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(डिस्क्लेमर: यहां पत्रकार और लेखिका सिमी पाशा की किताब ‘शाहीन बाग एंड द आइडिया ऑफ इंडिया: राइटिंग्स ऑन अ मूवमेंट फॉर जस्टिस, लिबर्टी एंड इक्वैलिटी’ के चैप्टर ‘द नाइट ऑफ ब्रोकेन ग्लास: 15 दिसंबर 2019’ के अंश को अनुमति के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है. इस किताब का संपादन सीमा मुस्तफा ने किया है. इस किताब के प्रकाशक हैं, स्पीकिंग टाइगर बुक्स)
(नोट: सब हेडिंग्स मूल पाठ का हिस्सा नहीं हैं, और इसे द क्विंट ने शामिल किया है.)
उस रात उनके लिए खुद पर काबू रखना मुश्किल था. शायद इसकी वजह यह थी कि वर्दीधारी लोगों पर उनका भरोसा टूट गया था जिन्होंने उनकी रक्षा की कसम खाई थी, या वो विश्वास जिसकी हाल के वर्षों में कई बार परीक्षा हुई थी कि सरकार भले ही उनके साथ अन्याय कर सकती है पर सार्वजनिक रूप से उन्हें बेइज्जत नहीं करेगी. उन्हें बार-बार यह खोखला आश्वासन दिया गया था कि सरकारी मशीनरी उनकी रक्षा के लिए है. आप इसे भोलापन कह सकते हैं, पर उन्हें पक्का यकीन था कि दुनिया के सबसे बड़े और अनूठे धर्मनिरेपक्ष और लोकतांत्रिक देश में उन्हें कुछ विशेष अधिकार मिले हुए हैं.
उस रात उन्हें यह महसूस हुआ कि उनके लिए कोई नहीं है- वे खुद ही एक दूसरे के लिए हैं.
जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया में बंदूकों की आवाज गूंजी, जहां स्टूडेंट्स नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ शांति से प्रदर्शन कर रहे थे, और हवा में आंसू गैस का धुआं घुल गया, तो लोग अपने-अपने मोहल्लों से निकलकर सड़कों पर आ गए. वे लोग डर, घबराहट, अविश्वास और उथल-पुथल से भरे हुए थे. कहीं उनके बच्चों को गोली न मार दी जाए, उनके साथ बर्बरता न की जाए, उन्हें गिरफ्तार न कर लिया जाए. लोग एक दूसरे के घरों के दरवाजे खटखटा रहे थे, जो लोग बेखबर थे, उन्हें सब बता रहे थे. कुछ ही मिनटों के अंदर उनके फोन पर स्टूडेंट्स के वीडियो आने लगे- पुलिस वाले उन्हें सड़कों पर घसीट रहे थे, बेरहमी से उन पर लाठियां बरसा रहे थे. ऐसी खबरें थीं कि पुलिस वाले कैंपस की लाइब्रेरी, मस्जिद, क्लासरूम्स और लड़कियों के हॉस्टल में घुस गए हैं. खूब से लथपथ, घायल स्टूडेंट्स की तस्वीरें वायरल होने लगीं, लोग अपने बच्चों को बचाने के लिए यूनिवर्सिटी कैंपस की तरफ भागने लगे.
शाहीन बाग में रहने वाली अड़तीस साल की मल्का ने बताया, वह रात का खाना बना रही थीं जब उनको एक सहेली का फोन आया. वह रो रही थी कि उसकी बेटी कैंपस के अंदर फंसी हुई है. मल्का ने किचन काउंटर पर आधी कटी सब्जियां, स्टोव पर आधा पका मसाला जस का तस छोड़ा, अपना दुपट्टा उठाया और दरवाजे की ओर दौड़ीं.
मल्का को पता चल चुका था कि उनकी सहेली की बेटी हिफाजत से है, फिर भी उन्होंने कैंपस में बहुत से स्टूडेंट्स की मदद की.
2019 में यूनिवर्सिटी के ही सीनियर सेकेंडरी स्कूल से पास होने वाला उन्नीस साल का हम्जा (नाम बदला हुआ) याद करता है कि वह उस वक्त कैंपस की लाइब्रेरी में पढ़ रहा था जब सुरक्षा कवच पहने और हाथों में लाठियां लिए पुलिसवाले वहां घुस आए.
''उन्होंने खिड़कियां और कुर्सियां तोड़नी शुरू कर दीं और किताबें जमीन पर फेंकने लगे. हम हैरान थे. हम उठे और पिछले दरवाजे से भागने लगे, पर वे हमारे पीछे दौड़ रहे थे और बोल रहे थे- सा$ क*$, तुम्हें आजादी चाहिए? आओ हम देते हैं आजादी.''
सत्ताइस साल के मुश्ताक (नाम बदला हुआ) को इसकी खबर मिली तो वह अपनी बाइक से यूनिवर्सिटी कैंपस पहुंचा. मुश्ताक का पास ही में एक छोटा सा कारोबार है.
मुश्ताक को यह याद नहीं कि उसे शाहीन बाग जाने के लिए किसने कहा था. ‘कुछ मैसेज भेजे गए थे जिनमें लोगों से कहा गया था कि वे कालिंदी कुंज के पास शाहीन बाग के बस स्टॉप पर पहुंचें.’ जब वह वहां पहुंचा तो उसने देखा कि दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाली सड़क पर करीब पंद्रह हजार लोग खड़े हुए थे.
''हम फुटपाथों और सड़क पर बैठ गए और बात करने लगे कि अब क्या किया जाना चाहिए. कुछ लोग एंटी सीएए पोस्टर और तिरंगे लेकर पहुंचे. किसी ने सलाह दी कि हमें विरोध में सड़क रोक देनी चाहिए. हम पहले से सड़क पर बैठे थे, हमने सोचा कि हम अब यहीं बैठे रहते हैं.'', मुश्ताक ने बताया
शाहीन बाग से कोई आंदोलन शुरू किया जाए- इसकी न तो कोई योजना थी, न कोई मंसूबा और न ही कोई इरादा. एक से दूसरे की राह निकली और जब तक वे लोग इसे समझते, वे एक जबरदस्त विरोध का केंद्र बन चुके थे.
जामिया में पुलिसिया कार्रवाई के बाद जिन मर्दों ने लगभग छह दिनों तक ट्रैफिक रोका, वे जानते थे कि पुलिस जब चाहे तब उनके विरोध प्रदर्शन को नाकाम कर सकती है, इसलिए अब औरतों ने मोर्चा संभालने का फैसला किया. किसी ने रिक्शे पर कुछ दरियां और कंबल लादे और शाहीन बाग के बस स्टॉप ले आया.
अगली शाम तक बर्फीली हवाओं और कुहासे से बचाने के लिए उनके सिर पर एक तंबू बांध दिया गया. आस पड़ोस की औरतें, जो घरेलू कामकाज के चलते पूरे दिन वहां नहीं बैठ सकती थीं, शाम को अपने साथ गर्म चाय और घर का पका खाना ले आईं. किसी ने एक पुराना म्यूजिक सिस्टम लगा दिया जिससे देशभक्ति के अलावा पुराने फिल्मी गाने बजाए जा सकें.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के फाइन आर्ट्स डिपार्टमेंट के यंग स्टूडेंट्स ने आर्ट वर्क, पोस्टर बनाने और छपाने, ग्राफिटी बनाने और आर्ट इंस्टॉलेशंस की जिम्मेदारी उठा ली. एनजीओज के वॉलंटियर्स ने मेडिकल सेंटर और लीगल सेल बना लिए. भीड़ बढ़ती गई तो खाने के समय आसपास की दुकानों से ‘कुख्यात’ बिरयानी के पैकेट आने लगे.
शुरुआती अव्यवस्था के बाद फ्लूड स्ट्रक्चर्स ने उभरना शुरू कर दिया, लेकिन यह साफ था कि इसका न कोई नेता है और न कोई आयोजक, और जैसा कि सरकार ने कहा था, न ही इसका कोई मास्टरमाइंड था.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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