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दिल्ली के चिल्ला खादर में उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार के बहुत सारे मजदूर यहां आकर इन खेतों में काम भी करते हैं. दिल्ली की 10 प्रतिशत खाद्य जरूरतें यहां उगाई गई फसलों से पूरी होती है, लेकिन अब सरकार इन किसानों को यहां से हटाने की बात कर रही है.
वीडियो एडिटर - मोहम्मद इरशाद आलम
वीडियो प्रोड्यूसर - अजहर अंसार, सूफियान फारूकी
यमुना नदी दिल्ली को दो भागों में बांटती है. बारिश के मौसम में यमुना जब उफान पर होती है तो अपने तट के साथ-साथ आसपास के गांवों को भी डुबो देती है, वहीं गर्मी में यमुना सिमट जाती है, जिससे दोनों तरफ तट का बड़ा हिस्सा खाली हो जाता है. इस खाली और उपजाऊ जमीन का इस्तेमाल खेती के लिए किया जाता है.
यमुना खादर में खेती करने वाले लोग आसपास की जमीन पर कुछ महीने झोपड़ियां बनाकर रहते हैं ताकि वे अपनी फसल की सुरक्षा और देखभाल कर सकें. इसमें साग-सब्जियों का बड़ा हिस्सा यमुना कछार के किसान ही उगाते हैं. इस हिस्से में रहने वाले ज्यादातर किसानों की जीविका का एकमात्र जरिया यमुना के किनारे होने वाली खेती ही है. देश के अलग-अलग हिस्सों से आए गरीब यहां खेती करते हैं, इलाके को हरा भरा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
यमुना का पानी दूषित होने की वजह से इसके किनारे होने वाली खेती के बारे में एक आम धारणा बन गई है कि यहां उगाई हुई फसलें भी दूषित होती हैं. ऐसी ही धारणा National Green Tribunal के 2015 के एक आदेश में दिखती है, जिसमें यमुना के किनारे होने वाली खेती को दूषित बताया गया था. इस आदेश में कहा गया था कि यमुना के दूषित पानी से इन फसलों की सिंचाई होती है. इसलिए ये खाने लायक नही हैं. इसलिए खेती बंद होनी चाहिए जबकि किसान इन फसलों की सिंचाई के लिए ग्राउंड वाटर का इस्तेमाल करते हैं न कि यमुना के पानी का.
इस मामले की जांच कर 2019 केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 2019 में एक रिपोर्ट पेश की जिसमें कहा गया कि यमुना के किनारे की जाने वाली खेती जहरीली नहीं है, क्योंकि इसे उगाने के लिए किसान ग्राउंड वाटर का इस्तेमाल करते हैं. मिट्टी में जो प्रदूषण हैं वो जैविक खाद के उपयोग से दूर किया जा सकता है. लेकिन हैरानी की बात ये है कि NGT ने इस रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए यमुना कछार की खेती पर पूरी तरह बैन लगाने की अनुशंसा की है, और दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) ने खेती बंद कराने और किसानों को हटाने का निर्देश दे दिया है.
यमुना के पूरे क्षेत्रफल का 2 प्रतिशत हिस्सा ही दिल्ली से गुजरता है, लेकिन यमुना के प्रदूषण में 75 प्रतिशत का योगदान दिल्ली का है. यमुना मॉनिटरिंग कमेटी ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में खेती के लिए इस्तेमाल की जा रही 954 हेक्टेयर की जमीन को गैरकानूनी अतिक्रमण कहा है, यही नहीं इस जोन में आने वाले लोगों को यमुना में प्रदूषण की एक मुख्य वजह भी बताया गया है. किसानों की खेती को पर्यावरण विरोधी बताया गया है और सिंचाई और पेयजल की व्यवस्था के इंतजामों को अतिक्रमण की परिभाषा दी गई है. जबकि यमुना के प्रदूषण की वजह है पूरे दिल्ली का सीवेज, बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों का कचरा.
इस पूरे मामले में सबसे बड़ा मसला है यमुना खादर की जमीन की ऑनरशिप का. 2015 के आदेश में NGT ने निर्देश दिया था कि मास्टर प्लान के जोन ओ में 9700 हेक्टेयर जमीन पर यमुना रिवरफ्रंट का विकास किया जाए, लेकिन इस पूरी जमीन का 1452 हेक्टेयर ही DDA के पास है.
बाकी जमीन पर विवाद है, DDA इसे अपना बताती है और इसपर कब्जा करना चाहती है, वहीं इसपर खेती करने वाले किसान आजादी के पहले के कागज दिखाकर दावा करते हैं कि ये जमीन DDA की कभी थी ही नहीं और किसान इसपर सैकड़ों साल से खेती करते आ रहे हैं लगान चुकाते आ रहे हैं. लेकिन यह मामला पूरी तरह से सुलझा नहीं है, इसलिए DDA कई बार किसानों के खेतों को तबाह कर देती है, और किसान अपने तरीके इसका विरोध करते हैं.
किसानों की एक और समस्या ये है कि वे चाहकर भी अपनी जमीन नहीं छोड़ सकते हैं, क्योंकि इन्हीं जमीनों पर वे कई सालों से रहते आ रहे हैं. दिल्ली में यही उनका घर है, यहां से उगाई गई सब्जी से वे अपना पेट पालते हैं. लेकिन अगर उन्हें उजाड़ा जाएगा तो क्या सरकार के पास उनके पुनर्वास की कोई योजना है? ये जानने के लिए हमने बात की आम आदमी पार्टी के विधायक प्रवीण कुमार से जो लंबे समय से इस आंदोलन से जुड़े रहे हैं और समस्या को करीब से समझते हैं.
केजरीवाल सरकार बार-बार यमुना को साफ करने का दावा करती है, नए वित्त वर्ष 2022-23 में दिल्ली सरकार ने यमुना की सफाई के मद में 266 करोड़ रुपये का बजट में प्रावधान किया है. दिल्ली सरकार ने 2024 तक यमुना को साफ करने का लक्ष्य रखा है. वित्त मंत्री मनीष सिसोदिया द्वारा बजट पेश किए जाने के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वर्ष 2024 तक यमुना साफ हो जाएगी. हालांकि यमुना खादर के किसानों की आशंका है कि यमुना सफाई के नाम पर कहीं उनका अस्तित्व ही न साफ कर दे दिल्ली सरकार.
ये स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है. मल्टीमीडिया पब्लिशिंग पार्टनर: क्विंट हिंदी
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