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केरल में एक 19 साल के छात्र ने आत्महत्या कर ली क्योंकि बाढ़ के पानी में उसके सारे डॉक्यूमेंट्स बर्बाद हो गए थे. राहत शिविर से वापस लौटे एक 54 वर्षीय शख्स ने बाढ़ की वजह से तबाह हुए अपने घर की हालत देखकर खुद को फांसी लगा ली. बाढ़ से जान-माल की हानि के बाद इससे लोगों को पहुंचे मानसिक आघात का नतीजा आत्महत्या के तौर पर सामने आ रहा है.
बाढ़ का पानी कम होने के साथ जहां एक ओर राज्य सरकार इस आपदा से हुई कुल हानि का लेखा-जोखा तैयार करेगी, वहीं इसे झेलने वाले लोग बाढ़ में बहे अपनी जिंदगी के हिस्सों को बटोरकर फिर से बसने की कोशिश करेंगे. बाढ़ के बाद तमाम बीमारियां फैलने की आशंका के मद्देनजर केरल में डॉक्टरों की टीम तैनात कर दी गई है. इसी के साथ बाढ़ से प्रभावित लोगों के मानसिक स्वास्थ्य का भी ख्याल रखने की जरूरत है, ताकि वो इस सदमे से उबर सकें.
केरल के स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा ने बाढ़ से प्रभावित हुए लोगों को सांत्वना दी है कि वे अकेले नहीं हैं. मुख्यमंत्री पिनरई विजयन ने भरोसा दिया है कि सरकार लोगों के साथ है. अधिकारियों ने बताया है कि बाढ़ प्रभावितों के मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल काउंसलर और मनोवैज्ञानिकों की मदद से रखा जा रहा है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा है कि अगर राज्य सरकार चाहे तो जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और न्यूरो विज्ञान से साइको-सोशल टीमें भी तैनात कर दी जाएंगी.
आइए समझते हैं कि किसी भी प्राकृतिक आपदा का पीड़ितों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से क्या प्रभाव पड़ता है और उससे जल्द से जल्द निपटना क्यों जरूरी होता है?
कोच्चि में मेडिकल ट्रस्ट हॉस्पिटल के मुख्य मनोचिकित्सक डॉ सीजे जॉन कहते हैं कि लोगों के जीवन में अप्रत्याशित घटनाएं उनके मानसिक स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव डाल सकती हैं.
तमिलनाडु के कुड्डालोर गांव में सुनामी आने के दो महीने बाद एक अध्ययन किया गया था. इसमें 12.7 फीसदी व्यस्कों में पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर के चिड़ाचिड़ाहट और भावनात्मक शून्यता जैसे लक्षण देखे गए थे. 1993 में लातूर भूकंप और 2005 में मुंबई की बाढ़ से प्रभावित लोगों पर किए गए कई अध्ययन पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर की पुष्टि करते हैं.
आपदा से फिर पीड़ित होने का डर और आपदा का वो खौफनाक मंजर पीड़ित लोगों को बाद में भी परेशान कर सकता है. कुछ लोग ऐसी सभी चीजों से बचना शुरू कर देते हैं, जो उन्हें उसकी याद दिलाए. वहीं कुछ लोग सामाजिक जीवन से कटने लगते हैं. ये सभी PTSD के संकेत हैं. डॉ जॉन उदाहरण देते हैं कि जैसे बाढ़ से प्रभावित हुए कुछ लोग बारिश को देखकर ही चिंतित हो सकते हैं और और छोटी-छोटी चीजों से चौंकने लगते हैं.
दो बच्चों की एक मां बिल्कुल ऐसा ही महसूस किया, जैसा डॉ जॉन उदाहरण देते हैं. साल 2010 में उनके घर में घुटनों तक पानी भर गया था. पानी बच्चे के पालने तक आ पहुंचा था. गनीमत की बात ये थी कि उस दिन बच्चा पालने की बजाए बिस्तर पर था. वो ये बात सोचकर सिहर उठती हैं कि अगर बच्चा उस दिन पालने में होता, तो क्या होता. उस दौरान उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ था और कुछ घंटों की कोशिश कर घर में भरा पूरा पानी बाहर कर लिया गया था. लेकिन इस वजह से उन्हें करीब 5 साल तक पैनिक अटैक पड़ता रहा. वो घने-काले बादल देखकर ही पैकिंग शुरू कर दिया करती थीं.
राहत शिविरों में सभी लोग एक ही तरह के तनाव से गुजरते हैं और इसलिए वहां ये काम आसान होगा. केरल से आई आत्महत्या की तीन खबरें बताती हैं कि जैसे-जैसे लोग अपने घर वापस जाएंगे ऐसे मामलों में वृद्धि हो सकती है.
साल 2004 में तमिलनाडु में सुनामी के कहर के बाद चेन्नई के इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ से कई मनोरोग चिकित्सकों ने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया था. इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर डॉ एम मुरुगप्पन ने तब पीड़ितों से कैसे बात करनी है, इसके बारे में बताया था.
केरल में विशेषज्ञों और स्वयंसेवकों का समूह बाढ़ से प्रभावित बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल कहानी, खेल और कला के जरिए रख रहा है. इसके जरिए बच्चों को सकारात्मक तरीके से तनाव से उबरना सिखाने की कोशिश हो रही है.
डॉ जॉन पुनर्वास से जुड़े कुछ जरूरी उपायों का जिक्र करते हैं.
किसी भी तरह की छोटी या बड़ी मदद लेने से हिचकिचाना नहीं चाहिए. अकेले सब कुछ करने के दबाव से खुद को निकालना चाहिए.
(ये स्टोरी पहले Fit पर पब्लिश हुई है. जिसका हिंदी में अनुवाद किया गया है. अनुवाद: सुरभि गुप्ता)
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