वायरस से भी ज्यादा उचक्केपन का संक्रमण!

शब्दकोष ने दी उचक्के को गलत पहचान?

अश्विनी कुमार
भूतझोलकिया
Published:
(फाइल फोटो: PTI)
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(फाइल फोटो: PTI)

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बुद्धिजीवियों से संपन्न एक वाट्सएप ग्रुप में संवाद का क्रम चल रहा था. एक साथी ने एक शब्द का इस्तेमाल किया. उचक्का. ग्रुप के ही एक साथी ने पलटकर पूछा- उचक्का का क्या मतलब? अल्पज्ञानी होते हुए भी मैं स्तब्ध रह गया. मुझे लगा कि यह तो उचक्का जैसे सर्वव्यापी शब्द का अपमान है. जन-जन में विद्यमान उचक्केपन को कोई न जाने, यह मुझसे सहन नहीं हुआ. इन दिनों वायरस काल में वैसे भी उचक्के ही सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वोपरि हैं, सर्वस्व हैं.

अस्पताल से शमशान तक. दवाइयों से कफन की कीमत तक. सिलेंडर में बंद ऑक्सीजन से लेकर चिता की अग्नि से उठ रहे कार्बनडाइऑक्साइड तक. जितना संक्रमण वायरस का नहीं है उससे ज्यादा जिंदगी के हर मोड़ पर उचक्कों का है.

शब्दकोष ने दी उचक्के को गलत पहचान

बहरहाल, मैंने शब्दकोष का रुख किया. मेरा संशय मिटने लगा. मैं समझ गया कि सारी गलती शब्दकोष की है. शब्दकोष ने ही उचक्का शब्द को इतनी छोटी पहचान दे रखी है कि कोई क्यों इसे मान-सम्मान देगा?

शब्दकोष के मुताबिक उचक्का का मतलब है- उचककर चीजें ले भागने वाला, उठाईगीर, चाईं, बदमाश, लुच्चा. बगैरह-बगैरह. हद तो ये कि मेले में चीजें उठाकर ले भागने वाले से उचक्के को पारिभाषित करने की घोर आपत्तिजनक कोशिश की गई है. जबकि आज उचक्कों की हैसियत कितनी ऊंची हो गई है. आज तो उचक्के ही नीति-नियंता हैं. सर्वोपरि हैं.

औकात देखकर इंसानों की जिंदगी या मौत तय कर रहे हैं. पांच वर्ष कुछ करें या न करें फिर भी आप खुद चलकर उन्हें अपना वोट समर्पित करते हैं. आज के उचक्के आपके पॉकेट से उचककर रुपये-पैसे लेकर भागते नहीं, बल्कि आप खुद अपनी पूरी जेब (और बुद्धि-विवेक भी) खाली कर उन्हें अर्पित कर देते हैं. ऊपर से उनके पीछे घिघियाते हुए भागे-भागे भी फिरते हैं. उनके अलग-अलग रूप हैं. उनके रूपों का ब्योरा अवमानना के दायरे में आ जाएगा. इसलिए बस.

उचक्केपन की ग्रोथ अमेरिकी इकनॉमी से अधिक!

सच कहें तो उचक्का शब्द के साथ बड़ी ज्यादती हुई है. इस शब्द को पुनर्पारिभाषित करने के लिए हिन्दी के शीर्षस्थ विद्वानों की अखिल भारतीय बैठक बुलाई जानी चाहिए. बात-बात पर चोर-उचक्का. चोरों के साथ इस शब्द का संगत बेहद अपमानजनक है. हद हो गई. कहां अदना-सा चोर और कहां उचक्का! कोई तुलना है क्या? उचक्केपन जितनी ग्रोथ तो चीन और अमेरिका की इकनॉमी ने भी नहीं की है.

अब देखिए न, कोरोना से गिरी लाशों को कहां कोई गिनना चाहता है. लेकिन देख नहीं रहे कि कैसे बचा ली गई (या अपनी किस्मत से बच गई) जिंदगियों के लिए क्रेडिट लेने की उचक्कागीरी (माफ कीजिएगा होड़) हो रही है. अपन का सुझाव है कि इन दोनों को मिलाकर ‘उचक्कापैथी’ नाम दे देना चाहिए. फसाद ही खत्म.  

आप उचक्के नहीं हैं तो फिर निकम्मे हैं

उचक्कापन दरअसल एक ‘मित्र वायरस’ है, जो तरक्की की राह बनाता है. उचक्कापने के सहारे ही आप दूसरे की गर्दन मरोड़कर आगे निकल सकते हैं. सामने वाले की पॉकेट में हाथ डाले बगैर उसके कपड़े तक उतरवा सकते हैं. उचक्कागीरी में ही सबकुछ समाहित है. धन-दौलत, यश, मान-सम्मान. सबकुछ. अगर आप उचक्के नहीं हैं, तो फिर मौजूदा दौर पर आप बोझ हैं. अनफिट हैं. फिर न आप खुद का भला कर सकते हैं न परिवार का. न समाज का और न देश का. यानी अगर आप उचक्के नहीं हैं तो निकम्मे हैं.

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उचक्कागीरी का वायरल लोड बढ़ाने के नुस्खे हैं

तो खुद के अंदर के उचक्केपन के वायरल लोड को बढ़ाइए. नौकरी-चाकरी करते हों या राजनीति. फंडा सिंपल है. काम से ज्यादा बॉस की चापलूसी पर फोकस कीजिए. झूठ बोलिए. दूसरे के किए का क्रेडिट लेकर फुर्र हो जाइए. अगर कोई नेता कहता है कि माननीय फलां जी के मार्गदर्शन में हमने यह किया, तो वह असल में माननीय फलां जी को क्रेडिट नहीं दे रहा होता है. उसे पता है कि जनता जानती है कि देश के हर कोने में हुए अच्छे काम को करने दिल्ली से माननीय फलां जी नहीं आए थे. लेकिन फलां जी को क्रेडिट देकर वह उनके विश्वास को लूटने की शातिराना उचक्कागीरी करता है.

दोनों उचक्के...दोनों हैप्पी

ऑफिस में बॉस से मिली तारीफ पर कल का आया लौंडा बोला. सर आपके विजन का कमाल है. इस कथन में भी घनघोर उचक्कागीरी है। मुफ्त में क्रेडिट लेकर बॉस भी खुश, लौंडा भी खुश. लौंडे को काम का भी क्रेडिट और बॉस के विश्वास का ब्याज अलग से. बॉस को मुफ्त में खुद के विजनयुक्त होने का सुखद अहसास. लौंडे की बॉस का विश्वास लूटने की उचक्कागीरी कामयाब, तो बॉस ने की क्रेडिट के अहसास से आत्ममुग्ध होने की उचक्कागीरी. दोनों उचक्के. दोनों खुश.

उचक्का होने में ही परम सुख और समृद्धि है

वैसे कहीं हमारा वह दोस्त उचक्का का मतलब न जानने की बात कहकर उचक्कागीरी तो नहीं कर गया? कि हम सब समझें कि जब उसे उचक्का का मतलब तक नहीं पता, तो कम-से-कम वह बेचारा कैसे उचक्का हो सकता है? लेकिन अगर वह इस मुगालते में है, तो सुन ले. सुन ले कि उचक्का न होना आज के दौर में कोई उपलब्धि नहीं, बल्कि कमजोरी है. नाकामी है. फिर से बेशकीमती सलाह दिए देता हूं. कामयाबी के झंडे गाड़ने हैं, तो उचक्केपन का वायरल लोड बढ़ाने में ही बुद्धिमानी है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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