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1998 से अब तक देश ने तीन प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व में कई सरकारों को देखा है. जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी की नतृत्व में एनडीए, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए और वर्त्तमान में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की पूर्ण-बहुमत की सरकारें शामिल हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 16 साल चले गठबंधन के सरकारों से लोग उब चुके थे. देश में मौजूद सभी समस्याओं को गठबंधन सरकार के नाकामियों से जोड़कर देखा जाने लगा था और गठबंधन सरकार, कमजोर सरकार की प्रयायवाची बन गयी. इसका असर 2014 के आम चुनाव में भी दिखा. 30 साल बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी 282 सीटें जीतकर देश की सत्ता पर विराजमान हुई.
मेरे जैसे लोगों ने पहली बार एक पार्टी को बहुमत वाली सरकार को बनते देख रहे थे. लोगों के साथ मुझे भी इस सरकार से बड़ी उम्मीदें थी. अब इस सरकार के पांच साल पुरे हो गये हैं और अगले आम चुनाव का ऐलान भी हो गया है, मगर एक पार्टी के बहुमत वाली ‘मजबूत’ सरकार का जब हम गठबंधन वाली ‘कमजोर’ सरकार के साथ तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो उम्मीदें और वास्तविकताओं में फर्क दिखता है. जैसे ‘कमजोर’ सरकार को हमने पोखरण परमाणु परीक्षण और अमेरिका के साथ भारत के परमाणु समझौता जैसे साहसिक फैसले लेते देखें हैं, तो ‘मजबूत’ सरकार का नोटबंदी जैसा बेतुका फरमान भी देखा है.
आरटीआई जैसे एतिहासिक कानून को बनते और अनेक भ्रष्टाचार पर से हमने पर्दा उठते देखा है तो इस सरकार को ओएसए के छतरी में छुपकर राफेल डील के जानकारियों को छुपाते भी देखा है। क्षेत्रीय जरुरत को ध्यान में रखते हुए झारखंड, उतराखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के रूप में भारत के संघीय ढांचा को मजबूत होते देखा तो इस सरकार में एनआरसी बिल के रूप में उत्तर-पूर्वी राज्यों के हित को नकारते भी देखा है.
अगर कुल मिलाकर देखें तो गठबंधन की सरकार को भले कमजोर माना जाता हो, मगर आंकड़े बताते हैं कि स्थिर गठबंधन के सरकारों ने अभी मौजूद एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार के तुलना में हर मोर्चे पर बेहतर नेतृत्व दिया है. भारत जैसे विशाल देश में गठबंधन सरकार न सिर्फ बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है, बल्कि शक्ति को विकेंद्रीकृत कर पारदर्शी शासन देकर लोकतंत्र के जड़ों को और मजबूत करती है.
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