मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019My report  Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019उन्नाव-हैदराबाद कांड से पैदा हालात बॉलीवुड ने पहले ही भांप लिया था

उन्नाव-हैदराबाद कांड से पैदा हालात बॉलीवुड ने पहले ही भांप लिया था

ये दोनों घटनाएं भले ही हाल फिलहाल की हों लेकिन सिनेमा ने इन घटनाओं से उपजे हालातों को 37 साल पहले ही समझ लिया था.

हृदेश सिंह
My रिपोर्ट
Published:
उन्नाव-हैदराबाद की वारदात से पैदा हुए हालात बॉलीवुड ने पहले ही भांप लिया था
i
उन्नाव-हैदराबाद की वारदात से पैदा हुए हालात बॉलीवुड ने पहले ही भांप लिया था
(फोटो: Lijumol Joseph/The Quint)

advertisement

हैदराबाद और उन्नाव की घटनाओं ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है. महिलाओं के साथ हो रही घटनाओं को लेकर पूरे देश में आक्रोश का माहौल है,लोग सड़कों पर उतर कर प्रर्दशन कर रहे हैं. हर जुबान पर इन्हीं दोनों घटनाएं की चर्चा है. ये दोनों घटनाएं भले ही हाल फिलहाल की हों लेकिन भारतीय सिनेमा ने इन घटनाओं से उपजे हालातों को 37 साल पहले ही समझ लिया था.

देश में सिनेमा मनोरंजन का सबसे मजबूत माध्यम माना जाता है,यही वजह है कि सिनेमा का असर भी लोगों पर सबसे अधिक होता है. शायद इसीलिए साहित्य और सिनेमा को समाज का आईना भी कहा गया है,ये बात सही भी है. सिनेमा संचार का बेहतर माध्यम है. आजादी के बाद जब देश अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था तो इसको बनाने और संवारने में सिनेमा ने अपना बड़ा योगदान दिया.लोगों की सोच को बदलने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. चलचित्रों के जरिए सिनेमा ऐसी कहानियां और किरदारों को लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहा था जो देश की तरक्की के लिए जरूरी थे.

अच्छे सिनेमा को देश ने हमेशा से ही सराहा है, सिनेमा ने भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समय-समय पर दिखाई है. दादा साहेब फाल्के से लेकर करन जौहर तक के दौर में संजीदा सिनेमा कहीं न कहीं नजर आ ही जाता है. किसानों की पीड़ा हो, मजदूरों का दर्द, साहूकार के चुंगल में फंसी जिंदगी या फिर महिलाओं पर होने वाले अत्याचार, हर मोर्चे पर भारतीय सिनेमा मजबूर और मजलूमों के साथ खड़ा नजर आता है.

कह सकते हैं कि भारतीय सिनेमा ने जनता की भावनाओं को समझा है. गरीब की लाचारी और आम आदमी की दुश्वारी को हमेशा सिनेमा ने सिल्वर स्क्रीन पर उसकी मूल आत्मा को पेश किया है.

देश में सामाजिक सरोकार से जुड़े सिनेमा की बात आती है तो सोहराब मोदी,मेहबूब खान,विमल रॉय,ख्वाजा अहमद अब्बास,नितिन बोस,ऋषिकेश मुखर्जी,बीआर चोपड़ा,राजकपूर,बासु चटर्जी,गुलजार श्याम बेनेगल,गोविंद निहालानी,मनोज कुमार,राजकुमार संतोषी,राजकुमार हिरानी,अनुराग कश्यप,तिग्मांशु धुलिया,इमित्याज अली,मधुर भंडारकर आदि ऐसे नाम हैं जिन्होने आजादी के बाद देश के नवनिर्माण में अपना योगदान ही नहीं दिया बल्कि अशिक्षा और गरीबी से जूझ रही जनता को एक नजरिया भी दिया उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, निराशा से उम्मीद की तरफ ले जाने में इन फिल्म निर्देशकों का बहुत बड़ा योगदान है.

सिनेमा और समाज अलग नहीं हैं...

सिनेमा और समाज अलग नहीं है. इसे दिखाने और देखने के तरीके अलग हो सकते हैं लेकिन इसके नेप्थ्य में कहीं न कहीं वहीं आदमी है जो हमारे भीतर है या हमारे ईदगिर्द मौजूद. हैदराबाद और उन्नाव की घटनाएं समाज को शर्मसार करने वाली है. जो देश चांद और मंगल पर पहुंचने की तैयारी में है, उस समाज में ऐसी घटनाएं बताती है कि दिमागी तौर पर विकास की प्रक्रिया किस हद तक मंद है.

लोगों को विकास की परिभाषा को समझना होगा. मकान और सड़कें बना देने को महज विकास नहीं कहा जा सकता है,सही मायने में विकास वो है जो लोगों के दिमाग को विकसित करे.लोग जब जेहनी तौर पर विकास करेंगे, तब विकास होगा. और तभी भारत पुन: विश्व गुरु बनेगा. देश का सम्मान बढ़ाने में हमेशा भारतीय सिनेमा ने अपना योगदान दिया है. दुनिया भर में अगर भारत की प्रतिभा का लोहा माना जाता है तो इसमें कहीं न कहीं सिनेमा का भी बड़ा योगदान है. भारतीय सिनेमा हमेशा से ही गंभीर और जनउपयोगी माना गया है.

'शक्ति' और 'सत्या' बड़े उदाहरण

देश के मौजूदा हालातों को सिनेमा ने बहुत पहले ही भांप लिया था. आज की इस स्थिति को समझने के लिए 1982 में प्रदर्शित हुई रमेश सिप्पी की फिल्म 'शक्ति' और इस फिल्म के 16 साल बाद आई रामगोपाल वर्मा की 'सत्या' फिल्म को याद करना होगा.यह फिल्म 1998 में आई थी. ये दो अलग अलग फिल्में है जिनकी कहानी और कालखंड अलग है लेकिन इसके मूल में जो समानता है वो है अपराध. कानून और अपराध के फर्क को समझने के लिए इन दो फिल्मों के संवाद को समझें.

फिल्म शक्ति के उस सीन को याद करें जिसमें अभिनेता दिलीप कुमार के सामने अमिताभ बच्चन खडे़ हैं. इस सीन में दिलीप कुमार अमिताभ बच्चन से कहते है कि ‘बकवास बंद करो अगर कानून की हिफाजत करने वाले और कानून तोड़ने वाले में तुम फर्क नहीं जानते तो जाओ अपने दिमाग का इलाज कराओ.’

इसके बाद रामगोपाल वर्मा की 'सत्या' फिल्म के उस दृश्य को याद करें. जिसमें मंत्री का किरदार निभा रहा एक चरित्र अभिनेता पुलिस कमिश्नर बने अभिनेता परेश रावल से कहता है कि 'प्रजातंत्र में जनता को कुछ मूलभूत आजादियां दी हैं, मगर अब तो हद हो चुकी है. सरेआम मारपीट,गुंडागर्दी. जनता त्रस्त होने लगी है. वो कानून किस काम का जो जनता की ही रक्षा ना कर सके. कमिश्नर साहब आपको मेरी तरफ से पूरी छूट है कुछ भी करें.लेकिन यह शहर साफ होना चाहिए.'

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT