advertisement
पंडित हेमंत शर्मा की देखो हमरी काशी को कोविड महामारी के दौर में इतवारी कथा के रूप में कई हिस्सों में पढ़ने का अवसर हम सभी को मिला है. हेमंत जी ये मानते हैं , और सही मानते हैं कि बनारस एक सांस्कृतिक विमर्श है. बनारस की बात वो विश्वनाथ महादेव से शुरू करते हैं. अपनी लेखनी से ये सिद्ध करते हैं कि “यहां की मिट्टी में कबीर की अक्खड़ता, तुलसी की भक्ति, मंडनमिश्र का तर्क, बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन, आचार्य शंकर का परकायाप्रवेश, रैदास की कठौती, प्रसाद का सौंदर्य, धूमिल का आक्रोश सब कुछ घुला मिला है''.
इसी मिट्टी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र से ले कर रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी तक की साहित्यिक परंपरा सब तपी तपाई है. इसी मिट्टी ने पं. रविशंकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, गोदई महाराज , गिरिजा देवी , किशन महाराज, सिद्धेश्वरी देवी, सितारा देवी से ले कर राजन साजन बंधु और छन्नु लाल मिश्र को गढ़ा – सांचा है.
और फिर हेमंत जी आ जाते हैं उसी बनारसी मिट्टी से बनारसी सांचे में ढले अपने अख्यात पात्रों पर यानि नाई, धोबी, दर्जी, बुनकर, बढ़ई, पानवाला, दूधवाला, मिठाईवाला, चायवाला, सफाईवाला, मल्लाह, तवायफ, बैंडमास्टर से ले कर मणिकर्णिका घाट के महाशमशान के डोम तक. पहली काशी वो है जिसे दुनिया देखती है. दूसरी काशी वो है दुनिया है जिसे काशीवासी देखते हैं. बनारस को देखने वाली दुनिया की नजर इतिहास के परे हैं और दुनिया को देखने वाली बनारसी नजर कल्पना के परे हैं. बकौल पंडित हेमंत शर्मा “इतिहास और कल्पना के नीबू-पानी में चीनी-नमक को अलग करना कठिन होता है”.
इतना ही नहीं 'भारतेन्दु समग्र' का सम्पादन भी उन्होंने ही किया है. ऐसे में ‘देखी तुमरी कासी’ के डेढ़ सौ साल बाद अगर ‘देखो हमरी काशी’ लिखी जानी थी, तो मान लीजिए की ये संयोग इस बनारसी कलम का प्रारब्ध ही था.
हेमंत शर्मा कहते हैं “जिसकी भाषा में भाव और आवेग नहीं तो समझिए वह बनारसी चरित्र नहीं” और चेतावनी भी देते हैं कि “यह किताब भाषा और कथ्य के लिहाज से बालिग लोगों के लिए है”. उनके हिसाब से यह उस काशी की गायत्री यात्रा है, जिसे केवल बनारसी ही कर सकते हैं. संस्कृति, आस्था, ज्ञान के इस केंद्र को ‘सड़कछाप बनारसी’ झिंझोड़ते और झकझोरते हैं.
महामारी के हाहाकार के बीच देखो हमरी काशी की किश्तें हजारों पाठकों के लिए इंतजार का सबब बन गई थींइसको हमने कई हिस्सों में अलग-अलग पढ़ा. लेकिन पुस्तक के रूप में एक साथ पढ़ने पर ये एहसास हुआ कि आखिरकार मुखर आखर धर्म अपनाने के बाद कोई व्यक्ति काल से परे कैसे हो जाता है. क्यों बिखेरने और बांटने के अर्थ उसी समाज में विलीन हो जाने जैसा है जिसकी बात आखर उकेर रहे होते हैं.
एक बार मृत्यु के बारे में बहुत सुंदर अनुभूतिसम बात सुनने को मिली थी कि मृत्यु दरअसल जल में मसि के घुलने की तरह है , आप संकुचित नहीं बल्कि विस्तरित, या विस्तारित हो जाते हैं. मुझे लगता है इसीलिए कबीर अनहद तक जाते हैं क्योंकि समाज में आपके आखर घुलने मिलने के बाद आपका अंत कैसा ? और इसीलिए शब्द ब्रम्ह हैं, और शायद इसीलिए किसी आखरधर्मी लेखक के लिए "त्वदीयमस्तु गोविंद: तुभ्यमेव समर्पयेत" का भाव जल में मसि घुलने और विस्तारित होने के अनुभव समान ही होगा. अमृत चखना भी शायद इसी भाव को को कहते होंगे.
लेकिन लेखक और पाठक का ये मंथन दरअसल उस ऐतिहासिक अमृत मंथन से बहुत अलग है. इस मंथन में कोई सुर नहीं हैं और कोई असुर भी नहीं. दोनों को ही एक दूसरे से अमृत मिलने का अवसर होता है. लेखक की लेखनी से निकले आखर जिस क्षण पाठक को एक पंक्ति खत्म होते ही दूसरी पंक्ति को पढ़ने के लिए तरसाने से लगने लगें तो ठीक उसी क्षण शब्द ब्रह्म हो जाते हैं. जब पाठक उन शब्दों को जीने लगता है, उन शब्दों से एकाकार हो जाता है , ठीक वहीं पर एक और चमत्कार होता है: उस पाठक का उन शब्दों में विलीन होना लेखक के लिए अमरत्व बन जाता है. कौन किसको अमर कर रहा है, ये समझना असंभव हो जाता है. 'देखो हमरी काशी' पढ़ते-पढ़ते आपको इसी विस्तरण का अनुभव होगा
एक तरफ तो पूरी दुनिया बनारस जाती है केवल काशी को समझने के लिए, या फिर यूं कहा जाए की काशी को समझने की कोशिश करने के लिए. पर इस बात का खुलासा कौन करे कि खुद काशी अभी तक काशी के किरदारों को समझने की कोशिश कर रही है. जब कबीर कहते हैं “जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी...” तो कभी-कभी लगता है दुनिया बिना मतलब ही उसके तमाम अर्थ निकालती है.
कबीर चौरा के मोहल्ले नाम ही इसलिए पड़ा क्योंकि कबीर की औघड़ यहीं थी. कबीर चौरा के बाशिंदे तब भी यहीं थे, और ऐसे ही थे जैसे की पंडित हेमंत शर्मा ने बयान किए हैं. इनको एक बार पढ़ डालिए तो आपको तुरंत समझ में आ जाएगा कि कैसे इन्ही हाड़ मांस के बाशिदों को देख-देख कबीर कबीर बन गए होंगे.
जल में कुम्भ का भाव दरअसल कबीर का आत्मसमर्पण होगा काशीवासियों की दुनिया को ठेंगे पर रखने की परंपरा के सामने. इन हद दर्जे के अनगढ़ काशीवासियों के जीवन से ही अनहद काशी गढ़ती है. काल केवल कुम्भ है. काशी और काशीवासी दोनों ही जल हैं. एक को समझना है तो दूसरे को समझ लीजिए. जब कबीर नहीं थे , तब भी काशी और काशीवासी थे. आज जब कबीर नहीं हैं तब भी ये दोनों अपनी जगह हैं. हां, इतना अंतर जरूर है कि कबीर चौरा के नामकरण के साथ ही कबीर भी काशी के पासपोर्ट होल्डर हो गए.
आखर धर्म में मसि के जनमानस में विस्तरित होते ही इस सृजन का जन्म हर लेखक की तपस्या है. लेकिन आखर देव के वरदहस्त मिलने के बाद अपनी लेखनी से समाज में इस तरह घुलमिल कर अमर होना किसी बिरले के ही हिस्से आता है. और लेखकों का ऐसा भाग्य जहां समाप्त होता है , पड़ित हेमंत शर्मा का प्रारब्ध वहां से शुरू होता है.
आखर धर्म में मसि के जनमानस में विस्तरित होते ही इस सृजन का जन्म हर लेखक की तपस्या है. लेकिन, आखर देव के वरदहस्त मिलने के बाद अपनी लेखनी से समाज में इस तरह घुलमिल कर अमर होना किसी बिरले के ही हिस्से आता है. और लेखकों का ऐसा भाग्य जहां समाप्त होता है , पड़ित हेमंत शर्मा का प्रारब्ध वहां से शुरू होता है.
विशुद्ध बनारसी बोली में कहूं तो “गर्दा उड़ाए दिए हेमंत गुरु । चपल रहा...“
'देखो हमरी काशी' का प्रकाशन प्रभात प्रकाशन ने किया है और ये पुस्तक अमेजन / फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)