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टीवी हो, अखबार हो या सोशल मीडिया हो, रेप, यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा की खबरें हर रोज न जाने कितनी बार आती हैं. इस तरह की एक खबर आती नहीं है कि यौन उत्पीड़न और हिंसा के शिकार रहे हजारों सर्वाइवर्स की वो बुरी और भयानक यादें फिर से ताजा हो जाती हैं, जिन्हें वे किसी गहराई में दफन कर चुके थे.
एक दोस्त ने मुझे बताया था, 'इस #MeToo मूवमेंट (आंदोलन) ने मेरी बचपन की वो दर्दनाक यादें ताजा करा दीं, जब मुझे प्रताड़ित किया गया था. मैंने लंबे वक्त से उन खौफनाक यादों को भुलाए रखा था.'
इसी आंदोलन के कारण ही उसके परिवार में भी इस पर बातचीत शुरू हुई. उसकी मां और बहन ने भी अपने साथ हुए अब्यूज की कहानियां साझा कीं और फिर वो तीनों एक दूसरे से खुल गईं और उन्हें आपस में सपोर्ट मिल गया.
लेकिन एक के बाद एक लगातार यौन हिंसा की खबरें उसे परेशान करती हैं. ये खबरें बार-बार उसके उन जख्मों को ताजा कर देती हैं, जिन्हें वो भरना चाहती है.
संयुक्त राज्य अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद के लिए नामित ब्रेट कैवनॉग पर प्रोफेसर क्रिस्टीन ब्लेसी फोर्ड ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, जिसे टीवी पर प्रसारित किया गया. इससे यौन उत्पीड़न झेलने वाले हजारों सर्वाइवर्स ने उसी सदमे, बेबसी और गुस्से को फिर महसूस किया, जो उनके साथ पहले घटित हुआ था. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि घटनाओं ने जैसा मोड़ लिया उससे ब्लेसी के लिए लोगों में बहुत कम सहानुभूति है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के नामांकित जज के लिए ज्यादा सहानुभूति है.
लोगों ने अपनी कहानियों को #WhyIDidntReport (मैंने रिपोर्ट क्यों नहीं की) के साथ साझा किया.
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि कई सर्वाइवर पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर या PTSD से पीड़ित हो जाते हैं और मामूली बातें भी उन्हें आघात पहुंचा सकती हैं.
फोर्टिस हॉस्पिटल, दिल्ली में मनोवैज्ञानिक कामना छिब्बर कहती हैं कि सर्वाइवर्स के लिए अब्यूज की खबरें न सुनने की चाहत और उनसे दूरी बनाए रखना बिल्कुल ठीक है. यह जरूरी है कि अगर आपका दोस्त और परिवार में कोई इस तरह के आघात से गुजर चुका है, तो आप उसके प्रति संवेदनशील हों और उसे उत्पीड़न की खबरों को देखने के लिए मजबूर न करें. उसके सामने बार-बार उत्पीड़न की कहानियां ना पेश करें.
लेकिन अपनी भावनाओं का सामना करना, उन्हें जाहिर करना मनोवैज्ञानिक तौर पर राहत भी दे सकता है. कोई उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त करना चाहता है या नहीं, ये उस पर निर्भर करता है.
यहां कोई सख्त नियम नहीं है. कुछ गलत या सही नहीं है.
मुंबई में क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक सीमा हिंगोरानी, सुरक्षा के एहसास के बारे में बताती हैं.
ये समझना जरूरी है कि यौन उत्पीड़न या हिंसा के सर्वाइवर्स को खुद के साथ हुई ज्यादती कब और कैसे याद आ जाती है.
कोई गंध, कोई इशारा, कोई आंदोलन, कोई न्यूज रिपोर्ट, बलात्कार को लेकर कोई मजाक, राह चलते एक गुस्से भरी नजर, कभी-कभी नारीवाद, समानता पर सामान्य बातचीत भी विचलित कर सकती है. और वो पैनिक अटैक, फ्लैशबैक, बेचारगी, अकेलापन, अलगाव महसूस कर सकते हैं.
यही वजह है कि उससे उबरना बहुत जरूरी है.
यौन हिंसा पर कैसे रिपोर्टिंग की जानी चाहिए, इस बारे में दिशानिर्देश मौजूद हैं, लेकिन इस पर अमल अधिकांशतः पीड़ितों की पहचान उजागर नहीं करने तक सीमित है. पत्रकारों और मनोवैज्ञानिकों दोनों के बीच इस बात पर विवाद है कि हम हिंसा के बारीक विवरण के साथ जिस तरह रिपोर्टिंग करते हैं, वह पीड़ितों को फिर से सदमा पहुंचा सकती है. कुछ रिपोर्ट अपनी प्रकृति में इतने विस्तार से अपराध का वर्णन करती हैं कि वीभत्स लगती हैं. हाल ही में, द गार्जियन ने एक लेख में दक्षिणी सूडान में बलात्कार और हिंसा पर एक एसोसिएटेड प्रेस रिपोर्टर की लगभग ‘कामुक’ श्रेणी में रखी जा सकने वाली रिपोर्ट की निंदा की है.
विशेषज्ञ संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण रिपोर्टिंग की आवश्यकता पर जोर देते हैं.
कम से कम, यौन हिंसा के बारे में सभी रिपोर्टों में हेल्पलाइनों की एक लिस्ट देनी चाहिए, जिससे सर्वाइवर मदद हासिल कर सकते हैं.
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Published: 05 Oct 2018,02:24 PM IST