advertisement
दुर्भाग्य से यह एक आम कहानी है. हर स्कूल, हॉस्टल और अन्य शैक्षिक संस्थान में ऐसा होता है. एक सहकर्मी ने मुझे अपने बोर्डिंग स्कूल की एक घटना के बारे में बताया था, जिसमें कक्षा 10 की दो लड़कियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया और स्कूल अधिकारियों ने हॉस्टल में उनके कमरे अलग कर दिए क्योंकि वे समान लिंग के प्रति आकर्षित थीं.
बच्चे, चाहे वह आठ से बारह साल के हों या किशोर, उनका आधा दिन स्कूल में ही बीतता है. वो स्कूल में जो कुछ देखते और सीखते हैं, उनके चरित्र, विचार और व्यवहार में प्रतिबिंबित होता है. और हमें अपने बच्चों को सिखाने की जरूरत है कि किसी के समलैंगिक के रूप में पहचाने जाने में कोई खराबी नहीं है. उसका समर्थन करें और बिना किसी डर के अपनी पहचान उजागर करने का माहौल दें.
बाल मनोचिकित्सक डॉ अमित सेन का कहना है कि सिर्फ बच्चों को ही नहीं, हमें शिक्षकों और स्कूल प्रशासन को भी संवेदनशील बनाने की शुरुआत करनी है.
बच्चे केवल वही सीखते हैं, जो वे अपने आसपास देखते हैं और अगर उन्हें स्कूल में आसपास कोई होमोफोबिया नहीं दिखाई देता है या वे मतभेदों की स्वीकृति देखते हैं, तो यह उनके व्यवहार में भी प्रतिबिंबित होगा.
शिक्षकों के मन में भरे स्टीरियोटाइप ऐसे बच्चों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार के रूप में प्रतिबिंबित हो सकते हैं, जो उनकी सोच के हिसाब से सामान्य के दायरे में फिट नहीं होते.
डॉ सेन कहते हैं कि भारतीय स्कूलों में ज्यादातर टीचर या काउंसलर यौन संबंध या जेंडर के बारे में कुछ भी जिक्र करने में असहज महसूस करते हैं. पहले इसे बदला जाना चाहिए.
शायद चौथी या पांचवीं कक्षा में, जेंडर, लड़कों व लड़कियों में अंतर, बड़े होने जैसे मुद्दों में से कुछ पर बातचीत शुरू कर देनी चाहिए. व्यापक अर्थों में, इसे सेक्स एजुकेशन कहा जा सकता है. लेकिन लोग इस शब्द का इस्तेमाल करते हुए सोचते हैं कि यह बच्चों को खराब कर रहा है. इस सोच को बदलने की जरूरत है.
हालांकि, यह सिर्फ एकाध वर्कशॉप से नहीं हो जाएगा, यह एक सतत बातचीत से किया जा सकता. बच्चों को रोज की बातचीत में उनके रवैये के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए. संवेदनशीलता एक सतत, लगातार सीखने की प्रक्रिया होनी चाहिए.
उदाहरण के लिए, अगर कोई स्टूडेंट गे या लेस्बियन या क्वीर को ऐसा कहकर उसका मजाक उड़ाता है, तो उसकी निंदा करने या दंडित करने के बजाय, उस पल को बातचीत शुरू करने के मौके के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए. डॉ. सेन का कहना है कि, अगर फिर भी वह नहीं सुधरता है, और दूसरों को धमकाना या चिढ़ाना जारी रखता है, तो इसे अलग बुला कर साफ तौर पर अंजाम के बारे में बता देना चाहिए.
माइंड सेट को बदलने की जरूरत है, और भला स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ शुरुआत करने से बेहतर जगह क्या है?
(FIT अब वाट्स एप पर भी उपलब्ध है. अपने पसंदीदा विषयों पर चुनिंदा स्टोरी पढ़ने के लिए हमारी वाट्स एप सर्विस सब्सक्राइब कीजिए. यहां क्लिक कीजिए और सेंड बटन दबा दीजिए.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 15 Sep 2018,06:21 PM IST