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साल 1722 में तब के अकबराबाद और आज के आगरा में जन्म हुआ मीर तकी मीर का. परिवार गरीब था. सैय्यद अमानुल्लाह की सरपरस्ती में मीर ने जिंदगी के पहले सबक सीखने शुरू किए. मां-बाप का साया ज्यादा दिनों तक न रह सका. 11 साल की छोटी सी उम्र में मीर अकेले हो गए. वो आगरा से दिल्ली आ गए. दिल्ली में उनकी मुलाकात ख्वाजा मोहम्मद बासित से हुई.
बासित ने ही मीर को नवाब समसमुद्दौला से मिलवाया. नवाब ने उनके रहने-खाने का बंदोबस्त तो कर दिया लेकिन ये ज्यादा दिन नहीं चल पाया. नादिर शाह के हमल में नवाब मारे गए. मीर एक बार फिर तन्हा थे. वो दिल्ली-आगरा के बीच फिरते रहे. कभी कोई नवाब सहारा दे देता तो कभी कोई और. मीर ने अपनी आंखों के सामने इतिहास बनते देखा. नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली का दिल्ली पर हमला और मुगलों का पतन, उन्होंने सब देखा. दिल्ली एक ऐसे दौर से गुजर रही थी जब लोगों के पास शायरी के लिए माहौल ही नहीं बच पा रहा था. मीर को तब लखनऊ के नवाब आसफुद्दौला की तरफ से बुलावा आया.
असदउल्लाह खां गालिब का नाम उर्दू शायरी में बेहद अदब के साथ लिया जाता है. लेकिन, गालिब भी मीर के यहां पहुंचते हैं तो तारीफ खुद-ब-खुद निकल जाती है.
रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो गालिब,
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था
शेर, गालिब ने कहा. वही गालिब जिन्होंने कभी ये भी कहा था,
हैं और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'गालिब' का है अंदाज-ए-बयां और
समझा जा सकता है कि मीर का कद कितना ऊंचा था जब गालिब जैसे बड़े शायर भी मीर को एक अलग मकाम पर रखकर देखते हैं.
मीर 90 बरस तक जिए और जब तक जिए कुछ न कुछ नया गढ़ते रहे. एक अंदाजे के मुताबिक मीर ने ढाई हजार गजलें कहीं और जितनी कहीं. उन गजलों के शेर दो सदियां बीतने के बाद भी न जाने कितने लम्हों में कितने होठों पर खुद-ब-खुद तैर जाते हैं. कम लोग जानते हैं कि कभी-कभी बॉलीवुड को भी उनकी याद आ गई और उनकी गजलों को फिल्मों में इस्तेमाल किया. जैसे बाजार फिल्म की ये गजल...
मीर ने जिंदगी के तमाम जज्बात को अपनी कलम की स्याही में डुबोकर कुछ इस तरह नुमाया किया कि उनका जादू कभी कम नहीं होता.
मीर के बारे एक किस्सा बड़ा मशहूर है. उनका शेर है
नाजुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है
अमरोहा के एक बहुत बड़े आर्टिस्ट थे- सादिकैन. उन्होंने गालिब और दूसरे बड़े शायरों के कलाम पर कई पोर्ट्रेट बनाए थे. किसी ने उनसे इच्छा जताई कि मीर के इस शेर पर कोई पोर्ट्रेट बनाएं. उनका जवाब था- सोचता तो मैं भी हूं लेकिन मीर, पंखुड़ी गुलाब की नहीं कह रहे. गुलाब की पंखुड़ी तो मैं बना सकता हूं लेकिन 'सी' कहां से लाऊं. वो तो कह रहे हैं 'पंखुड़ी गुलाब की सी'.
वाकई...मीर को ‘खुदा-ए-सुखन’ यानी शायरी का खुदा यूं ही नहीं कहा जाता. 21 सितंबर 1810 को ये अजीम शायर इस दुनिया को छोड़ गया. वो जहां भी होगा, अपने शेरों से एक नई दुनिया जरूर रच रहा होगा जिसमें इस दुनिया के उलट बहुत सारी मोहब्बत होगी.
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