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गाजा साइक्लोन से तो हम बच गए, लेकिन जीने के लिए कुछ नहीं बचा

साइक्लोन काफी खतरनाक होता है, यह घरों और पेड़ों को नुकसान पहुंचाता है

क्विंट हिंदी
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(फोटो: अपर्णा शुक्ला)
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(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

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करीब 3 बजे रहे थे, साइक्लोन आने के करीब 11 घंटे पहले का समय. मैं एक मछुआरे के साथ पिछले साल नवंबर में आए साइक्लोन के उसके अनुभव को रिकॉर्ड कर रहा था. मैं उस दौरान एक लोकल कम्युनिटी रेडियो के लिए काम कर रहा था और इस रिकॉर्डिंग के जरिए लोगों को साइक्लोन से सचेत करना चाहता था. रिकॉर्डिंग पूरा होने के दो मिनट के भीतर ही वहां का माहौल बदलना शुरू हो गया.

मैंने बिल्कुल भी देरी नहीं की और अपना बैग पैक कर वहां से निकलना मुनासिब समझा. लेकिन वहां मौजूद एक दूसरे मछुआरे ने कहा, ''साइक्लोन यहां के लिए काफी सामान्य बात है और इसका सामना करने की उन लोगों को आदत है.''

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

मछुआर ने जैसा बताया, इतना सामान्य भी नहीं होता साइक्लोन. हमें पता है कि साइक्लोन काफी खतरनाक होता है, यह न केवल घरों और पेड़ों को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि अगले 6 से 8 महीने तक लोगों के जीवन को भी बुरी तरह प्रभावित कर देता है. बदलते मौसम को देखते हुए मुझे समझने में देर नहीं लगी कि ये खतरनाक साबित हो सकता है. मैं वहां से जल्द से जल्द घर जाने की तैयारी कर रहा था.

समुद्र तट से मेरा घर महज 3 किलोमीटर दूर है, लेकिन मैं 5 बजे तक वहां से नहीं निकल सका. मजबूरन वहीं पास में मुझे एक लोकल रेडियो रिपोर्टर रेवती के घर के रुकना पड़ा. उसका घर समुद्र तट से 150 मीटर की ऊंचाई पर था और काफी अच्छे तरीके से बनाया हुआ था. कुछ ही दूरी पर 2004 सुनामी के दौरान मरने वालों लोगों की याद में एक छोटा सा समाधि स्थल बनाया हुआ था.

गाजा साइक्लोन जिस रात आया, रेवती के घर पर उसके बड़े भाई कुमार अन्ना, भाभी और मां घर पर थीं. रात के करीब 8 बजे रेवती की भाभी घर में सभी कीमती सामान और पेंटिंग्स एक जगह पर जमा कर उसे सुरक्षित जगह पर रखने लगीं और घर के खिड़की और दरवाजों को बंद कर दिया.

कुमार अन्ना को यकीन था कि साइक्लोन आकर चला जाएगा और आम लोगों को उससे ज्यादा नुकसान नहीं होगा. वह घर के बाहर साइक्लोन के बारे में जानकारी जुटाने गए थे. इसी बीच रेवती की मां बार-बार घर के दरवाजे की तरफ टकटकी निगाहों से कुमार अन्ना के आने का इंतजार कर रही थी. उन्हें कुमार अन्ना की फिक्र हो रही थी, साथ ही साइक्लोन के बारे में भी जानकारी का इंतजार था. रात के करीब 9 बजे कुमार अन्ना ने घर पहुंचकर बताया कि इंटरनेट नेटवर्क पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है और इस वजह से साइक्लोन के बारे में कोई खास जानकारी हासिल नहीं हो पाई.

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

उन्होंने कहा कि बेहतर यही होगा कि अब आराम से सब सो जाएं. हम सभी सोने के लिए अभी गए ही थे कि कुमार अन्ना के पास साइक्लोन के बारे में जानकारी मिली और उन्होंने हम सभी को जल्द से जल्द उस घर से निकलने के लिए कहा. हम सभी वहां से तेजी से भागते हुए सुनामी में मरने वालों की याद में बनाए गए समाधि स्थल (सेफ हाउस) की तरफ पहुंचे.

इस सुनामी सेफ हाउस को काफी बेहतर तरीके से बनाया गया था, जो साइक्लोन से निपटने में पूरी तरह सक्षम है. हमलोगों के पहुंचने के कुछ देर बाद कुमार अन्ना गद्दे, तकिए और मोमबत्ती के साथ वहां पहुंचे. हमलोगों वहां पर सोने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन रात जैसे-जैसे बढ़ रही थी डर सताए जा रहा था. हमलोगों के लिए एक-एक मिनट गुजरना मुश्किल हो रहा था. कुमार अन्ना इस घर के सभी दरवाजे और खिड़िकयों को बंद कर रहे थे लेकिन हवा का तेज दबाव बार-बार दरवाजों को खोल देता था.

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

हमलोग कोशिश कर रहे थे कि इस माहौल में खुद को पैनिक ना होने दें. लेकिन चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे. मन में एक अजीब सा डर था और हम सभी के चेहरे पर वो डर साफ-साफ दिख रहा था. कोई एक भी शब्द नहीं बोल पा रहा था. हमलोगों की खामोशी और सन्नाटा के साथ बाहर से तेज हवा की आवाज उस माहौल को और भी डरावना बना रही थी. लेकिन हम सभी शांत होकर बैठे थे. नींद तो मानो कहां गायब हो गई थी पता ही नहीं चल रहा था.

रात के करीब 2.30 बज रहे थे, अचानक से काफी तेज आवाज आने लगी. यह इतना तेज शोर था कि अगर कोई पहली बार सुने तो उसका बुरा हाल हो जाएगा. रेवती की मां मुस्कुराई और उन्होंने अपने बेटे कुमार अन्ना से तमिल में कुछ कहा. उन लोगों को साइक्लोन झेलने की आदत रही है. इसलिए उन्होंने कहा कि लो ये तूफान फिर आ गया और कुछ देर में चला जाएगा.

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

करीबी 2.45 बजे हवा की तेज रफ्तार और तूफान हमारे सेफ हाउस पर इस तरह कहर बनकर टूट रहा था कि लगता था कि मानो कुछ भी हो सकता है. साइक्लोन अपने चरम पर था और हमलोग डरे-सहमे घर के अंदर बैठे थे. पेड़ एक दूसरे से टकरा रही थी और काफी तेज आवाज आ रही थी. ऊपर से तेज बारिश. कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या होगा. रात काटे नहीं कट रही थी और डर से हमारा बुरा हाल हो रहा था.

मैं अपनी मां और फैमिली के बारे में सोच रहा था और उनके सकुशल होने की कामना कर रहा था. लेकिन मैं चाह कर भी अपने घरवालों से कॉन्टैक्ट नहीं कर सकता था. यहां पर रेवती की भाभी एक कोने में डर के मारे सुबक-सुबक कर रो रही थी. एक एक पल हमारे लिए निकलना मुश्किल लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो हम मौत की आगोश में कभी भी जा सकते हैं. लेकिन मेरे मन में विश्वास था कि हमलोग सुरक्षित बच जाएंगे. और हमारा भरोसा अंततः सही साबित हुआ.
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सुबह के करीब 4.15 बजे तूफान थम गया. अब बारिश की आवाज आसानी से सुनाई दे रही था. कुमार अन्ना अपने घर जाने के लिए निकले. उनकी मां उन्हें जाने से रोक रही थी, लेकिन उनका घर जाना जरूरी था, ये जाकर पता करने के लिए घर की कैसी हालत है. कुछ देर बाद वो वापस लौटकर आएं और बोले- ‘सबकुछ खत्म हो गया’. घर के बाहर लगा पुराना नीम का पेड़ घर पर गिर गया और उससे पूरे घर क्षतिग्रस्त हो गया. सबलोग काफी परेशान हो गए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था.

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

धीरे-धीरे अब बारिश भी रुक गई, हमलोग उस सेफ हाउस से निकलकर रेवती की घर की तरफ गए. चारों तरफ तबाही ही तबाही दिख रहा था. हर तरफ पानी लगा हुआ था. पेड़-पौधे गिरे हुए थे. जो पेड़ लगे हुए भी उनमें कहीं पत्तों का नामोनिशान तक नहीं दिख रहा था. ऐसा लग रहा था मानो हम किसी अलग ही दुनिया में आ गए हैं.

रेवती के घर के आस-पास के सभी घर क्षतिग्रस्त हो गए थे. रेवती के घर का छत भी पेड़ गिरने की वजह से टूट गया था. घर में पूरा पानी जमा था और सामान मलबा में बदल गया था. मेरा लैपटॉप बैग भी पानी में डूबा हुआ था और मेरा सारा इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी खराब हो गया था. लेकिन ये समय शिकवा-शिकायत का बिल्कुल भी नहीं था.

अगले दो दिनों तक हमलोग मिलकर घर को साफ करने में और ठीक करने में लगे रहे. इलाके में न बिजली थी न सड़क, न किसी से कम्युनिकेट करने के लिए मोबाइल या टेलीफोन. खाने के लिए भी कुछ नहीं बचा था. दो दिन बाद इलाके में स्थानीय एमएलए आए तब जाकर कुछ खाने का सामान लोगों को मिला और राहत और बचाव काम सही से शुरू हो पाया.

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

चार दिन बाद जब रोड सही हुआ, कुमार अन्ना ने कहा कि वह मुझे मेरे घर तक छोड़ आएंगे. उन्होंने कही से सोलर पावर से चार्ज होने वाले एक फोन का इंतजाम किया, ताकि मैं अपने घरवालों को कॉल कर ये बता दूं कि मैं ठीक हूं. घर जाने के रास्ते में मैंने देखा सबकुछ खत्म हो चुका था. जहां पर पहले काफी घर और पेड़ पौधे होते थे, वहां पर सिर्फ मलबे का ढेर था. सड़क किनारे लोग खाने और कपड़े की सहायता के लिए हाथ जोड़े खड़े थे.

(फोटो: अपर्णा शुक्ला)

जब मैं अपने घर पर पहुंचा तो वहां कि तबाही देखकर मैं हैरान रह गया. घर के दरवाजे टूटे हुए थे. सभी जरूरी सामान और सर्टिफिकेट घर से कहीं गायब हो चुके थे. ऐसा लग रहा था मानो सबकुछ खत्म हो गया. ये सब देखकर मेरा बुरा हाल हो रहा था. किसी तरह मेरे पेरेंट्स और मैंने अपने घर को ठीक किया. अगले दिन मैं वॉशरूम में बंद करके काफी समय तक रोती रही. लेकिन अब कर भी क्या सकती थी. हमारे पास कोई ऑप्शन नहीं था. तबाही मची थी लेकिन हम किस्मत वाले थे के हमारा परिवार और हम सुरक्षित थे. लेकिन काफी लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने सामान खोने के साथ अपनों को भी खोया.

कुछ घंटों के लिए आया ये तूफान हम सब की जिंदगी तबाह करके चला गया. इलाके में कुछ भी नहीं बचा. न खाने का सामान, न पहनने के लिए कपड़े, न रहने के लिए घर. हर तरफ से भले ही मदद मिल रही है, लेकिन चीजों को फिर से पटरी पर लाने के लिए काफी मदद की जरूरत है.

मैं आपसे सब से अपील करती हूं कि जितना संभव हो आप मदद कीजिए. आपकी तरफ से दी गई छोटी-छोटी राशि भी हमलोगों के लिए काफी मदद का काम करेगा. मैंने milaap.org के साथ मिलकर इस इलाके को फिर से पटरी पर लाने के लिए डोनेशन कैंपेन चला रहा हूं. आपसे निवेदन है कि फिर लोगों को फिर से बसाने में मदद कीजिए और उनके लिए मदद कीजिए.

(ये लेख अपर्णा शुक्ला ने हमें भेजा है. My Report कैंपेन के तहत इसे पब्लिश किया गया है.)

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