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रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि देव ने किसी युवती के होठों के आकर्षण का जिक्र करते हुए जो छंद लिखा है, ऊपर उसी का हिंदी अनुवाद है. पूरा छंद इस तरह है:
दाड़िम दाख रसाल सिता मधु ऊख पिये औ पियूख सौं पानी
पै न तऊ तरुनी तिय के अधरान के पीबे की प्यास बुझानी
अधरों के मायाजाल में फंसने वाले देव कोई अकेले कवि नहीं हैं. काव्य की रचनाओं के शुरुआती दौर से लेकर अब तक हर युग के कवि होठों और चुंबन पर हजारों पन्ने रंग चुके हैं. ऐसे में रीतिकाल के कवियों का क्या कहना, जिस दौर की श्रृंगारिक रचनाओं से देश का साहित्य समृद्ध रहा है.
आज KissDay है. इसी बहाने हम कुछ कवियों की रचनाओं पर गौर कर रहे हैं, जो होठों या चुंबन पर लिखी गई हैं.
रीतिकाल के ही एक और कवि हैं केसव. इन्होंने अपनी रचना के एक छंद में नायक-नायिक के बीच प्रेम और चुंबन का दिलचस्प अंदाज में चित्रण किया है.
नायिका बड़े भोलेपन से अपने प्रेमी से कह रही है:
केसव चूक सबै सहिहौं मुख चूमि चलै यह पै न सहौंगी
कै मुख चुमन दै फिरि मोहि कि आपनि धाय से जाय कहौंगी
सुमित्रानंदन पंत ने तो अपनी कविता में चुंबन को भजन और पूजन तक बता दिया है. खास बात ये है कि उन्होंने होठों की उपमा के लिए मदिरा को चुना है.
मदिराधर चुंबन, प्रसन्न मन
मेरा यही भजन औ’पूजन!
प्रकृति वधू से पूछा मैंने
प्रेयसि, तुझको दूं क्या स्त्री-धन?
बोली, प्रिय, तेरा प्रसन्न मन
मेरा यौतुक, मेरा स्त्री धन!
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल
कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूमकर,
बही वायु स्वच्छंद, सकल पथ घूम-घूमकर
है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हुए सकल-शोक-सन्तापहर!
फिरोजी होठों पर मर-मिटने को आतुर कवियों में धर्मवीर भारती भी रहे हैं.
बरबाद मेरी जिंदगी
इन फिरोजी होठों पर
गुलाबी पांखुरी पर हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
इन फिरोजी होठों पर
तुम्हारे स्पर्श की बादल-धुली कचनार नरमाई
तुम्हारे वक्ष की जादू भरी मदहोश गरमाई
तुम्हारी चितवनों में नर्गिसों की पांत शरमाई
किसी की मोल पर मैं आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा
मुझसे प्रणय के देवताओं ने
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब-सा इन्द्रधनुषी स्वाद
मेरी जिंदगी बरबाद!
अंधेरी रात में खिलते हुए बेले-सरीखा मन
मृणालों की मुलायम बांह ने सीखी नहीं उलझन
सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप जैसा तन
पंखुड़ियों पर भंवर-सा मन टूटता जाता
मुझे तो वासना का
विष हमेशा बन गया अमृत
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद
मेरी जिंदगी बरबाद!
गुनाहों से कभी मैली पड़ी बेदाग तरुणाई
सितारों की जलन से बादलों पर आंच कब आई
न चन्दा को कभी व्यापी अमा की घोर कजराई
बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पण भी
हमेशा आदमी
मजबूर होकर लौट आता है
जहां हर मुक्ति के, हर त्याग के, हर साधना के बाद
मेरी जिंदगी बरबाद!
अपनी एक कविता गुनाह का गीत में धर्मवीर भारती लिखते हैं...
अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
तुम्हारा मन अगर सींचूं
गुलाबी तन अगर सींचूं, तरल मलयज झकोरों से!
तुम्हारा चित्र खींचूं प्यास के रंगीन डोरों से
कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आंचल
उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल
किसी के होठ पर झुक जाएं कच्चे नैन के बादल
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
किसी की गोद में सिर धर
घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए
धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए?
न हो यह वासना तो जिंदगी की माप कैसे हो?
किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो?
नसों का रेशमी तूफान मुझ पर शाप कैसे हो?
किसी की सांस मैं चुन दूं
किसी के होठ पर बुन दूं अगर अंगूर की पर्तें
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
यहां तो हर कदम पर स्वर्ग की पगडण्डियां घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अंगड़ाइयां चूमीं
अगर मैंने किसी की सांस की पुरवाइयां चूमीं
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?
एक जीवित पत्थर की दो पत्तियां
रक्ताभ, उत्सुक
कांपकर जुड़ गई
मैंने देखा:
मैं फूल खिला सकता हूं
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