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पितृ-पक्ष: इस दौरान भारत, चीन दोनों याद करते हैं अपने पूर्वजों को 

हिंदू ‘पूर्वजों का पखवाड़ा’ वाली अवधि पितृ-पक्ष मनाएंगे. इस दौरान हिंदू अंत्येष्टि से जुड़े कर्मकांड करते हैं.

देवदत्त पटनायक
लाइफस्टाइल
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महालय के अवसर पर अगरतला के एक तालाब में पूजा करते हुए हिंदू. इस दिन हिंदू अपने पूर्वजों की आत्माओं की शान्ति के लिए पूजा करते हैं. (फोटो: रॉयटर्स) 
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महालय के अवसर पर अगरतला के एक तालाब में पूजा करते हुए हिंदू. इस दिन हिंदू अपने पूर्वजों की आत्माओं की शान्ति के लिए पूजा करते हैं. (फोटो: रॉयटर्स) 
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अगले कुछ दिनों तक कई हिंदू ‘पूर्वजों का पखवाड़ा’ मानी जाने वाली अवधि पितृ-पक्ष मना रहे होंगे.

कहा जाता है कि यही वह समय होता है जब मृतात्माओं का लोक यमलोक, हमारी धरती के सबसे करीब होता है. इस अवधि के दौरान हिंदू अंत्येष्टि से जुड़े कई कर्मकांड करते हैं और मानते हैं कि उनके द्वारा दान किया गया भोजन पूर्वजों तक पहुंचता है.

ऐसी ही मान्यता चीन के लोगों में भी है. हालांकि यह बात चीन की मुख्यभूमि के निवासी नहीं मानते, क्योंकि वहां की पारंपरिक संस्कृति की पहचान को कम्यूनिस्ट शासकों ने ‘अंधविश्वास’ कहकर मिटा दिया था, लेकिन चीन के वे प्रवासी इस मान्यता को जीवित रखे हुए हैं, जो अपने साथ प्राचीन चीन की मान्यताएं और विश्वास समेटकर ले गए थे.

वे इसे ‘भूखे भूतों का त्योहार’ (हंग्री गोस्ट फेस्टिवल) कहते हैं. इस त्योहार को चीनी कैलेंडर के सातवें महीने, जो सामान्य कैलेंडर के मुताबिक अगस्त के आसपास आता है, में मनाया जाता है.

कोलकाता में पवित्र दिन महालय के अवसर गंगा नदी के किनारे पूजा-अर्चना करते हिंदू पुजारी. महालय के दिन हिंदू अपने पूर्वजों की आत्माओं की शान्ति के लिए पूजा करते हैं. (फोटो: रॉयटर्स)

चीन में इस दौरान जाड़े की फसल कट रही होती है साथ ही बौद्ध मठों की तमाम प्रथाएं पूरे जोर पर होती हैं, वहीं भारत में यह समय चतुर्मास (वर्षा ऋतु के चार महीने) नाम से जाना जाता है और इस दौरान भारतीय भिक्षु - बौद्ध, जैन या हिंदू - कोई यात्रा नहीं करते हैं बल्कि एक ही जगह पर रुककर अपनी तपस्या और तेज कर देते हैं.

हंग्री गोस्ट फेस्टिवल के बारे में एक राय नहीं है कि यह बौद्ध धर्म के पहले का ताओवादी त्योहार है या एक बौद्ध त्योहार. बौद्ध शास्त्र उल्लंबन में यह लिखा है कि बुद्ध ने कैसे अपने शिष्य मौद्गलयायन की अपनी मां को बचाने में मदद की थी.

वह बुद्ध की भेदक शक्तियों की मदद से मृत लोगों की भूमि पर अपनी मां को तड़पते हुए देख सकता था. क्या यहीं से ‘भूखे भूतों का त्योहार’ शुरू हुआ था?

चीन के भूखे भूत

अगस्त 2013 की इस तस्वीर में चीन के हैनान प्रांत के शायपो गांव में हंग्री गोस्ट फेस्टिवल (यू लान) के दौरान 30-मीटर व्यास का कागज का लालटेन. (फोटो: रॉयटर्स) 

माना जाता है कि इस महीने के दौरान ‘नर्क का द्वार’ खुल जाता है और भूत अपने रिश्तेदारों से मिलने आते हैं. चीनियों में अपने पूर्वजों की पूजा का काफी रिवाज रहा है. लेकिन इसमें मामला थोड़ा अलग होता है.

इसमें, बच्चे या बूढ़े, सभी प्रकार के भूत शामिल होते हैं. भूत एक निश्चित अवधि के लिए ही आते हैं. यह विश्वास किया जाता है कि मृतकों की दुनिया में भूतों का पेट बड़ा हो जाता है लेकिन उनका गला पतला हो जाता है क्योंकि वहां पर इन्हें अपने जीवित रहते हुए किए गए पापों और बुरी इच्छाओं के लिए कष्ट झेलना पड़ता है.

भूतों की जो इच्छाएं मृतकों की दुनिया में पूरी नहीं हो पातीं, इस अनुष्ठान के द्वारा उन इच्छाओं को पूरा कर उन्हें खुश और संतुष्ट किया जाता है.

इस अनुष्ठान में उन्हें खाना (अधिकतर शाकाहारी), पैसे, कार, जूते, कॉस्मेटिक्स, फर्नीचर चढ़ाया जाता है.

इसके अलावा उनके मनोरंजन के लए नाच-गाने का कार्यक्रम भी होता है, जिसमें कुर्सियों की पहली पंक्ति भूतो के लिए आरक्षित होती है और खाली छोड़ दी जाती है.

ये ‘गिताई’ शो काफी मजेदार होते हैं, जो शायद भूतों को अपनी मृत आत्माओं की दुनिया में लौटने के पहले थोड़ा-बहुत सुख दे जाते होंगे.

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जब नर्क का द्वार खुलता है

3 अगस्त 2014 को कुआलालंपुर में ‘भूखे भूतों के त्योहार’ पर प्रार्थना करते बच्चे. (फोटो: रॉयटर्स)

इस महीने के दौरान बच्चों को अंधेरे में घूमने या पानी में तैरने की इजाजत नहीं दी जाती है.

माना जाता है कि जो भूत फिर से जन्म लेना चाहते हैं वे इन बच्चों को मारकर मृतकों की दुनिया में पहुंचा देंगे और खुद जीवित लोगों की दुनिया में जन्म ले लेंगे.

इस दौरान लोगों को सलाह दी जाती है कि वे अंधेरे में न तो गाना गाएं और न ही सीटी बजाएं.

इस महीने के दौरान रात में कोई भी बर्थडे पार्टी आयोजित नहीं की जाती. और कहा जाता है कि इस दौरान यदि आप काले या सफेद नर्क के देवता को देख लेते हैं तो आपकी तकदीर बन जाएगी.

इस महीने में कोई नई कार भी नहीं खरीदता और न ही नए घर में प्रवेश करता है.

एक ही जैसा लगता है न!

जब इस महीने का अंत आता है तो नदियों में कमल के आकार के लालटेन बहाए जाते हैं ताकि भूत मृतात्माओं की अपनी दुनिया में बिना भटके पहुंच जाएं.

ऐसा ही हिंदुओं में भी होता है, मृतकों को काफी सम्मान मिलता है, लेकिन कोई भी नहीं चाहता कि वे ज्यादा दिन तक रुके रहें. यह लेख पहली बार 6 सितंबर 2015 को मिड-डे में छपा था.

(देवदत्त पटनायक एक लेखक, वक्ता, व्याख्याता और पुराणों के जानकार हैं)

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