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हिंदी के प्रख्यात कवि, नाटककार, कहानीकार, निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में पहचान बनाने वाले जयशंकर प्रसाद हिंदी के छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक थे. उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की. इसका प्रभाव यह हुआ कि खड़ीबोली काव्य की भाषा बन गई.
प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, 1889 को काशी के सरायगोवर्धन में हुआ था. इनके पिता बाबू देवीप्रसाद, जो कलाकारों का आदर करने के लिए विख्यात थे. इनका काशी में बहुत सम्मान था और वहां की जनता काशी नरेश के बाद 'हर-हर महादेव' से देवीप्रसाद का स्वागत करती थी. जब जयशंकर प्रसाद 17 साल के थे, तभी इनके बड़े भाई और मां का देहावसान होने के कारण इन पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा.
घर के माहौल के कारण इनकी साहित्य और कला में बचपन से ही रुचि थी. बताया जाता है कि जब प्रसाद नौ वर्ष के थे, तभी उन्होंने 'कलाधर' नाम से एक सवैया लिखकर साबित कर दिया था कि वह प्रतिभावान हैं. उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण और साहित्य शास्त्र का गंभीर अध्ययन किया रखा था.
प्रसाद नागरी प्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष रहे. वह एक युगप्रवर्तक लेखक थे, जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियां दी हैं. कवि के रूप में प्रसाद महादेवी वर्मा, पंत और निराला के साथ छायावाद के प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रसिद्ध हुए.
नाटक लेखन में वह भारतेंदु के बाद एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे. उनके नाटक को पढ़ना लोग आज भी पसंद करते हैं. प्रसाद जी के जीवनकाल में काशी में कई ऐसे साहित्यकार माजूद थे, जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया. उनके बीच रहकर प्रसाद ने भी अनन्य साहित्य की सृष्टि की.
1914 में उनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' पत्रिका इंदु में प्रकाशित हुई. उन्होंने हिंदी में 'करुणालय' नाम से गीत-नाट्य की भी रचना की. प्रसाद ने कथा लेखन भी शुरू किया. 1912 में इंदु में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई. उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यंत दर्शनीय हैं और इन नाटकों में कई सुंदर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं.
प्रसाद ने समय-समय पर 'इंदु' पत्रिका में कई विषयों पर सामान्य निबंध लिखे हैं. बाद में उन्होंने ऐतिहासिक निबंध भी लिखे. जयशंकर के लेखन में विचारों की गहराई, भावों की प्रबलता, चिंतन और मनन की गंभीरता मिलती है. जयशंकर प्रसाद 48 साल की आयु में क्षयरोग से पीड़ित हो गए और 15 नबंवर, 1937 को काशी में ही उनका देहावसान हो गया.
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