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जादू की झप्पी और सर्जिकल स्ट्राइक दोनों ही अपनी जगह आदर्श विचार हैं. हम आदर्श विचारों की बात तो कर सकते हैं, लेकिन असल जिंदगी किसी फिल्म की पटकथा नहीं होती. खासकर, दो देशों के बीच के संबंध तो बिल्कुल ऐसे नहीं होते. अलग-अलग मुल्कों के अपने फायदे नुकसान हैं. आपसी संबंधों को लेकर अलग-अलग सोच है.
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के धागे इस कदर उलझे हुए हैं कि दो देशों के मामले उनके बीच तक ही सिमित नहीं रहते, वैश्विक मंचों तक पहुंचते हैं. और इनके धागे तो बाजार तक से जुड़े होते हैं. ऐसी स्थिति में बातचीत ही एक ऐसा तरीका है, जो किसी समुचित हल की शक्ल तैयार कर सकता है.
छोटी मोटी लड़ाई हो या फिर जंग हो, नुकसान लड़ने वाले दोनों ही देशों को होना है. लेकिन यह सोचना भी कि दो देशों के बीच हमेशा सद्भाव बना रहे, महज कोरी कल्पना है. स्थितियां बदलती रहती हैं. झड़पें होती रहती हैं. युद्ध के असार भी बनते हैं, लेकिन ऐसी स्थिति में भी अटल जी का मानीखेज कथन, “आप मित्र तो बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं", नहीं भूला जाना चाहिए. हमेशा सर्वश्रेष्ठ प्रयास इस दिशा में होना चाहिए कि तनाव को कम से कमतर किया जा सके.
इसका ये मतलब कतई नहीं कि युद्ध के मैदान में सत्याग्रह किया जाए या फिर किसी मुश्किल स्थिति में जंग छेड़ दिया जाए. परमाणु शक्तियों से लैस देशों के लिए युद्ध किसी समस्या के समाधान से अधिक विनाश की तैयारी ज्यादा लगता है. ऐसी स्थिति में, बुद्ध के माध्यम मार्ग के उपदेश को अपनाया जाए तो सबसे बेहतर होगा. यानी कि रिश्ते चाहे अच्छे हों या बुरे, बातचीत की मेज कभी खाली न रहे. हम देख रहे हैं कि पुलवामा के आतंकी हमले से शुरू हुआ नफरत का खेल सियासी अखाड़े में बदल गया है.
चुनावी मौसम में सत्तारूढ़ दल मतदाताओं को यह दर्शाने की कोशिश में लगा हुआ है. वह आतंक और पाकिस्तान के खिलाफ बेहद शख्त है. इस दिखावे की कोशिश में वह युद्ध लड़ने तक को तैयार हैं.
भारतीय वायुसेना के कुछ विमान पकिस्तान के बालाकोट में जाकर बमबारी करते हैं. एक सवाल जो पूछा जा सकता है वह ये कि "क्या वायुसेना के कुछ मिनटों की कार्यवाई से आतंकवाद खत्म हो जाएगा?" अगर हां, तो फिर तो पिछली सर्जिकल स्ट्राइक के बाद ही आतंकवाद खत्म हो जाना चाहिए था जो की नहीं हुआ.
युद्ध का उन्माद इस हद तक रहा कि लोगों ने सरकार से ये सवाल तक नहीं किया कि "पुलवामा में आतंकी घुस कैसे गए?" अपना गढ़ मजबूत करने के बजाय दूसरों पर आरोप मढ़ना बेवकूफी नहीं तो क्या है? सियासत ने अपनी विफलता पर एक और स्ट्राइक की चादर डाल दी है और हैरत की बात ये है कि कोई उसके अंदर नहीं देख रहा. सब बाहरी छालावे पर ही मुग्ध हैं. बातचीत की मेज और भारी कुटनीतिक घेराबंदी ही वे दो रास्ते हैं. जिनसे होकर हम पाकिस्तान और वहां से होने वाले आतंकी हमलों से खुद को महफूज करने की अपनी मंजिल तक पहुंच सकते हैं.
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