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सआदत हसन मंटो...नशे में लाल आंखें लिए कोरे पन्नों पर शरीफों की दुनिया के नंगेपन को ओढ़ने-बिछाने वाला एक शख्स. इस बेखौफ शख्स के बारे में आपको कुछ पढ़ाने से पहले मुझे उस उलझन से होकर गुजरना पड़ा कि क्या आप इस किस्से पर यकीन भी करेंगे या नहीं.
लेकिन, मैं ये क्यों सोचूं? किस्से यकीन करने के लिए होते भी कहां हैं. वे तो इमली के खट्टे-मीठे चूरन से होते हैं, जिनका स्वाद जितनी देर जबां पर रहे उतना ही देर मजा बना रहे.
तो पढ़िए, मंटो साहब और इस्मत चुगताई के अगर हो सकने वाले निकाह का किस्सा -
एक दौर था जब हैदराबाद में तमाम मर्द और औरतें सिर्फ इस बात में मसरूफ रहा करती थीं कि मंटों और इस्मत चुगताई निकाह क्यों नही कर लेते.
लोग इस्मत को रोक-रोककर पूछते कि आपने आखिर मंटो से शादी क्यों नहीं की...
कई बार ऐसे सवालों से तंग आकर इस्मत ने एक बार एक लड़की से पूछ लिया -
क्या मंटो कुआंरे हैं जो मैं शादी कर लूं?
लड़की ने सवाल के जवाब में झेंपते हुए कहा - जी नहीं.
फिर एक दिन, इस्मत आपा ने मंटो की पत्नी सफिया बेगम से आकर ये सारी बातें कह दीं...कुर्सी पर उकड़ू बैठे हुए मंटों हंसते हुए ये सुनते रहे है और इस्मत आपा की बातों पर गौर नहीं फरमाया.
लेकिन,फिर मंटो ने एक दिन गौर फरमाते हुए कहा -
अगर मेरा और इस्मत का निकाह होता तो क्या पता हम दोनों निकाहनामे पर भी अफसाने लिख देते और काजी साहब की पेशानी पर दस्तखत कर आते - लेकिन, फिर भी अगर सोचा जाए कि हमारा निकाह होता तो कुछ यूं होता -
कि, निकाह पढ़े जाते ही मंटो बोल उठता -
मंटो - “इस्मत, देखो, काजी साहब की पेशानी (माथा), ऐसा लगता है कि तख्ती हो.”
इस्मत - “क्या कहा?”
मंटो - “तुम्हारे कानों को क्या हुआ?”
इस्मत - “मेरे कानों को तो कुछ नहीं हुआ, तुम्हारी आवाज ही गले से बाहर नहीं निकलती.”
मंटो - “हद हो गई, लो अब सुनो. मैं ये कह रहा था कि काजी साहब की पेशानी बिलकुल तख्ती से मिलती-जुलती है.”
इस्मत - “तख्ती तो बिलकुल सपाट होती है.”
मंटो - “क्या ये पेशानी सपाट नहीं?”
इस्मत - “तुम सपाट का मतलब भी समझते हो?”
मंटो - “जी नहीं.”
इस्मत - “सपाट माथा तो तुम्हारा है, काजी जी का माथा तो...”
मंटो - बड़ा खूबसूरत है ?
इस्मत - “खूबसूरत तो है.”
मंटो - “तुम महज चिड़ा रही हो मुझे.”
इस्मत - “चिड़ा तुम रहे हो मुझे.”
मंटो - “मैं कहता हूं तुम चिड़ा रही हो मुझे.”
इस्मत - “मैं कहती हूं तुम चिड़ा रहे हो मुझे.”
मंटो - “तुम्हें मानना पड़ेगा कि तुम चिड़ा रही हो मुझे.”
इस्मत - “अजी वाह! तुम तो अभी से शौहर बन बैठे.”
मंटो - ‘‘काजी साहब, मैं इस औरत से शादी नहीं करूंगा. अगर आपकी बेटी का माथा भी आप ही के माथे की तरह है तो मेरा निकाह उससे पढ़वा दीजिए.’’
इस्मत - ‘‘काजी साहब, मैं इस मरदूद से शादी नहीं करूंगी. अगर आपकी चार बीवियां नहीं तो मुझसे शादी कर लीजिए. मुझे आपका माथा बहुत पसंद है.’’
मंटो लिखते हैं -
बस इतना सा था मंटो और इस्मत के अगर हो सकने वाले निकाह का किस्सा. मंटो सा खालिस और मंटो सा बेबाक.
(सआदत हसन मंटो की जिंदगी से जुड़ा ये किस्सा पहली बार मई 2016 में प्रकाशित हुआ था. उनके जन्मदिन पर आज इसे दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है.
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