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यहां अभिनव चंद्रचूड़ की नई किताब दीज सीट्स आर रिजर्व्ड: कास्ट, कोट्स एंड द कॉन्सिटिट्यूशन ऑफ इंडिया (पेंगुइन रैंडम हाउस, 2023) के कुछ संपादित अंश पेश हैं जिसमें अभिनव ने आरक्षण की नीति के इतिहास और उसके निर्धारण पर रोशनी डाली है.
आरक्षण के लिए पात्र समूहों को कैसे चिन्हित और परिभाषित किया गया? ब्रिटिश भारत में 'शोषित वर्ग' (डिप्रेस्ड क्लास) और 'पिछड़ा वर्ग' शब्दों का प्रयोग कैसे किया गया और मौजूदा वक्त में वे 'अनुसूचित जाति', 'अनुसूचित जनजाति' और 'अन्य पिछड़ा वर्ग' की संवैधानिक अवधारणाओं में कैसे विकसित हुए हैं? यह किताब संविधान सभा, सुप्रीम कोर्ट और संसद में इस मामले पर हुई बौद्धिक विमर्श को पेश करती है.
आबादी में अल्पसंख्यक होने के बावजूद दक्षिण भारत में ब्राह्मणों को सरकारी नौकरियों में अधिक प्रतिनिधित्व मिला.
उदाहरण के लिए 1912 में मद्रास में हालांकि पुरुष ब्राह्मणों की आबादी 3.2% थी, सूबे में उप न्यायाधीशों के पदों पर उनकी नुमाइंदिगी 83.3% थी, जबकि पुरुष गैर-ब्राह्मण, जो आबादी का 85.6% थे, केवल 16.7% पदों पर मौजूद थे. इससे गुस्सा बढ़ रहा था.
1917 में जब सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मोंटेग्यू मद्रास आए तो जस्टिस पार्टी ने उन्हें एक ज्ञापन सौंपा और कहा कि गैर-ब्राह्मणों को विधायिका और सरकार के सभी विभागों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाए. उनकी मांग थी कि मुसलमानों की तरह गैर-ब्राह्मणों को भी अलग निर्वाचक मंडल मिलना चाहिए.
आखिरकार, सरकार गैर-ब्राह्मणों के लिए मद्रास विधायिका में 65 सामान्य सीटों में से 28 को आरक्षित करने पर राजी हुई- शायद यह ब्रिटिश भारत में विधायिका में पहला जाति-आधारित आरक्षण था.
इसके अलावा बंबई में 46 सामान्य सीटों में से सात मराठों और संबद्ध जातियों के लिए आरक्षित थीं. यह एक ज्वाइंट इलेक्टोरेट था, सेपरेट इलेक्टोरेट नहीं था. कांग्रेस ने 1920 के चुनावों का बहिष्कार किया, और जस्टिस पार्टी ने मद्रास में चुनाव जीता. इसमें गैर-ब्राह्मणों ने सीटों के अपने आरक्षित कोटे से कहीं अधिक सीटें हासिल कीं. मद्रास में सत्ता में आने के बाद जस्टिस पार्टी ने सरकारी सेवाओं में ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व को कम करने के लिए कदम उठाए.
इसके बाद मद्रास सरकार ने 'कम्युनल जी.ओ.' नाम के आदेशों की एक श्रृंखला जारी की जिसमें अनिवार्य रूप से कहा गया था कि मद्रास में सरकारी पदों को ब्राह्मणों, गैर-ब्राह्मणों, भारतीय ईसाइयों, मुसलमानों और ऐसे दूसरे विभिन्न समुदायों के बीच बांटा जाना चाहिए.
चूंकि यह सब मद्रास में हो रहा था, इस बीच 1918 में गैर-ब्राह्मण नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल मैसूर के महाराजा से मिला और उनसे यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि वहां सरकारी नौकरियों में गैर-ब्राह्मणों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले. महाराजा ने इस मुद्दे पर विचार करने के लिए वहां की अदालत के मुख्य न्यायाधीश सर लेस्ली मिलर की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की.
एक साल बाद मिलर समिति ने महाराजा को एक रिपोर्ट सौंपी. उसमें समिति ने कुछ दिलचस्प बातें कहीं. सबसे पहले, उसने कहा कि सरकारी नौकरियों में गैर-ब्राह्मणों के लिए 'पर्याप्त' प्रतिनिधित्व का मतलब आनुपातिक प्रतिनिधित्व नहीं है.
दूसरे, यह भी महसूस किया गया कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण से विभाग की दक्षता पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि इसे 'शैक्षणिक योग्यता के जरिए... मापा नहीं जाएगा'. समिति ने माना कि सरकारी कर्मचारियों में 'सहानुभूति, उद्देश्य की ईमानदारी, ऊर्जा और सामान्य ज्ञान जैसे अन्य गुणों की जरूरत होती है', जो शैक्षणिक प्रतिभा जितने ही महत्वपूर्ण थे.
तीसरे, इसमें यह भी कहा गया कि सरकार में गैर-ब्राह्मण अधिकारियों के होने से यह सुनिश्चित होगा कि सरकारी अधिकारी मैसूर की गैर-ब्राह्मण आबादी की उपेक्षा नहीं करते.
हालांकि मिलर समिति ने 'पिछड़ेपन' की एक विषम परिभाषा दी. उन सभी समुदायों को पिछड़ा माना गया जिनमें अंग्रेजी जानने वाले 5% से कम थे. इसका यह मतलब था, कि मैसूर में सिर्फ ब्राह्मण ही ऐसा समुदाय थे, जो पिछड़े नहीं थे. बाकी दूसरे सभी समुदाय (कुछ को छोड़कर) वहां पिछड़े थे.
इस तरह 1921 में मैसूर सरकार ने ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सभी समुदायों को 'पिछड़े समुदाय' बताया, जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं था. महाराजा ने मिलर समिति की सिफारिशों को लागू तो किया लेकिन उसका स्वरूप बहुत कमजोर था.
1928 में बॉम्बे सरकार ने भारतीय सिविल सेवा के एक सदस्य ओ.एच.बी. स्टार्ट की अध्यक्षता में एक समिति को नियुक्त किया. इस समिति को शोषित वर्गों और आदिवासी जनजातियों की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति की समीक्षा करना था. इस समिति में बंबई के अपेक्षाकृत युवा विधायक डॉ. बी.आर. अंबेडकर शामिल थे.
जुलाई 1930 में स्टार्ट समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसमें उसने सिफारिश की कि 'पिछड़े वर्ग' शब्द का इस्तेमाल तीन प्रकार के समुदायों को दर्शाने के लिए किया जाना चाहिए:
(i) शोषित वर्ग (यानी, 'अछूत' जातियां)
(ii) आदिवासी और पहाड़ी जनजातियां (यानी वे जनजातियां जो जंगलों में रहती थीं, या जो हाल के दिनों में जंगलों में रहने लगी थीं)
(iii) अन्य पिछड़ा वर्ग.
समिति ने सुझाव दिया कि एक 'पिछड़ा वर्ग बोर्ड' बनाया जाए ताकि यह तय हो सके कि जो समुदाय पिछड़े नहीं रह गए थे, वे अब फेहरिस्त में नहीं हैं. समिति ने सिफारिश की कि किसी जाति को इस फेहरिस्त से हटाने की तीन शर्तें होनी चाहिए:
(i) जाति अब अछूत नहीं होनी चाहिए (यदि यह शुरू में अछूत थी)
(ii) वह साक्षरता के संतोषजनक स्तर तक पहुंच गई हो.
(iii) उसे ऐसी आर्थिक स्थिति हासिल हो गई है कि उसे अब विशेष सहायता की जरूरत न हो.
1931 में बॉम्बे में जनगणना अधिकारियों ने हिंदुओं को उनकी शिक्षा और आर्थिक स्थिति के आधार पर वर्गीकृत करने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि अब तक 'साक्षरता और आर्थिक स्थिति के आधार पर' लोगों को समूहों में विभाजित करने की कोशिश नहीं की गई है. उन्होंने माना कि 'किसी सामाजिक समूह की शिक्षा का औसत स्तर' 'समूह की सामान्य आर्थिक स्थिति' के साथ बहुत हद तक जुड़ा हुआ था.
उन्होंने हिंदुओं को पांच समूहों में वर्गीकृत किया: 'उन्नत', 'मध्यम', 'अन्य पिछड़ा', 'आदिम' और 'शोषित'. उन्होंने कहा, यह विभाजन, 'समूहों को मिलने वाले आराम और संस्कृति के मानदंडों' पर आधारित था, जहां 'आराम' और 'संस्कृति' का मतलब क्रमशः पैसा और शिक्षा है.
मई 1933 में बॉम्बे सरकार ने एक संशोधन के साथ स्टार्ट समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया. सरकार ने कहा कि समिति ने 'अन्य पिछड़ा वर्ग' कौन थे, यह निर्धारित करने के लिए 'कोई निश्चित मानदंड नहीं बनाए' थे. ऐसे बहुत से समूह हैं जो कह रहे हैं कि उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग की फेहरिस्त में शामिल किया जाए. इससे यह सूची बहुत भारी हो गई है. इसलिए, बॉम्बे सरकार ने 'रफ वर्किंग' के सिद्धांत को अपनाने का फैसला किया. यानी 'अन्य पिछड़ा वर्ग' में 'ऐसे वर्ग शामिल होंगे जो सामाजिक और शैक्षिक उन्नति के लगभग उसी स्तर पर हैं' जैसे शोषित वर्ग (यानी, अछूत जातियां) और आदिवासी एवं पहाड़ी जनजातियां, और 'इतने पिछड़े हैं कि उन्हें पिछड़े वर्ग के अधिकारी से विशेष सहायता की जरूरत है'.
1945-46 तक बॉम्बे प्रांत ने 'पिछड़े वर्ग' के सदस्यों को निम्नलिखित लाभ प्रदान किए.
सबसे पहले, कुछ पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति, अनुदान और शुल्क-माफी मिलेगी.
दूसरे, टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेजों में 15% पद पुरुष पिछड़े वर्ग के शिक्षकों के लिए आरक्षित थे.
तीसरे, सरकारी सेवाओं में 10 से 20 % के बीच पद, जैसे क्लर्क, राजस्व अधिकारी जिन्हें 'तलाथी' कहा जाता था, और अदालतों में बेलीफ, पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित थे.
आखिर में, सरकार ने शोषित वर्ग के परिवारों को मामूली दरों पर घर दिए.
बॉम्बे सरकार ने स्टार्ट समिति की सिफारिशों को मानते हुए अपने 1933 के प्रस्ताव में तीन अनुसूचियां तैयार कीं. अनुसूची I में 47 'शोषित वर्गों' की सूची थी. अनुसूची II में 29 आदिवासी और पहाड़ी जनजातियां थीं. अनुसूची III सबसे लंबी सूची थी- इसमें 125 'अन्य पिछड़ा वर्ग' शामिल थे.
हालांकि 'वर्ग' शब्द का इस्तेमाल 'पिछड़ा वर्ग' और 'अन्य पिछड़ा वर्ग' के लिए किया गया था, लेकिन असल में यह जाति या जनजाति के लिए एक व्यंजना थी- अनुसूचियों में शामिल सभी समुदाय जातियां या जनजातियां ही थीं. इसके अलावा यह शब्द हिंदुओं तक ही सीमित नहीं था. अन्य पिछड़े वर्गों में मुसलमानों की 'मियाना' जनजाति भी शामिल थी.
अगले साल अक्टूबर 1934 में बॉम्बे सरकार की तरफ से नियुक्त पिछड़ा वर्ग अधिकारी ने अपने विभाग के कामकाज पर एक वार्षिक रिपोर्ट तैयार की. अधिकारी ने उसमें अनुसूची में आने वाले शोषित वर्गो के लिए 'अनुसूचित वर्ग' शब्द का इस्तेमाल किया. यह शायद शोषित वर्गों को 'अनुसूचित वर्ग' बताने वाले शुरुआती संदर्भों में से एक है.
भारत सरकार अधिनियम, 1935 में 'दलित वर्गों' को 'अनुसूचित जाति' कहा गया है, जैसा बॉम्बे में पिछड़े वर्ग के अधिकारी ने एक साल पहले किया था. ऐसा इसलिए था क्योंकि 1935 के अधिनियम के पहले और पांचवें परिशिष्टों या 'अनुसूचियों' में यह प्रावधान था कि केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में कुछ सीटें कुछ जातियों के लिए आरक्षित होंगी. 'अनुसूचित जाति' शब्द इसलिए लागू किया गया क्योंकि इन जातियों के बारे में अनुसूचियों में बताया गया था. हालांकि, कानून ने यह स्पष्ट कर दिया कि 'अनुसूचित जातियां' कोई और नहीं बल्कि वे लोग थे जिन्हें पहले 'शोषित वर्ग' के रूप में जाना जाता था.
1935 के कानून के तहत, प्रांतीय विधान परिषदों में अनुसूचित जातियों के लिए कुल 151 सीटें (पूना समझौते से तीन अधिक) आरक्षित थीं. लेकिन इन परिषदों में कुल 1,585 सीटें थीं, और अनुसूचित जातियों के लिए सिर्फ 9.5% सीटें आरक्षित थीं, जो कि उनकी जनसंख्या के अनुपात से बहुत कम था.
इसी तरह केंद्रीय विधायिका में, 400 में से केवल 25 सीटें (यानी 6.25%) अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित थीं, जो उनकी कुल जनसंख्या के लिहाज से काफी कम था. हालांकि दूसरी तरह से देखा जाए तो अनुसूचित जातियों को 'सामान्य' सीटों का 18% मिला, यानी वे सीटें जो धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष हित समूहों (जैसे जमींदारों, उद्योगों या श्रमिकों के प्रतिनिधियों) या महिलाओं के लिए आरक्षित नहीं थीं. कानून के तहत बाद में जारी किए गए नियमों में औपनिवेशिक सरकार ने अनुसूचित जातियों की एक सूची निर्दिष्ट की जो आरक्षण की हकदार थीं.
भारत सरकार अधिनियम, 1935 में यह प्रावधान भी था कि 'अल्पसंख्यकों के वैध हितों' की रक्षा (सरकारी नौकरियों में) सुनिश्चित करना भी औपनिवेशिक सरकार की 'विशेष जिम्मेदारी' थी. इस बीच सरकार ने सरकारी नौकरियों में शोषित वर्ग के योग्य सदस्यों को नियुक्त करने का फैसला किया ताकि सरकारी नौकरियों में उन्हें 'उचित प्रतिनिधित्व' मिले.
फिर 1943 में सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण का एक निश्चित कोटा प्रस्तुत किया गया. लेकिन आरक्षित सीटों को भरने के लिए अनुसूचित जाति के उपयुक्त उम्मीदवारों को खोजना मुश्किल था. मिसाल के तौर पर 1947 में क्वालिफाइंग परीक्षा में 45 या उससे अधिक अंक प्राप्त करने वाले 529 उम्मीदवारों में से सिर्फ दो अनुसूचित जाति के थे. सरदार पटेल ने कहा, 'वे सूची में इतने नीचे थे कि उन्हें शामिल करने के लिए हमें छूट देनी पड़ी.'
(उपरोक्त संपादित अंश है. पाठकों की सुविधा के लिए पैराग्राफ ब्रेक और ब्लर्ब जोड़े गए हैं.)
(अभिनव चंद्रचूड़ एक वकील हैं, जो मुंबई हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं. वे रिपब्लिक ऑफ रेटोरिक: फ्री स्पीच एंड द कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ इंडिया (2017), सुप्रीम व्हिस्पर्स: कन्वर्सेशन्स विद जजेज ऑफ द सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया 1980-1989 (2018) और सोली सोराबजी: एन ऑथराइज्ड बायोग्राफी के लेखक हैं.)
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