Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Lifestyle Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019#MyLoveStory: कल का ‘लव इन टोकियो’, आज का ‘लव इन वाराणसी’

#MyLoveStory: कल का ‘लव इन टोकियो’, आज का ‘लव इन वाराणसी’

मिलिए बनारस के भारतीय-जापानी जोड़ों से, इन्हें हिंदी या जापानी भले ही न आती हो, लेकिन प्यार की भाषा बखूबी आती है.

पारुल अग्रवाल
लाइफस्टाइल
Published:
वाराणसी के भारतीय-जापानी जोड़े. (फोटो: द क्विंट)
i
वाराणसी के भारतीय-जापानी जोड़े. (फोटो: द क्विंट)
null

advertisement

अशोक आशा से जापान में मिलता है और दोनों को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है. आशा के अंकल चाहते हैं कि वो प्राण से शादी कर ले, पर आशा को प्राण पसंद नहीं. वो अशोक के साथ चली जाती है.

1966 की बॉक्स ऑफिस हिट ‘लव इन टोकियो’ में वो सब कुछ था, जो मेगुमी हिसाडा और संजय कुमार देवाशीष की कहानी में है. फर्क इतना है कि ये दोनों टोकियो की जगह वाराणसी में मिले और हां, इन्हें आशा पारेख और जॉय मुखर्जी की तरह एक-दूसरे के लिए ‘सायोनारा’ गाने का मौका भी नहीं मिला.

मेगुमी और संजय ने 2003 में शादी कर ली. (फोटो: द क्विंट)

पहली नजर का प्यार

मेगुमी हिसाडा पहली बार 2011 में बनारस आईं थीं, सितार सीखने के लिए. जल्दी ही उनकी मुलाकात सीडी और कैसेट की दुकान चलाने वाले संजय से हुई. उन्हें कुछ दिनों में समझ आया कि वे एक-दूसरे को पसंद करने लगे हैं, लगभग एक साथ. पर संजय को डर था कि आखिर यह कब तक चलेगा.

मुझे मेगुमी काफी पसंद थी, पर पहली बार प्यार का इजहार मेगुमी ने ही किया. मुझे पता था कि वो मुझे पसंद करती है, पर भाषा और संस्कृति में अंतर के कारण मुझे डर था कि ये प्यार आखिर कितने दिन तक चलेगा. 
संजय कुमार

मेगुमी को बमुश्किल थोड़ी बहुत हिंदी समझ आती थी और अंग्रेजी संजय के लिए एक मुश्किल भाषा थी. पर दोनों को प्यार की भाषा तो आती ही थी.

“उसने मुझसे अपने परिवार से मिलने को कहा. मैं दो महीने तक लगातार उसके परिवार से मिलती रही. ये एक बड़ा संयुक्त परिवार था और मैं लगभग रोज उनके नाम और रिश्ते भूल जाती थी. मैं उसकी मां को प्रभावित करना चाहती थी, पर हम अलग तरह का खाना खाते थे और वे मेरी भाषा कभी नहीं समझ सकती थीं. ये मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल वक्त था.”

अपने प्यार को अलग अलग चुनौतियों से परखने और मेगुमी के माता-पिता को मनाने की नाकाम कोशिशें करने के बाद 2003 में दोनों ने शादी कर ली. अब वे दोनों एक मशहूर जापानी रेस्तरां चलाते हैं.

खबरों के मुताबिक, बनारस आने वाले विदेशियों में सबसे ज्यादा जापानी ही बनारसियों से शादी करते हैं.

एक दूजे के लिए

आइको और रचिता ने 2002 में शादी की, अब उनके दो बच्चे हैं. (फोटो: द क्विंट)

आइको सुगीमोतो 1990 में भारत आए और उन्हें बनारस से प्यार हो गया. 1997 में उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ने के लिए दाखिला लिया. उन्होंने कुछ और पैसे कमाने के लिए यूनिवर्सिटी के छात्रों को जापानी भाषा सिखाना शुरू कर दिया. इसी सिलसिले में पहली बार वे रचिता से मिले.

जब आपको प्यार होता है, तो बस हो जाता है. प्यार को देश या सीमाएं नहीं नजर आतीं, पर रचिता के साथ मैंने बनारस के अनगिनत रंग महसूस किए. जापान में हर चीज नियम से चलती है. वहां सब कुछ पता होता है कि क्या होगा. आप शायद ही कभी रास्ते से भटकते हैं. पर बनारस में हर किसी का अपना रास्ता होता है. जब चाहो, जहां चाहो, जो चाहो करने की आजादी ने मुझे अपने आकर्षण में बांध लिया. 
आइको सुगीमोतो

आइको और रचिता ने 2002 में शादी कर ली. अतिथियों के प्यार में पड़ने वाले भारतीयों के लिए भी इस तरह की शादियां उतनी ही महत्वपूर्ण होती हैं.

“आइको जिस परिवेश से आते हैं, वह जाति और वर्गों में बंटा हुआ नहीं है. वो सबके साथ घुल-मिल जाते हैं. उनके मन में किसी से बात करने और किसी के साथ खाने-पीने को लेकर कोई हिचक नहीं है. कभी-कभी अपनी सामाजिक सोच को लेकर मैं उनके सामने खुद को छोटा महसूस करती हूं. मैं सचमुच उनकी बहुत इज्जत करती हूं.”

हम दोनों हैं अलग-अलग

सासाकी कुमिको और शांति रंजन गंगोपाध्याय ने 1976 में शादी की थी. (फोटो: द क्विंट)

62 साल की सासाकी कुमिको एक बंगाली परिवार की जापानी बहू हैं. उन्हें आजकल की बंगाली बहुओं से ज्यादा अच्छी तरह बांग्ला बोलना आता है. बनारस के जापानी समुदाय में कुमिको गंगोपाध्याय के नाम से जाने वाली सासाकी ने बनारस के मशहूर पेंटर शांति रंजन गंगोपाध्याय से शादी कर ली थी.

वे टोकियो में एक कला प्रदर्शनी के लिए आए थे और लगभग रोज हमारी दुकान से गुजरते थे. उन दिनों जापानी संस्कृति काफी रक्षात्मक थी और मेरे माता-पिता भी मुझे लेकर काफी प्रोटेक्टिव थे. मुझे उनके लापरवाह अंदाज से प्यार हो गया. 1976 में हमने शादी कर ली और मैंने हमेशा के लिए जापान छोड़ दिया.
सासाकी कुमिको

सासाकी गंगा के किनारे एक जापानी गेस्ट हाउस चलाती हैं. वे कहती हैं, “ज्यादातर भारतीय-जापानी जोड़े या तो रेस्तरां चलाते हैं, या गेस्ट हाउस. हमें जापान से आए लोगों से मिलने का उत्साह रहता है. अपनी भाषा में बात करना अच्छा लगता है और हम भी अपने देश के बारे में जानते रहना चाहते हैं. इसी तरह हम जापान से जुड़े रहते हैं. मैं अपने देश को याद करती हूं, पर इस शहर ने मुझे मेरा सच्चा प्यार दिया है.”

वैसे यह मानी हुई बात है कि प्यार की भाषा ही कुछ ऐसी होती है, जिसे हर कोई समझ सकता है. ‘लव इन वाराणसी’ देखकर तो यह बात साबित भी हो जाती है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT