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रीतू चीख-चीख कर रोना चाहती है. उसके दोनों बच्चे, ऋषभ और सोमा जानी दुश्मनों की तरह लड़ते हैं. रीतू का वीकेंड ज्यादातर अपने बच्चों का बीच-बचाव करते, समझाते और एक रेफरी की भूमिका निभाते गुजर जाता है.
सिबलिंग (भाई-बहनों) के झगड़े, पारिवारिक जिंदगी का हिस्सा होने के साथ ही चिंता और तनाव का कारण बन सकते हैं. किसी माता-पिता के लिए दो बच्चों के झगड़े में हमेशा यह जान पाना मुश्किल होता है कि कौन सा बच्चा किसको तंग कर रहा है या ये सब उनका ध्यान अपनी तरफ खींचने का सिर्फ एक बहाना है.
हर मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देना चाहते हैं ताकि बच्चों के बीच आपस में प्यार ताउम्र बना रहे.
‘सिबलिंग’ शब्द उन बच्चों के लिए इस्तेमाल होता है, जो एक ही परिवार के होते हैं. बच्चों में आपसी विवाद आम बात है और ये तब से है, जब से इंसान ने एक परिवार बन कर रहना शुरू किया. पौराणिक ग्रंथ रामायण और महाभारत में भाइयों-बहनों और उनकी लड़ाइयों की कहानियां हैं.
रूथलेस कम्पैशन इंस्टीट्यूट की संस्थापक और लेखिका डॉ मार्सिया सिरोता एक लेख में बताती हैं:
भले ही दो बच्चों का जन्म एक ही परिवार में हुआ हो, लेकिन वो एक-दूसरे से अलग होते हैं. ये अंतर लैंगिक हो सकता है, बर्ताव और इमोशन का हो सकता है. वो एक-दूसरे को चुनते नहीं हैं, लेकिन उनके पैरेंट्स एक ही होते हैं. बच्चों के बड़े होने के दौरान आपसी मुकाबले या विरोध को सिबलिंग राइवलरी कहा जाता है और इससे समझदारी से निपटने की जरूरत होती है.
सिबलिंग राइवलरी एक-दूसरे के पर्सनल स्पेस और दायरे की इज्जत न कर पाना है. ये साथ में मिलकर न रह पाना है.
छोटी उम्र में, दो या तीन साल के एज गैप से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. पांच साल और आठ साल की उम्र के बच्चे खुशी से एक साथ खेल सकते हैं. लेकिन जब उनमें से एक बच्चा टीनएज में आता है और दूसरा दस तक की उम्र का ही होता है, तब उनके बीच अंतर आ सकता है.
बेटियों के लिए पिता का नरम रवैया बेटों को नाराज कर सकता है. जबकि एक बेटी दूसरे कारणों से अपने भाई को पसंद नहीं कर सकती है. हर बच्चे की माता-पिता से अलग किस्म की उम्मीदें होती हैं और अगर ये पूरी नहीं होतीं, तो समस्या हो सकती है.
पैरेंट्स के बर्ताव में अंतर इस पर निर्भर करता है कि परिवार में बच्चा बड़ा है या छोटा है.
यह समझना होगा कि पारिवार में बड़ा बच्चा भी एक बच्चा ही है और उसको भी मुकाबला करने की कला सीखने की जरूरत होती है. दूसरी तरफ छोटे बच्चों को हमेशा छोटा बच्चा माना जाता है. एक मां के लिए अपने सबसे छोटे बच्चे के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील होना स्वाभाविक है. हालांकि, माता-पिता को सबसे छोटे बच्चे से एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए.
यह समझना जरूरी है कि यहां बात बच्चों से एक समान या पूरी तरह निष्पक्ष और ईमानदार बर्ताव की नहीं है. उम्र के अनुसार नियमों, जिम्मेदारियों और विशेषाधिकारों के बारे में स्पष्टता जरूरी है. उदाहरण के लिए, 13 साल के बच्चे के सोने का समय रात के 10 बजे हो सकता है, लेकिन 10 साल के बच्चे को 9 बजे बिस्तर पर चले जाना चाहिए.
पूरी तरह निष्पक्ष और ऑब्जेक्टिव होने से पेरेंट-बच्चे के संबंध अस्वाभाविक बन सकते हैं. माता-पिता किसी योजना के तहत समान व्यवहार नहीं कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, अगर कोई मां किसी भी कारण से उनमें से किसी एक को गले लगाती है और अगर वह तटस्थ दिखने के लिए दूसरे को भी गले लगाने के लिए मजबूर महसूस करती है, तो स्नेह का सहज संकेत अपने मायने खो देता है.
तुलना करना नाराजगी और आत्म सम्मान में गिरावट की वजह बनता है. हर बच्चा अलग है. जब माता-पिता तुलना करते हैं, तो एक बच्चा बेहतर महसूस करता है, लेकिन दूसरा बच्चा खुद को तुच्छ महसूस कर सकता है और यह बात भाई-बहनों के बीच दुश्मनी पैदा करती है.
अनदेखी करना या रुकावट डालना, गुस्से में फट पड़ना कोई समाधान नहीं है. नाराज बच्चा चोट पहुंचा सकता है. गुस्सा अन्याय की भावना से पैदा होता है, जो तकलीफ पहुंचाता है और इस पर सहानुभूति के साथ ध्यान देने की जरूरत होती है.
यंग बच्चों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की कला की कमी होती है. अगर कोई माता-पिता इसे खुद व्यक्त कर दें, तो यह मददगार हो सकता है, उदाहरण के लिए, “क्या आप इसलिए गुस्से में हैं क्योंकि आपकी बहन को मां का ज्यादा प्यार मिल रहा है?”
एक बार बच्चा जान जाता है कि उसकी जरूरतों को समझा जा रहा है, उसकी बात कही जा रही है और पूरी हो रही है, तो वह शांत हो जाएगा. आत्म-अनुशासन उम्र के साथ आता है. बच्चों को हंगामे का बर्ताव किए बिना अपनी जरूरतों को बताने और पूछने के लिए उनको समझाने की जरूरत होती है.
कई बार लगातार झगड़े, मार-पीट और चीख-पुकार से निपटना मुश्किल हो जाता है. यह जानना जरूरी है कि कब और कितना दखल देना है और कब अनदेखा कर देना है.
हालांकि, दखल देने का मतलब समाधान करना नहीं है. उन्हें समाधान की नहीं बल्कि समाधान के तरीके बताने की जरूरत है. अगर बच्चों में मतभेद है, तो शक्ति-संघर्ष से बचने के लिए किसी एक बच्चे की तरफदारी करने से बचें. उन्हें खुद समाधान ढूंढने के लिए कहें. ज्यादातर मामलों में वह कर भी लेंगे. बना-बनाया हल देने से अन्य पर निर्भरता का पैटर्न बनता है और किसी विवाद का समाधान खोजने की कला सीखने में रुकावट आती है.
एक संभावित समाधान के बारे में पूछें या समाधान के लिए आइडिया दें. उन्हें बातचीत करने दें. बच्चे अपने भाई-बहन को जानते हैं और खुशगवार समाधान कर सकते हैं.
भाई-बहनों की आपस में लड़ाई को गंभीर मुद्दा न बनाएं. आमतौर पर यह एक वक्ती दौर है और बच्चे साथ-साथ रहना सीख लेते हैं. वो प्यार भरे रिश्ते बनाते हैं और सबसे अच्छे दोस्त बन जाते हैं.
(नूपुर रूपा एक फ्रीलांस राइटर और मदर्स के लिए एक लाइफ कोच हैं. वह पर्यावरण, फूड, इतिहास, बच्चों की परवरिश और यात्राओं पर लेख लिखती हैं. आप यहां उनके ब्लॉग का पहला हिस्सा पढ़ सकते हैं.)
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Published: 16 Nov 2018,06:55 PM IST