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सेक्स. हवस. कशिश. आजादी. ताकत का इस्तेमाल. हुस्न. भावना. चाहत. समय. बातें. मुलाकातें. यादें. शब्द! कुछ के मायने, कुछ बेमानी. कई लोगों को अपने साथी के दोबारा न मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता. रिश्ते बनाने के बाद पार्टनर किनारा कर ले तो अब दिल नहीं टूटता. न ही जिंदगी तार-तार होकर बिखरती है. जिस्मानी रिश्ते अब सहज हैं.
तो क्या ये वो दौर है जहां 'रात गई बात गई' से कोई फर्क नहीं पड़ता?
सवाल खत्म होते ही दिल्ली की स्नेहा* (28) की पहले हंसी फूटती है और फिर शब्द, "सेक्स से आपके अंदर उमड़ती-घुमड़ती भावनाएं बह जाती हैं." स्नेहा की आवाज में सुकून है.
इसके बाद स्नेहा खामोश हो जाती है. बीते कुछ साल में आए ढेर सारे ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स के लिए वो नई नहीं है. बिना बोले ही उसने एक समझौता कर लिया है-जिसका सूत्र वाक्य है, 'अरे कुछ नहीं होता. ज्यादा दूर की मत सोचो.' और इस फलसफे के साथ वो सहज भी है. आखिर इसके क्या मायने हैं? क्या यही युवा भारत है? कतई नहीं. लेकिन इससे एक खास तबके की सोच निश्चित तौर पर उजागर होती है.
आप कह सकते हैं कि यौन मुक्ति और देह के इर्द गिर्द बंधे ये विचार आहिस्ता-आहिस्ता, शहरी भारतीय के बीच सबसे ऊपर पहुंचने की दिशा में बढ़ रहे हैं.
"आप डेटिंग करते हैं और ऐसा करने पर आपमें चिपकने की आदत हो जाती है. ऐसा है तो बेहतर होगा कि आप इसके बारे में पहले ही साफ कर दें. इसमें असहज करने वाली कोई बात नहीं है." बॉम्बे ग्रिम्स के कार्तिक* (20) की बात यहीं खत्म नहीं होती. मुस्कान के साथ वो कहते हैं, "इस रिश्ते में आगे बढ़ने से पहले ही आपका सब कुछ साफ कर देना जरूरी है."
स्नेहा और कार्तिक के जवाब ने मेरे भीतर सवालों का शोर पैदा कर दिया. मैं खुद से पूछती हूं, किस अशुभ खालीपन में भावनाओं को चूसा जा रहा है. हो सकता है कि इसकी वजह वक्त की कमी हो. मेरा अंदाजा है कि ज्यादा लोगों के पास इतना भी वक्त नहीं है कि भावनाओं की तड़प उनके तन-बदन में दर्द की लकीर खींच दे. चाहे तो वो आलू छीलते वक्त हो या किचन में खाना पकाते. ऐसा होता तो अच्छा होता. लेकिन अफसोस! अब तो आलू छिले हुए आते हैं. स्विगी डिलीवरी बॉक्स में पकाए जाते हैं और ऑफिस में कंप्यूटर के सामने कूबड़ बने रहते हैं.
समय तेजी से घटती संपदा है जो रफ्तार वाली ऊधम की संस्कृति पर सवार है. ये काम के तो लंबे घंटे तय करता है लेकिन जो हो उसके लिए बेहद कम. वक्त के ऐसे मारों के लिए कोई गीत नहीं गाता. बॉम्बे की रहने वाली ऋषिका* (28) की सुनिए. ऋषिका कहती हैं-
ऋषिता खुद का अनुभव सुनाती हैं, "मैं डेटिंग ऐप पर अपने बॉयफ्रेंड से मिली और मामला 'सीरियस' हो गया. जबकि इससे पहले मैं शिकारी थी." तो क्या डेटिंग ऐप्स पारंपरिक प्यार की कत्लगाह हैं?
शिखा* (25) कहती हैं, शायद नहीं. बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो डेटिंग ऐप्स और 'हुकअप्स' को सहज नहीं पाते. वो इससे दूर रहते हैं. ये इतना ही आसान है. हालांकि, मुझे नहीं पता कि वो किस तरह नए लोगों से मिलते हैं."
बंगलुरु में रहने वाले 25 साल के सारांश के मुताबिक हर चीज के हमेशा अच्छे-बुरे पहलू होते हैं. वो कहते हैं, नौकरी और रिश्तों के उदाहरण से समझो. एक तरफ है यूं ही कोई इधर-उधर का काम, दूसरी तरफ करियर. एक तरफ है हुक अप, दूसरी तरफ शादी. ये कमिटमेंट का सवाल ज्यादा है. जब तक दोनों पक्ष राजी हैं तब तक सब सही है. हालांकि, भावनाओं के बिना सेक्स का सवाल ही नहीं उठता. दरअसल, संबंध बनाना ही अपने आप में आनंद की खुली बौछार की तरह है. मेरा पुख्ता तौर पर मानना है कि आप और सामने वाला इस संबंध में क्यों पड़ रहा है, इसे लेकर पूरी ईमानदारी बरतनी होगी. वरना, बाद में भावनाओं का ज्वार संभालने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा.
फिलहाल, भारत में 'हुकअप' का नक्शा एक ऐसी एडल्ट फिल्म की तरह दिखाई दे सकता है जो सामाजिक दर्जा, खुद पर भरोसा, शिक्षा, सुविधा और लाइफस्टाइल के ताने-बाने से बुनी हो. लेकिन सच पूछिए तो युवा भारतीयों के लिए प्राथमिकताएं तय हैं.
‘हुकअप’ इस दौर का उत्तर-सत्य है. हर किसी को खुद ही मालूम करना है कि उसके लिए ये क्या है. स्नेहा कहती हैं कि जब ये मालूम पड़ जाए तो मजे करो! जरूरत से ज्यादा सोचने में जिंदगी जाया क्यों करें." दफ्तर की 15 घंटे लंबी शिफ्ट पर जाने से पहले फोन पर ये स्नेहा के आखिरी शब्द थे.
*सभी नाम बदल दिए गए हैं.
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