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एपिडेमिक डिजीज बिल,2020: कानून नहीं मेडिकल सिस्टम सुधारने की जरूरत

स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्ध ने इसे राज्यसभा में प्रस्तावित किया और यह पास भी हो गया.

डॉ. केयूर पाठक & चित्तरंजन सुबुद्धि
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संसद में संशोधित एपिडेमिक डिजीज बिल लाया जा रहा है
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संसद में संशोधित एपिडेमिक डिजीज बिल लाया जा रहा है
फाइल फोटो

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राजनीति में जनविरोधी शब्द इतना ज्यादा इस्तेमाल किया गया है कि यह अपना मूल भाव ही खो चुका है, इसलिए जो संशोधित एपिडेमिक डिजीज बिल, 2020 ( The Epidemic Diseases (Amendment) Bill 2020 ) लाया गया है उसके लिए जनविरोधी के बदले देश-विरोधी शब्द का इस्तेमाल करना शायद ज्यादा सही रहेगा.

स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन, जो कि खुद भी एक डॉक्टर रहे हैं, ने इसे राज्यसभा में प्रस्तावित किया और यह पास भी हो गया.

क्यों है इस बिल को लेकर विवाद

इस बिल का मूल बिंदु जो विवाद का कारण है, वो इस तरह है-

“चिकित्सा के कामों में लगे किसी भी कर्मी के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा या नुकसान पहुंचाने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 320 के तहत एक गंभीर किस्म का अपराध मानते हुए कम से कम तीन साल और ज्यादा से ज्यादा दस सालों तक की कैद, या फिर कम से कम दो लाख और ज्याद से ज्यादा दस लाख रुपए तक का आर्थिक जुर्माना लगाया जा सकता है”.

इस बिल का गृह मंत्रालय ने विरोध इस आधार पर किया कि मौजूदा दंड संहिता (Indian Penal Code) में पहले से ही इस तरह के अपराध से निपटने के लिए जरूरी प्रावधान हैं, इसलिए अलग से किसी तरह के कानून की कोई जरूरत ही नहीं है, जो कि एक मजबूत और सही तर्क था, लेकिन इसके बावजूद भी इस तरह के बिल संदेह पैदा करते हैं.

इस बिल का ढांचा भारतीय लोकतंत्र की आत्मा, ‘न्याय की समानता’ के सिद्धांत के उलट है, क्योंकि इसके तहत एक खास बिजनेस क्लास के लिए खास अधिकार का प्रावधान किया जाना है.

सवाल ये है कि क्या आम आदमी अपराध, हिंसा, लूट, ठगी, हत्या, बलात्कार जैसे अनगिनत भयंकर अपराधों के चंगुल में नहीं फंसा हुआ है! उनके लिए सरकार का ऐसा सरोकार क्यों नहीं विकसित हो पाता? वैसे तो यह बिल कॉलोनियल एरा में बने महामारी अधिनियम, 1897 (Epidemic act, 1897) को हटाकर लाए जाने का दावा किया जा रहा है, लेकिन ये अंग्रेजों के जमाने के कानून से ज्यादा क्रूर, भेदभाव-युक्त और दमनकारी है.

यह शर्मनाक है कि आज जब इस महामारी में सस्ती और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं को लोगों तक उपलब्ध करवाए जाने की जरूरत थी, उसके बदले मेडिकल प्रैक्टिशनर के गैर-जिम्मेवार, मुनाफाखोर मिजाज को मजबूत करने वाले कानून लाये जाने की तैयारी है.

साल 2013 में एसोसिएशन ऑफ हेल्थ केयर प्रोवाइडर्स, इंडिया के डॉ. गिरधर ज्ञानी का मानना था कि भारत में स्वास्थ्य सरकारी नीतियों की प्राथमिकता में नहीं है जिस कारण अयोग्य और अक्षम डॉक्टरों की पूरे भारत में भरमार है, और इनकी इस अयोग्यता और लापरवाही के कारण लाखों मरीजों को नियमित तौर पर आर्थिक, शारीरिक और मानसिक क्षति पहुंच रही है.

भारत के हेल्थ सिस्टम पर सवाल

हार्वर्ड के एक अध्ययन का भी दावा है कि भारत में चिकित्सीय गलतियों और लापरवाहियों को अनदेखा किया जाता है, जबकि इसकी संख्या हर साल करीब 50 लाख से भी अधिक है.

इसी तरह ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के एक शोध का भी दावा है कि बिना ट्रेनिंग और अयोग्य डॉक्टरों के कारण भारत में मरीजों और उसके परिजनों का बहुत नुकसान हो रहा है. इसके लिए कई जिम्मेवार कारण हैं जैसे सरकार की चिकित्सीय दायित्वों के प्रति उदासीनता, जो चिकित्सा जगत के सभी स्तरों पर देखी जा सकती है.

दुनिया की रैंकिंग में भी पिछड़े

डब्लू.एच.ओ. के वर्ल्ड हेल्थ स्टैटिस्टिक्स 2015 के मुताबिक भारत अपने कुल जीडीपी की तुलना में हेल्थ सर्विस पर खर्च करने के मामले में 194 देशों की लिस्ट में 187 नंबर पर आता है, जो कि एक शर्मनाक स्थिति है.

स्वास्थ्य पर खर्च के सम्बन्ध में दुनिया के अनेक देशों का अनुभव यह बताता है कि इसपर कम से कम 5 से 6% तक का खर्च एक आदर्श स्थिति मानी जा सकती है, जबकि ‘नए-भारत’ में वित्तीय वर्ष 2020 के लिए यह मात्र 1.29% ही है. इस कोविड-19 के महाकाल में यह अल्प-बजट सरकार की महामारी से निबटने के सारे दावों को धवस्त करता दिखता है.

भारत की एक बड़ी आबादी आर्थिक रूप से गरीब है, हेल्थ से जुड़े मामलों को देखें तो बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव दिखता है, जहां यह है भी तो इतना कमजोर है कि वहां इलाज करवाने से बीमारी घटने के बजाये बढ़ जाए.

देश के 15700 PHC में सिर्फ एक डॉक्टर

गैर-सरकारी आंकड़ों से इतर ही देखें तो वर्ष 2018 में राज्यसभा में तत्कालीन परिवार एवं कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने लिखित रूप से स्वीकारा था कि

देश में कुल 25650 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary Health Centre) हैं, जिनमें से 15700 (61.25%) में केवल एक-एक डॉक्टर हैं, 1974 (7.69 %) में कोई डॉक्टर नहीं है, 9183 (35.8%) के पास कोई लैब टेक्निशियन नहीं है, और 4744 (18.4%) के पास कोई फार्मासिस्ट नहीं है.
अनुप्रिया पटेल, तत्कालीन परिवार एवं कल्याण राज्य मंत्री
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दूर दराज के गांवों में भी क्वालिटी हेल्थ सेंटर की बनाना राज्य की पहली जिम्मेदारियों में से एक होना चाहिए था, लेकिन सरकार की नीतियां सस्ते और बेहतर प्राइमरी हेल्थ सेंटर को गांव-गांव उपलब्ध करवाने के बदले बड़े मेडिकल संस्थानों की तरफ ज्यादा देख रही है, जो ग्लोबल कैपिटल के असर से चलाए जा रहे हैं और जो भ्रष्ट राजनीतिक और आधिकारिक तंत्र के लिए फायदे का जरिया हैं.

इस दिशा में बाकी मोर्चों पर विफलताओं के बावजूद भी दिल्ली सरकार के मोहल्ला क्लिनिक की कोशिश सराहनीय माना जा सकता है, जिसने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए एक मदद के रूप मे काम किया है. 

प्रतिष्ठित पत्रकार मार्क टुली ने भी अपनी किताब ‘नो फुल स्टॉप इन इंडिया’ में कुछ ऐसे ही विचारों को रखा है.

भारत में बड़े-बड़े मेडिकल संस्थानों से अधिक छोटे-छोटे हजारों ऐसे प्राइमरी हेल्थ सेंटर को बनाये जाने पर बल दिया जाना चाहिए, जिसमें देश की गरीब जनता उन बेहद ही सामान्य बीमारियों का इलाज करवा सके जिनके कारण हर साल लाखों लोगों की असमय मौत हो जा रही है, जैसे सामान्य-बुखार, लू, हैजा, न्युमोनिया, टीबी, अस्थमा जैसी साध्य बिमारियों के इलाज का साधन भी एक बड़ी आबादी के पास नहीं है.

कई और ऐसी वजह हैं जो कई कमजोर लोगों के लिए अच्छे स्वास्थ्य के रास्ते में बाधा हैं, लेकिन ये व्यापक विमर्शों से अब तक लगभग गायब हैं.

यहां हर साल लगभग 50 हजार छात्रों को एमबीबीएस की अनेकों वैध-आवैध तरीकों से प्रमाणपत्र दे दिया जाता है, लेकिन पोस्ट ग्रेजुएट के सीटों की संख्या मात्र 18 हजार है, जिस कारण जो बचे छात्र रह जाते हैं उनमें से कई अपनी अल्प-जानकारी और बड़ी पूंजी के बलबूते चिकित्सा का अपना विशाल कारोबार खड़ा कर लेते हैं, जिसका अंतिम खामियाजा मरीजों और उसके परिजनों को ही झेलना पड़ता है.

ऐसे अनगिनत मामले हैं जिसमें महिला-मरीजों के द्वारा दावा किया गया कि डॉक्टरों ने इलाज के दौरान उनका यौन शोषण किया, कई मामलों के वीडियो क्लिप भी वायरल हुए. इसी तरह डॉक्टरों के द्वारा गैर-जरुरी मंहगी दवाओं का लिखा जाना, शुल्क के रूप में मोटी रकम लेना, दवाई खरीद-बिक्री व जांच में दलाली और मरीजों के साथ बदमिजाजी से पेश आना जैसे कई गंभीर मामले हैं जिसे कमोबेश सभी ने अनुभव किया है, लेकिन दुर्भाग्य से इसे एक तरह से डॉक्टरों का जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया गया है, और इसपर बोलना-लिखना भी एक तरह से अपराध की श्रेणी में है!

ऐसी कठिन स्थिति में चिकित्सकों की सुरक्षा के लिए एक और वैधानिक प्रावधान का किया जाना गरीब जनता के गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचे की तरह है. चिकित्सीय व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए ऐसे विशेषाधिकार जनता के सामान्य अधिकारों को छीनने की कोशिश तो है ही साथ ही ‘न्याय की समानता’ जैसे बुनियादी सांवैधानिक मूल्यों पर भी एक जोरदार प्रहार है.

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Published: 22 Sep 2020,03:21 PM IST

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