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अपना दिल पेश करूं, अपनी वफा पेश करूं कुछ समझ में नहीं आता तुझे क्या पेश करुं
जो तेरे दिल को लुभाए वो अदा मुझ में नहींक्यों न तुझको कोई तेरी ही अदा पेश करुं
साहिर लुधियानवी की कहीं ये पंक्तियां एक बेचैन आशिक की ईमानदारी का कलाम हैं. वो अपनी माशूक को कोई तोहफा पेश करना चाहता है, पर उलझन में है कि ऐसा क्या दे जो उसे पसंद आए. प्रेम में पड़े लोगों के सामने कभी न कभी तो ऐसा वाकया जरूर पेश आता है.
लेकिन अगर एक प्रेमी एक शायर भी हो तो इस मुसीबत का हल जरा आसान हो जाता है. शायर या कवि की कलम में इतनी ताकत होती कि वो पूरी कायनात बना सकता है, फिर एक तोहफे की क्या हस्ती.
वेलेंटाइंस डे हो या विश्व कविता दिवस, एक शायर के दिलकश कलाम या किसी कवि की हृदयस्पर्शी कविता से बेहतर कुछ भी नहीं.
इंसान के दुनिया में आने के साथ ही प्रेम दुनिया में आया और भाषा के बनने के साथ कविता. तो यहां पेश हैं आपके लिए हिंदी के सभी कालों से ली गईं कुछ प्रतिनिधि प्रेम कविताएं.
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग
खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार
आ साजन मोरे नयनन में, सो पलक ढाप तोहे दूँ
न मैं देखूँ औरन को, न तोहे देखन दूँ
अपनी छवि बनाई के जो मैं पी के पास गई
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई
खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय
वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम भटी का मदवा पिलाइके
मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
1253-1325, दिल्ली (आदिकाल)
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोइ ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होइ
प्रीति पुरानी न होत है , जो उत्तम से लाग सो बरसाजल में रहै , पथर न छोड़े आग
1397-1494, वाराणसी (भक्तिकाल)
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में
है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम कुछ है बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी नशीली आँख दिखाकर करो सरशार होली में
1750-1775, वाराणसी (भारतेंदु काल)
दोनों ओर प्रेम पलता है सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता ‘बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता कितनी विह्वलता है दोनों ओर प्रेम पलता है
बचकर हाय! पतंग मरे क्या? प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या? क्या यह असफलता है! दोनों ओर प्रेम पलता है।
1886-1964, झांसी, महावीर प्रसाद द्विवेदी युग
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पद पखार जो तुम आ जाते एक बार
हँस उठते पल में आर्द्र नयन धुल जाता होठों से विषाद छा जाता जीवन में बसंत लुट जाता चिर संचित विराग आँखें देतीं सर्वस्व वार जो तुम आ जाते एक बार
1907-1987, फर्रुखाबाद, छायावाद
प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या
गुण का ग्राहक बनना लेकिन गा कर उसे सुनाना क्या मन के कल्पित भावों से औरों को भ्रम में लाना क्या
ले लेना सुगंध सुमनों की तोड उन्हें मुरझाना क्या प्रेम हार पहनाना लेकिन प्रेम पाश फैलाना क्या
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु उनमें स्वार्थ बताना क्या दे कर हृदय हृदय पाने की आशा व्यर्थ लगाना क्या
1907-2003, इलाहाबाद, उत्तर छायावाद
यूं ही कुछ मुस्काकर तुमने परिचय की वो गांठ लगा दी!
था पथ पर मैं भूला भूला फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन तुमने अपनी याद जगा दी
कभी कभी यूं हो जाता है गीत कहीं कोई गाता है
गूंज किसी उर में उठती है तुमने वही धार उमगा दी
जड़ता है जीवन की पीड़ा निस्-तरंग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा छवि के शर से दूर भगा दी
1917-2007, सुल्तानपुर, प्रगितिशील कविता
तुम आयीं, जैसे छीमियों में धीरे- धीरे आता है रस
जैसे चलते - चलते एड़ी में, काँटा जाए धँस
तुम दिखीं, जैसे कोई बच्चा, सुन रहा हो कहानी
तुम हँसी, जैसे तट पर बजता हो पानी
तुम हिलीं जैसे हिलती है पत्ती,
जैसे लालटेन के शीशे में काँपती हो बत्ती !
तुमने छुआ, जैसे धूप में धीरे- धीरे उड़ता है भुआ
और अन्त में जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को, तुमने मुझे पकाया
और इस तरह, जैसे दाने अलगाये जाते हैं भूसे से, तुमने मुझे खुद से अलगाया
1934-वर्तमान तक, बलिया, समकालीन कविता
शुरुआत साहिर से की तो अमृता को याद किए बिना प्रेम और कविता का यह किस्सा अधूरा ही रह जाएगा. अमृता प्रीतम के आखिरी संग्रह की यह कविता अपने प्रेमी को फिर मिलने का वादा करती है. कौन जाने वो इमरोज हों या फिर ये आखिरी ख्वाहिश साहिर के लिए हो.
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हों की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
अमृता प्रीतम
और सब से आखिर में पेशे नजर है मेरी चंद पंक्तियां. गौर फरमाइएगा,
जैसे सुगंध चंदन में मृदुभाव जिस तरह मन में तुम बसे हुए हो प्रियतम बन स्पंदन जीवन में
जितने दुस्सह लगते हैं जग के रिश्तों के धागे उतना ही प्रिय लगता है बंधना तेरे बंधन में
पा अविरत दुख या सुख को जब हो उठती हूं अस्थिर तुम अति समीप लगते हो स्वप्नों के अवलंबन में
पलकों की गिरा यवनिका मस्तक जब नत होता है खुद को तब रत पाती हूं मैं सिर्फ तेरे वंदन में
प्रदीपिका सारस्वत
अंग्रेजी की प्रेम कविताएं पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें: Love, Across Time and Space, in Ten Poems
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