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अगर आप सोच रहे हैं कि दिल्ली और इससे सटे एनसीआर के इलाकों में फौरन उस तरह का ‘वायु-ज्ञान’ देखने को नहीं मिला, जैसा कि पिछले साल दीपावली के बाद देखने को मिला था, तो यह समझना जरूरी है कि वायु प्रदूषण एक जटिल विज्ञान है और हवा की क्वालिटी ना सिर्फ भौतिक, रासायनिक और भौगोलिक कारणों से प्रभावित होती है, बल्कि इस पर मौसम के कारक भी असर डालते हैं.
लेकिन अब वायु-ज्ञान को समझना होगा. वह भी जल्द से जल्द, मुझे गलत मत समझिए. मौजूदा एयर क्वालिटी (AQ) “बहुत खराब/अस्वास्थ्यकर” और “गंभीर/खतरनाक” के बीच झूल रही है. लेकिन दिल्ली के निवासी किस्मत वाले हैं कि इस साल पराली, पटाखे और दूसरे नियमित ईंधन जलाने से पैदा होने वाले सूक्ष्म कणों (PM) को स्थानीय हवाएं दूर उड़ा ले गईं, जिससे कि PM लेवल बीते साल, जब हवा स्थिर थी, के मुकाबले कम है.
दूसरा, सुप्रीम कोर्ट की पाबंदी की बदौलत मनोरंजक, लेकिन जहरीले पटाखे उन गैरजिम्मेदार लोगों की पहुंच से दूर रहे, जो इन्हें जलाने के लिए बेकरार थे.
बहुत से समझदार और जागरूक लोग न सिर्फ खुद पटाखे जलाने से दूर रहे, बल्कि उन्होंने दूसरों को भी ऐसा ना करने और वैकल्पिक तरीके अपनाने को समझाया. और क्योंकि इस साल दीपावली जल्दी आ गई थी, ठंड का तापमान- जो PM को वायुमंडल में निचले स्तर पर रखता है और जिसे हम अपने आसपास की हवा से सीधे सांसों द्वारा अंदर लेते हैं- अभी आना बाकी है. और अंत में यह भी ध्यान में रखें कि, कटाई अभी पूरी नहीं हुई है, इसलिए पराली जलाने का सीजन पूरे जोर पर नहीं आया है.
जब आने वाले दिनों में तापमान घटेगा और ज्यादा पराली जलाई जाएगी, तो हवा और खराब होगी. सेटेलाइट डाटा पहले ही बता रहे हैं कि पड़ोसी राज्यों पंजाब और हरियाणा में आग लगी हुई है. वैज्ञानिक और विश्लेषक आकलन की पद्धतियों का सहारा लेकर बता रहे हैं कि पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने से जहरीले कण (PM) आने वाले हफ्तों में बढ़ेंगे, और दीपावली पर अवैध रूप से जलाए गए पटाखों से पैदा हुए प्रदूषण को और बढ़ाएंगे. ये वाहनों का धुआं, कूड़ा, कोयला और उद्योगों से पैदा होने वाले नियमित प्रदूषण में इजाफा करेंगे.
हर साल की विंटर-इवेंट बन चुकी इस घटना के लिए हमारे नीति नियंता- केंद्र और राज्य सरकार, कॉरपोरेट, स्कूल- क्या कदम उठा रहे हैं?
वास्तव में वो सिर्फ एक दूसरे को सिर्फ एडवाइजरी जारी करने के सिवा कुछ नहीं कर रहे हैं. और उनमें से कुछ इतना भी नहीं कर रहे हैं. सबसे बड़े जिम्मेदार एनवायरमेंट पल्यूशन कंट्रोल अथॉरिटी (EPCA) और केंद्रीय पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड हैं, जिनका गठन प्रदूषण पर नियंत्रण रखने के लिए किया गया था. केंद्रीय पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड तो इस पर नियंत्रण करने के बजाय इसकी गंभीरता को कम करके पेश कर रहा है.
इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की गहरी खामोशी बताती है कि इसे लेकर अभी लोगों में इतनी जागरूकता नहीं है कि यह राजनीतिक मुद्दा बने. जिस दिन लोग वास्तव में उस पार्टी के लिए वोट देने लगेंगे जो साफ हवा का वादा करे, राजनेता इस पर काम करना शुरू कर देंगे. लेकिन इसके वास्ते वाकई असली और बहुत गंभीर स्वास्थ्य इमरजेंसी के लिए हमें जागरूकता की जरूरत होगी.
दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में थोरासिस सर्जरी के हेड डॉ. अरविंद कुमार और उनके जैसे दूसरे डॉक्टर और विशेषज्ञों ने लोगों को सलाह दी है कि वो इस गंभीर प्रदूषण वाले सीजन में घर के अंदर ही रहें, मास्क पहनें और PM लेवल बढ़ने पर एयर फिल्टर का इस्तेमाल करें.
यह मुद्दा उठाने वाले डॉक्टरों में आगे डॉ. अरविंद कुमार, लोगों में- अस्पताल से धार्मिक संस्थाओं तक के बीच- जागरूकता फैलाने के का प्रयास कर रहे हैं. उनका कहना है कि उन्होंने शिशुओं के फेफड़े में भी PM के काले धब्बे देखे हैं. 10 साल पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी. वह कहते हैं कि दिल्ली में रहने वाले हम सभी के फेफड़े स्मोकिंग करनेवालों जैसे हैं, भले ही हमने जिंदगी में एक सिगरेट भी ना पी हो.
तो कौन सी चीज हमें कुछ करने से रोक रही है? एक कारण तो यह है कि इतना छिपा हुआ है कि विभिन्न लॉबी, चाहे वो ऑटोमोबाइल निर्माता हों, तेल कंपनियां हों या आतिशबाजी निर्माता, आसानी से उस तथ्य का खंडन कर सकते हैं, जो साक्ष्यों पर आधारित शोध साफ दिखाते हैं. जब इतने बारीक कण हमारी रक्तवाहिकाओं में प्रवेश करते हैं तो यह सिर्फ फेफड़े ही नहीं, हमारे हर अंग को प्रभावित करते हैं. लेकिन यह फौरन या पांच-दस साल के अंदर भी मारने के बजाय समय लेता है. यह ना सिर्फ हमारी जिंदगी लील रहा है, बल्कि हमारी सेहतमंद जिंदगी को भी बर्बाद कर रहा है.
दूसरा कारण यह भी है कि इसके लिए एक दमदार और असरदार हेड (जैसे दिल्ली मेट्रो के ई. श्रीधरन या आधार-यूआईडी के नंदन नीलेकणी थे) वाली कोई एक केंद्रीकृत, शक्तिसंपन्न और उत्तरदायी संस्था नहीं है, जो नियंत्रण लागू करने के लिए केंद्र से लेकर राज्य तक सबको सीधा कर सके. ऐसे में बिना रोक-टोक प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. यह जिम्मेदार संस्था दोषी है. और सुप्रीम कोर्ट के पटाखे पर लगाई पाबंदी पर गुलगपाड़ा और नौटंकी शांत हो चुकी है, हमें देखना होगा हम खुद को सुरक्षित रखने के लिए क्या कर सकते हैं.
सबसे शुरुआती कदमों में से एक यह हो सकता है कि सभी आउटडोर गतिविधियों को एयर क्वालिटी से जोड़ा जाए. हम इसे व्यक्तिगत तौर पर अमल में लाने, संस्थागत तौर पर करने के साथ अपनी सबसे मूल्यवान और सबसे जोखिम वाली आबादी की देखरेख करने वाले स्कूल आदि में लागू कर सकते हैं.
अभिभावक के तौर पर हमें अपने स्कूलों से कहना चाहिए कि वो आउटडोर खेलों को एयर क्वॉलिटी से संबद्ध करें और एयर क्वॉलिटी खतरनाक स्तर को पार करते ही सभी आउटडोर गतिविधियों को रोक दें. दिल्ली के चंद बेहद जागरूक स्कूल पहले से ही ऐसा कर रहे हैं. दूसरों को भी इसका अनुसरण करना चाहिए. अभिभावकों को शिक्षा विभाग से कहना चाहिए कि वह सभी स्कूलों को सर्कुलर जारी कर अभी से मार्च महीने तक के लिए आउटडोर खेल-कूद को एयर क्वॉलिटी से जोड़ने का आदेश दे. स्कूलों को सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर ऐसी एडवाइजरी जारी करने के साथ ही शिक्षा निदेशालय को भी इसे अनिवार्य बना देना चाहिए.
अगर यह अनिवार्य नहीं होगा और सिर्फ चंद स्कूल ही ऐसा करेंगे तो वह अंतर-स्कूल टूर्नामेंट में शामिल होने से वंचित रह जाएंगे और हार के डर से वो ऐसी एडवाइजरी लागू करने में हिचकिचाएंगे. यह मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं वाली स्थिति होगी.
इसके अलावा, स्कूल- और टूर्नामेंट आयोजक- को पता होना चाहिए कि प्रदूषण का स्तर सबसे खराब अल सुबह और देर शाम होता है, जबकि माहौल में ठंड होती है. जिन खेलों को और ट्रायल को स्थगित नहीं किया जा सकता, उन्हें सुबह 11 के बाद और शाम 4 बजे से पहले कर लेना चाहिए, जिस समय एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) में थोड़ा सुधार होता है. हालांकि AQI लेवल 250-300 से ऊपर जाने पर बाहर खुले में होने वाली सभी गतिविधियां बिना किसी अपवाद के फौरन बंद कर देना चाहिए.
बच्चों के लिए चुनाव के वैसे मौके नहीं हैं, जैसे बालिगों के पास हैं- इसके अलावा उनकी कोई संगठित शक्ति भी नहीं है. इसलिए अभिभावकों, स्कूलों, शिक्षाविदों और सरकार के लिए जरूरी है कि वो सुनिश्चित करें कि सिर्फ सलाहें देने के बजाय बच्चों की सही तरीके से परवरिश सुनिश्चित हो.
वयस्क लोगों- क्योंकि हमारे अंग भी जहरीली हवा से खराब होते हैं- की बात करें तो यह बहुत जरूरी है कि जागरूकता पैदा की जाए. लेकिन जागरूकता पैदा करने, जो कि हर एक की जिम्मेदारी है, की जगह कॉरपोरेट जगत ना सिर्फ इससे किनारा कर लेता है, बल्कि इसके प्रति लापरवाही बरतते हुए दिल्ली की जहरीली हवा में ही मैराथन, टूर्नामेंट और दूसरी आउटडोर प्रतियोगिताओं को प्रायोजित भी करता है.
लेकिन कंपनियों की कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी का क्या हुआ, जो दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण चरम पर होने के बीच ही मैराथन दौड़ और दूसरी गतिविधियों को स्पांसर कर रही हैं?
इसका क्या तर्क हो सकता है कि जब लोगों को घर में रहकर अपने फेफड़े की हिफाजत करनी चाहिए, जैसा कि डॉक्टरों ने भी साफ तौर पर ऐसा करने को कहा है, उन्हें बाहर निकल कर दौड़ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाए?
अगले कुछ महीने धावक और खिलाड़ी जितनी गहरी सांस लेंगे, उतना ज्यादा PM अंदर लेंगे. कई नागरिक एक्टिविस्ट समूह कॉरपोरेट्स को लिख रहे हैं या अनौपचारिक रूप से उनसे संपर्क करके कह रहे हैं कि ऐसे समय में इस तरह की इवेंट कैंसिल कर दें या हवा अच्छी होने तक के लिए स्थगित कर दें. लेकिन ऐसा लगता है कि सूक्ष्म कणों के इंसानी शरीर पर पड़ने वाले दुष्परिणों को लेकर सभी तरह के शोध (और हमारे डॉक्टरों पर) के ऊपर लालच भारी पड़ रहा है.
अब समय है कि इसे बदला जाए. साफ हवा हम सबकी जिम्मेदारी है. इससे हर कोई जुड़ा हुआ है. लेकिन लोगों की अज्ञानता का फायदा उठाकर उन्हें यह कहना कि ऐसी खराब हवा में खेल-कूद में हिस्सा लें, एक आपराधिक कृत्य है. ये कंपनियां कम से कम इतना तो कर सकती हैं कि जागरूकता फैलाएं, ताकि धावक खुद समझदारी भला फैसला ले सकें. अगर कॉरपोरेट जगत अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में लापरवाही करता है तो सरकार को दखल देना चाहिए और AQI खतरनाक स्तर पार करने पर फौरन ऐसी गतिविधियों के लिए दी अनुमति को वापस ले लेना चाहिए.
(दिल्ली में रहने वाली ज्योति पांडे लवाकरे स्तंभकार हैं और जागरूकता जगाने व साफ हवा की हिमायत करने वाले प्लेटफॉर्म केयर फॉर एयर (careforair.org), की सह-संस्थापक हैं. यहां विचार उनके निजी विचार हैं)
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