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11 जुलाई 2018 को, हरि शंकर, जो एक एनजीओ दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल (DNP Plus) के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं, एक संकट में फंसे हुए थे. DNP Plus एक ऐसा गैर सरकारी संगठन (NGO) है, जो एचआईवी/एड्स पीड़ित लोगों के लिए एक सहायक समूह के तौर पर काम करता है.
दिल्ली में सरकार की मदद से चलाए जा रहे 11 एआरटी (एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी) केंद्रों में से एक में HIV दवाएं खत्म हो गई थीं.
भारत की राजधानी में यह अनोखी स्थिति नहीं थी, जहां स्टॉक खत्म होना या एचआईवी दवाओं की कमी काफी आम है.
हरि शंकर ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के स्थानीय मरीजों के लिए दवाएं खरीदी थीं.
डीएनपी प्लस कार्यकर्ताओं की तरफ से जून से लेकर कम से कम पांच सिलसिलेवार पत्र राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) के नाम लिखे गए. इसमें संबंधित अधिकारियों से सभी एआरटी केंद्रों में एचआईवी दवाओं का बफर स्टॉक उपलब्ध कराने का आग्रह किया गया.
14 सितंबर 2018 को लिखा गया एक ऐसा ही पत्र, जिसे NACO के केयर, सपोर्ट एंड ट्रीटमेंट डिवीजन में उप महानिदेशक के नाम लिखा गया. इसमें एम्स में एनवीपी ( Nevirapine) सिरप की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का आग्रह किया गया था. एनवीपी दवा मां-से-बच्चे को होने वाले एचआईवी संक्रमण को रोकने के लिए एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी के रूप में प्रयोग की जाती है.
हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार 29 अगस्त 2018 को लोक नायक अस्पताल में एक बार फिर एचआईवी की दवा खत्म हो गई. यह Raltegravir, Darunavir और Ritonavir के कॉम्बिनेशन वाली तीसरे चरण की दवा थी, जो कि सरकारी अस्पताल में नहीं थी.
दिल्ली के स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, 'राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) द्वारा पूरे देश के लिए दवाएं केंद्रीय रूप से खरीदी जाती हैं. टेंडर को अंतिम रूप देने में कुछ दिक्कतें थी और इसलिए दिल्ली में दवाओं की कमी हुई.
पहले और तीसरे चरण की दवाओं की कीमत में अंतर बताता है कि एचआईवी रोगी निर्धारित दवाएं लेने के लिए सरकार संचालित एआरटी केंद्रों में क्यों आते हैं.
चूंकि एचआईवी दवा के पहले चरण के एक महीने के खुराक की कीमत 1,000 से 3,000 रुपये के बीच है. वहीं तीसरे चरण की 30 दिन के दवा की कीमत 20,000 रुपये से 25,000 रुपये के बीच है.
सर गंगा राम हॉस्पिटल में सीनियर कंसल्टेंट डॉ पूजा खोसला के अनुसार, 'एचआईवी वायरस प्रतिरोध के लिए बहुत कमजोर होता है. दवाओं के छोड़ने से म्यूटेशन हो सकता है और इस तरह, पहले चरण (फर्स्ट लाइन) की दवा काम करना बंद कर देगी.'
डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन से जुड़ी डॉ खोसला कहती हैं:
साल 2016 में, एक एचआईवी पॉजिटिव महिला ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि 'एआरटी केंद्रों में एंटीरेट्रोवायरल्स का पर्याप्त स्टॉक नहीं है. रोगियों को एक बार में केवल 15 दिन की दवा दी जा रही थी.'
फिट से बात करते हुए याचिकाकर्ता कहती हैं, जबकि दिल्ली के लोग एचआईवी दवाएं पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में यह उन लोगों के लिए और भी बदतर है, जो दूसरे राज्यों से यहां आते हैं.
उस याचिकाकर्ता को सुनिए जिसने दिल्ली में एचआईवी दवाओं की कमी को लेकर पीआईएल दायर की है. महिला की पहचान सुरक्षित रखने के लिए आवाज बदल दी गई है.
जब महिला ने केंद्र, आम आदमी पार्टी सरकार और NACO के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की तो दिल्ली हाईकोर्ट ने 18 नवंबर 2018 को स्वास्थ्य मंत्रालय से जवाब मांगा. इस मामले में अगली सुनवाई 12 मार्च 2019 को होने की उम्मीद है.
दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल के साथ जुड़े कार्यकर्ता लून गंगटे, जो खुद एचआईवी पॉजिटिव हैं, कहते हैं कि 2004 से हालात में सुधार नहीं हुआ है. वह पिछले 14 साल से एड्स की दवाओं की कमी पर नजर बनाए हुए हैं.
गंगटे इन मेल्स को ‘लॉफ लेटर्स’ कहते हैं. साल 2015-16 में भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जब नैको के बजट में 22 फीसदी की कमी करते हुए, इसे 1397 करोड़ रुपये किया तो काफी हो-हल्ला मचा था. हालांकि साल 2016-17 में यह बजट 17.65 फीसदी बढ़कर 1700 करोड़ रुपये हुआ. इसके बाद साल 2017-18 में यह 2000 करोड़ रुपये किया गया.
साल 2002 से एचआईवी का इलाज करा रहे एक्टिविस्ट लून गंगटे कहते हैं कि बजट की कोई कमी नहीं है, नैको के साथ ढांचागत समस्याएं हैं, जो दवाओं के कमी की पूरी कहानी कहती है.
पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव जेवीआर प्रसाद राव, जो 1997-2002 तक NACO के डायरेक्टर जनरल थे, ने 15 अक्टूबर 2018 को ‘AIDS Control in India Losing Momentum’ नाम से एक लेख में लिखा था:
एक्टिविस्ट दीपक राणा एनजीओ एलायंस इंडिया के साथ काम करते हैं. यह एनजीओ एचआईवी / एड्स की रोकथाम के क्षेत्र में काम करता है. दीपक के अनुसार उच्च जोखिम आबादी वाले लोगों को नियमित जांच-पड़ताल के लिए समझाना एक चुनौती है. दीपक कहते हैं, 'हम अपनी प्रगति पर नजर रखते रहते हैं क्योंकि उच्च जोखिम समूह (HRG-High Risk Group) में सेक्स वर्करों को हर छह महीने में एचआईवी टेस्ट कराना पड़ता है.'
एलायंस इंडिया उच्च जोखिम समूह (एचआरजी) पर केंद्रित है, जिसमें सेक्स वर्कर्स और ट्रांसजेंडर शामिल हैं. एनजीओ ने हाल ही में कंडोम के उपयोग के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए दिल्ली में स्पा और मसाज पार्लर्स में जाना शुरू किया है.
एक कार्यकर्ता जो एचआईवी/एड्स रोगियों की मदद करने वाले एनजीओ के साथ काम करता है, अपना नाम नहीं बताने की शर्त पर कहता है, ‘शुरू में राज्य एड्स संगठनों का काम था कि वे सीधे NACO के जरिए दवा और कंडोम का इंतजाम करें. लेकिन समस्या तब से शुरू हुई जब साल 2013 में एनएचएम (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन) इस तस्वीर में आया.'
शायद यही कारण है कि लून गंगटे जैसे कार्यकर्ता, जिन्होंने लगभग दो दशक तक भारत के एड्स रोकथाम कार्यक्रम से जुड़ी चिंताओं को उठाया है, अब मांग कर रहे हैं कि NACO को स्वायत्तता दी जानी चाहिए.
ऐसा देश जहां लगभग 21.40 लाख लोग एचआईवी-एड्स (NACO की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक) के साथ जी रहे हैं, शायद यही समय है, जब नीतिगत निर्णयों पर फिर से विचार करने की जरूरत है.
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