसल रिलैक्सेंट या नर्व रिलैक्सेंट दवाएं दी जाती हैं.
वे कहते हैं, “हम कई तरीकों से ट्रीटमेंट करते हैं ताकि इससे जुड़ी सभी समस्याओं को ठीक किया जा सके.”
डॉ. वोहरा कहते हैं, लेकिन इलाज की कामयाबी इस बात पर भी निर्भर करती है कि समस्या कितने समय से है.
वह कहते हैं, “लेकिन अगर दर्द कई सालों से चल रहा है, तो इसे पूरी तरह और कामयाबी से ठीक करना मुश्किल हो सकता है.”
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