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आधुनिक भारतीय राजनीति को हम दो हिस्सों में बांटकर देख सकते हैं. पहला, वह हिस्सा जो आजादी के आंदोलन से बहुत प्रभावित रहा. जिसमें राष्ट्र निर्माण कोई छद्म प्रचार नहीं था. शुरुआती बीस सालों तक एक ही दल के बहुमत में होने के बावजूद उस दौर में निरंकुश शासन का कोई निशान नहीं मिलता. दूसरे दौर में चुनाव जीतना ही दलों का मुख्य मकसद हो जाता है. जोड़-तोड़ की राजनीति बेहद अहम हो जाती है. चाटुकारिता अपने चरम पर पहुंच जाती है. व्यक्तिगत फायदों के लिए व्यक्ति पूजा की शुरुआत होती है.
इंदिरा जी का दौर इसका उदहारण है, जिसमें तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ कहते हैं- “इंडिया इस इंदिरा, इंदिरा इस इंडिया.” इस दौरान इंदिरा गांधी इतनी ताकतवर हो जाती हैं कि आपातकाल लगाने जैसा फैसला लेने के लिए मंत्रिमंडल से सलाह मश्विरा तक करना उचित नहीं समझतीं. एक तरह से यहां बहुमत ने ही तानाशाही की नींव तैयार की थी.
इस दौरान अलग-अलग विचारधारा रखने वाले लोग और दल एक साथ आकर सरकार बनाते हैं. यह प्रयास बुरी तरह विफल हो गया लेकिन इसने गठबंधन सरकार की संभावनाओं पर मुहर लगा दी.
इस तरह बहुमत की सरकार फिर से एक महत्वपूर्ण कदम को निरस्त करने में सफल रही. इसके बाद की वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, गुजराल और वाजपेयी की सरकारें भी गठबंधन सरकार की संभावना को बल देती रहीं. हालांकि उस दौर को हम गठबंधन सरकारों की किशोरावस्था की संज्ञा दे सकते हैं. उस दौर से होकर गठबंधन सरकारें ज्यादा संयमित हो गयीं.
वाजपेयी जी और मनमोहन सिंह जी की गठबंधन सरकारों ने आपना कार्यकाल पूरा किया. वाजपेयी जी की सरकार की खासियत ये रही कि उस दौरान बीजेपी ने कट्टर हिंदुत्व से किनारा करते हुए उदार विचारों वाली सरकार का गठन किया. यह गठबंधन सरकार का ही नतीजा था. बहुमत से यह संभव नहीं था.
आज वही पार्टी बहुमत मिलते ही निरंकुश हो गयी है. हम देख सकते हैं कि किस प्रकार धार्मिक उन्माद का एक माहौल पिछले पांच सालों में तैयार हुआ है या कहें की किया गया है. अतः हम पाते हैं की गठबंधन सरकारें बातचीत और विचार विमर्श का माहौल तैयार करने में ज्यादा सक्षम रहीं हैं. विविधता से परिपूर्ण एक देश का सही कार्यान्वयन तभी हो सकता है जब राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों के बीच उचित समन्वय स्थापित हो.
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