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न्याय में विलंब: पीड़ितों के जख्म पर नमक छिड़कती वकीलों की हड़ताल पर समाधान क्या?

वादियों को कानूनी प्रक्रिया में रुकावट के कारण न तो समय से न्याय मिल पा रहा है, न ही उनकी पीड़ा का कोई तारणहार है.

चैतन्य नागर
Members Opinion
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<div class="paragraphs"><p>न्याय में विलंब: पीड़ितों के जख्म पर नमक छिड़कती वकीलों की हड़ताल, समाधान क्या?</p></div>
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न्याय में विलंब: पीड़ितों के जख्म पर नमक छिड़कती वकीलों की हड़ताल, समाधान क्या?

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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(यह आर्टिकल क्विंट हिंदी के एक मेंबर द्वारा लिखा गया है. हमारा मेम्बरशिप प्रोग्राम उन लोगों को कई अन्य फायदों के साथ, विशेष 'मेंबर्स ओपिनियन' सेक्शन के तहत क्विंट पर आर्टिकल पब्लिश करने की अनुमति देता है, जो पूर्णकालिक पत्रकार या हमारे नियमित कंट्रीब्यूटर नहीं हैं. हमारी मेम्बरशिप क्विंट हिंदी के किसी भी पाठक के लिए खुली और उपलब्ध है. आज ही मेंबर बनें और हमें member@thequint.com पर अपने आर्टिकल भेजें.)

न्याय की बात जहां आती है, वहां कुछ बड़ी सैद्धांतिक (Judicial System) बातें सामने आने लगती हैं. मसलन न्याय में देरी अन्याय है, वादकारी का हित सर्वोच्च है वगैरह-वगैरह...पर जब इसे हम व्यवहार में देखते हैं तो ठीक इसके विपरीत दृश्य नजर आता है. प्रोसिडिंग में खामियों के अलावा, सिस्टम में कदाचार, भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के साथ विशेषकर बड़े वकीलों की कुटिलता से किसी मामले को अनंत काल तक लटकाए रखने और न्याय में विलंब होने और ‘तारीख पर तारीख’ की त्रासदी सामने आती है.

सनी देओल का फिल्मी डायलॉग 'तारीख पर तारीख' अब रोजमर्रा की भाषा का हिस्सा बन गया है और न्यायपालिका पर हमला करने के लिए तो यह सत्ता पक्ष का जुमला बन गया है.

वादियों को कानूनी प्रक्रिया में रुकावट के कारण न तो समय से न्याय मिल पा रहा है, न ही उनकी पीड़ा का कोई तारणहार है. वे न्याय प्रणाली के अंतिम पायदान पर असहाय पड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं.

यही कारण है कि समाज में मौके पर ही न्याय की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से में ऐसे मामले सामने आ रहे हैं.

न्याय प्रणाली की कानूनी जटिलताओं के कारण ही संभवत वकीलों का समावेश न्याय प्रणाली में हुआ होगा, जिससे वादकारियों को सही न्याय मिल सके. वैसे तो सुप्रीम कोर्ट हो या हाईकोर्ट प्रति व्यक्ति न्यायाधीशों की संख्या अत्यंत सीमित होने के कारण मुकदमों के निपटारे में देरी होती है.

निचली अदालत में वादकारियों को न्याय मिलने में अत्यंत पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है और वे व्यवस्थागत उत्पीड़न (systemic oppression) के शिकार बनकर रह जाते हैं. उनका इतना अधिक सामाजिक, आर्थिक और मानसिक शोषण होता है कि आम तौर पर लोग पुलिस, अदालत जाने के नाम से ही घबराने लगते हैं, साथ ही कुछ लोगों में कानून अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है.

सत्र न्यायालय में या निचली अदालतों में यह अनुभव बड़ा ही कडवा और पीड़ादायक होता है. अदालत में काम-काज सर्दी की हाड़ कंपा देने वाली सुबह में शुरू होने का समय होता है, सुबह करीब साढ़े दस बजे मुकदमा लड़ने वाले दोनों पक्षों के प्रतिनिधि करीब सौ या तीन सौ किमी की दूरी से भी ठिठुरते-कांपते, अपना टिफिन पैक कर के अदालत तक पहुंचते हैं.

अदालत कक्ष के बाहर की ठंडी जमीन या थोड़े खुशनसीब हुए तो किसी बेंच पर बैठ जाते हैं. बेंच भी स्टील की होती है, जो बाहर की ठंड को अपने भीतर सोख लेती है. जब न्याय की गुहार लगाते लोग घंटे, दो घंटे इंतजार कर चुके होते हैं, तब उन्हें पता चलता है कि आज तो ‘स्ट्राइक’ है.

आम तौर पर लोगों को समझ नहीं आता कि यह ‘स्ट्राइक’ या हड़ताल किसलिए है. बताया जाता है कि यह स्ट्राइक वकीलों की तरफ से है. निचले स्तर पर न्यायिक कार्य को जैसे वकीलों ने हाईजैक किया हुआ है. कभी-कभी किसी केस को जबरदस्ती लंबा खींचने के लिए भी वकील ऐसा करते हैं. यह फैसला अधिवक्ता संघ के ताकतवर वकील करते हैं.

कभी अपने व्यक्तिगत कारणों से भी, वे हड़ताल की घोषणा कर देते हैं. सजा के करीब आ चुके अभियुक्त को बचाने के लिए कुछ और तिकड़म करने का समय मिल जाए, इसलिए भी ऐसा किया जाता है. ऐसी हड़ताल को एक सामान्य, साधारण घटना माना जाता है. दूर-दराज से आए लोग चुपचाप अपने घरों को वापस लौट जाते हैं. कल या अगली तारीख पर जब वे आएंगे तो फिर से हड़ताल होगी या नहीं, उन्हें खबर नहीं होती. भय बना रहता है कि फिर से यही कहानी दोहराई जा सकती है.

न्यायपालिका लोकतंत्र का तीसरा सबसे अहम स्तंभ है. सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के बावजूद आए दिन निचली अदालतों में वकीलों की हड़तालें जारी हैं. वकील हड़ताल पर जाकर स्वयं उसी सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ जाते रहते हैं, जो न्याय का सर्वोच्च प्रतीक है.

संविधान का अनुच्छेद 21 यह वादा करता है कि आम आदमी को जल्दी से जल्दी न्याय मिलेगा और इन आकस्मिक हड़तालों से संविधान का भी उल्लंघन होता है.

अवैध है वकीलों की हड़ताल 

संवैधानिक नियमों के अनुसार, हड़ताल करने का अधिकार मौलिक अधिकार है. संविधान के भाग III द्वारा संघ गठित करने की स्वतंत्रता का अधिकार 19 (सी) दिया गया है, जिसके तहत सामान्य हित को कायम रखने वाले लोगों का एक समूह एकजुट हो सकता है और अपने अधिकारों की मांग कर सकता है.

हालांकि, अनुच्छेद 19 के तहत संघ निर्मित करने की स्वतंत्रता एक पूर्ण अधिकार नहीं है, इस पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए गए हैं.

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने अपने विभिन्न फैसलों में यह स्पष्ट कर दिया था कि वकीलों की हड़ताल अवैध है और इसकी बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए.

पूर्व कैप्टन हरीश उप्पल बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया ऐतिहासिक फैसला कुछ इस तरह है:

न्यायालय ने माना कि वकीलों को हड़ताल पर जाने या बहिष्कार का आह्वान करने का कोई अधिकार नहीं है. सांकेतिक हड़ताल पर भी जाने का भी अधिकार नहीं. विरोध यदि आवश्यक है, तो केवल प्रेस वक्तव्य, टीवी साक्षात्कार, अदालत परिसर के बाहर बैनर और/या तख्तियां लेकर, काली या सफेद या किसी भी रंग की पट्टी पहनकर, अदालत परिसर के बाहर और दूर शांतिपूर्ण विरोध मार्च आदि करके ही किया जा सकता है.
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हुसैन बनाम भारत संघ के एक अन्य ऐतिहासिक मामले में अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वकीलों की हड़ताल और अदालत का निलंबन गैरकानूनी है. अब समय आ गया है कि कानूनी बिरादरी समाज के प्रति अपने कर्तव्य का एहसास करे, जो सबसे महत्वपूर्ण है.

बार काउंसिल ऑफ इंडिया की भूमिका

अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 4 में बार काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना के बारे में उल्लेख किया गया है. आगे की धारा 7, जिसमें खंड (बी) बीसीआई को अधिवक्ताओं के पेशेवर आचरण और शिष्टाचार के मानक निर्धारित करने की शक्ति देता है.

अदालतों के फैसलों के मुताबिक, बीसीआई को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वकील हड़ताल और विरोध प्रदर्शन में शामिल न हों. हालांकि, ऐसे उदाहरण हैं, जहां बीसीआई ने स्वयं वकीलों को हड़ताल के लिए बुलाया था.

पूर्व कैप्टन के मामले में सुनाया फैसला हरीश उप्पल बनाम भारत संघ और अन्य, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि “वकीलों को हड़ताल करने का कोई अधिकार नहीं है”. केवल दुर्लभ से दुर्लभ मामलों में जहां बार और/या बेंच की गरिमा, अखंडता और स्वतंत्रता मुद्दे हैं, अदालतें एक दिन से अधिक के लिए काम छोड़कर विरोध को नजरअंदाज कर सकती हैं.

कोर्ट की पनाह में आए लोगों को जल्दी मिले न्याय

न्यायपालिका का मौलिक कर्तव्य उन लोगों की सेवा करना है, जो अपने लिए न्याय मांग रहे हैं और ऐसा करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इसकी प्रत्येक ब्रांच को एक-दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए.

सिस्टम की कोई भी कमी संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त त्वरित सुनवाई के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगी. इसलिए वकीलों के हड़ताल के आह्वान से न्यायपालिका के कामकाज पर प्रतिकूल असर पड़ता है. बार-बार होने वाले विरोध और हड़ताल से न्याय प्रशासन में बाधा आती है, जिससे मामलों की सुनवाई में देरी होती है और अंततः मामले लंबित हो जाते हैं.

पर वकीलों की शिकायतों का समाधान क्या?

वकीलों की हड़तालों पर लगाया गया प्रतिबंध उचित है क्योंकि हड़तालों के परिणाम न्यायपालिका की जड़ों को कमजोर कर रहे हैं पर अधिवक्ताओं के हितों की रक्षा करना भी महत्वपूर्ण है, ताकि कानूनी प्रणाली की कार्यप्रणाली संतुलित रहे.

अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 7 खंड (डी) अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया के कार्यों की व्याख्या करती है. इसलिए नियमों का पालन करते हुए वकीलों की शिकायतों को सुना जाना चाहिए और आगे कदम उठाए जाने चाहिए, उनके मुद्दों से निपटें, जिनका वे सामना कर रहे हैं.

भारत के विधि आयोग की 266वीं रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि प्रत्येक जिला मुख्यालय पर जिला न्यायाधीश एक न्यायिक अधिकारी की अध्यक्षता में एक अधिवक्ता शिकायत निवारण समिति का गठन कर सकते हैं, जो बड़ी संख्या में रोजमर्रा के मामलों से निपटेगी.

कुछ ऐसे पेशे हैं, जिनका उद्देश्य बड़े पैमाने पर समाज की सेवा करना है. कानूनी पेशा उनमें से एक है, जिसे बिना किसी देरी के लोगों को न्याय प्रदान करने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है.

वकीलों को अपनी शिकायतों के समाधान की मांग करने का अधिकार है, लेकिन अपने मुवक्किल के अधिकार की कीमत पर नहीं, जिन्हें ऐसी हड़तालों के कारण परेशानी उठानी पड़ती है. जिससे लोगों को न्याय देने की प्रक्रिया में देरी होती है.

सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने कहा कि एक मंच प्रदान करने के लिए जिला न्यायालय स्तर पर एक अलग शिकायत निवारण समिति का गठन किया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने 20 अप्रैल, 2023 को स्पष्ट किया कि 'वकील हड़ताल पर नहीं जा सकते, न ही न्यायिक कार्यों से विरत रह सकते हैं'.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम आर शाह और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की अध्यक्षता वाली एक बेंच ने कहा कि जिला अदालत स्तर पर भी एक अलग शिकायत निवारण समितियों का गठन किया जाना चाहिए. वकील यहां भी वास्तविक शिकायतों के मामलों को दर्ज कर सकते हैं.

पीठ ने कहा है कि बार का कोई भी सदस्य हड़ताल पर नहीं जा सकता है. अदालत का कहना है कि वकीलों के हड़ताल के कारण न्यायिक कार्य बाधित होता है पर जमीनी हकीकत क्या है, यह उनसे पूछा जाना चाहिए, जो न्याय के लिए बरसों तक भटकते रहते हैं.

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Published: 25 Jan 2024,04:43 PM IST

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