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गठबंधन की सरकारें भारत में राजनीतिक अस्थिरता का एक प्रमुख कारण है, जिससे निवेशक अर्थव्यवस्था में निवेश करने में हिचकते हैं और देश को कई और मुद्दे जैसे अंतरराष्ट्रीय सहायता मिलने में रुकावटें आती हैं. हालांकि करीब पिछले दो दशक में भारत की राजनीति में जो नया मोड़ आया है उसमें गठबंधन की सरकार को नकारा भी नहीं जा सकता.
क्षेत्रीय दल स्थानीय मुद्दों को बहुत ही प्रमुख स्थान देते हैं, वे ग्रामीण अंचलों से जमीन से जुड़े हुए होते है, वहां की बहुसंख्यक जाति-धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं और सरकार की गलत नीतियों एवं मनमानी पर रोक लगाते हैं. हम मनमोहन सिंह के UPA कार्यकाल की बात करें तो कुछ फैसलों पर सहयोगी दलों ने ही साथ भी छोड़ा था, जैसे - न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर UPA से लेफ्ट ने समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया था, जिससे डील फाइनल होने में बेवजह का विलंब हुआ, इसलिए में अपने इस लेख में कहना चाहूंगा कि मुझे व्यक्तिगत तौर पर मौजूदा समय की मोदी सरकार जो अपने बहुमत के दम पर केंद्र में है, इस तरह की सरकारें अच्छी लगती है. जो अपने दम पर साहसिक और कठोर फैसले ले सके जैसा की इस सरकार ने नोटेबंदी का फैसला लिया था.
फिर गठबंधन की सरकार में आपको कई तरह की "राजनितिक डील" भी करनी पड़ती है, इसका उदाहरण मैं बीजेपी के नेतृत्व में गोवा में चल रही मौजूदा सरकार का भी दे सकता हूं कि जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आये तो बीजेपी को केवल 13 सीटें मिलीं जो की बहुमत के आंकड़े से 8 सीटें कम थीं. हालांकि बीजेपी के नेतृत्व ने अपना माया जादू चलाया GFP के 3 विधायकों और 6 निर्दलीय विधयकों को मंत्री बनाकर गोवा में अपनी सरकार बना ली थी.
निष्कर्ष - मिली-जुली सरकार की सफलता के लिए आवश्यक है कि राजनीतिक दल अहंवादी व्यक्तित्व और अनुशासनहीनता का त्याग कर सार्वजनिक नैतिकता के भाव को ग्रहण करें. हालांकि इस बात पर विचार करना होगा कि राज्य व केंद्र में मिली-जुली सरकार की राजनीति से उत्पन्न राजनीतिक अस्थायित्व को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सके, जिससे राजनीतिक दल व्यक्तिगत हितों को त्यागकर सामाजिक हितों को महत्व दें और जिस काम, जिस उद्देश्य के लिए जनता ने उन्हें अपना प्रतिनधि बनाकर संसद में भेजा है, उस उद्देश्य को पूरा करने का प्रयास करें.
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