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जब मुन्नाभाई एमबीबीएस सिनेमाघरों में लगी थी, तब मैं बाल्यकाल से किशोरावस्था की ओर बढ़ चुका था. ‘जादू की झप्पी’ के विभिन्न प्रयोग करके देखने का वो सुनहरा अवसर था. झप्पियों के मिलने से यकीनन मेरे जीवन में खुशहाली पहले की तुलना में अधिक हो गई थी. आपसी मतभेदों को दूर करने के लिए "गांधीगिरी और जादू की झप्पी" सचमुच रामबाण है.
इस निबंध के शीर्षक वाला प्रश्न तब भी मेरे और अन्य सहपाठियों के बीच चर्चा का केंद्र रहा करता था. मैं बहस में पिछड़ जाता था और इसके पीछे फिल्म रिलीज से चंद रोज पहले भारतीय संसद पर हुए हमले का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है.
सही मायनों में देखा जाए तो दोनों देशों के पास एक दूसरे से गले मिलकर गिले-शिकवे दूर करने के कई अवसर आए. फरवरी 1999 में अटल जी पाकिस्तान के दौरे पर थे, तब वे और उनके समकक्ष नवाज शरीफ बड़ी आत्मीयता से गले मिले थे. इसी दौरे पर ‘लाहौर घोषणा’ भी की गई थी. पर चंद महीने ही बीते थे कि ‘कारगिल युद्ध’ ने दोनों देशों के बीच अविश्वास की गहरी खाई खोद दी.
समय बीता और पाकिस्तान में तख्तापलट हुआ. पड़ोसी देश में लोकतंत्र धराशायी हो गया. जनरल मुशर्रफ 'साहब' ने सत्ता हथिया ली. इस बुरे दौर में भी दोनों देश फिर करीब आए थे. सेना शासित पाकिस्तान के जनरल मुशर्रफ और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री अटल जी के बीच वर्ष 2001 में, प्रेम की प्रतीक नगरी 'आगरा' में मुलाकात आयोजित की गई थी. एक बार फिर से लगने लग गया था कि ‘अमन की आशा’ वापस आ गई है.
इन घटनाओं को देखकर, इनके बारे में पढ़कर मेरा दिल भी दहल जाता है, लेकिन महाविनाश के मुहाने तक ले जाने वाली ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ या ऐसे किसी भी बल प्रयोग से ये घटनाएं रुक जाएंगी, ऐसा प्रतीत होता भी नजर नहीं आता. अगर दोनों देश के लोग धार्मिक अलगाव भुलाकर एक दूसरे को ‘झप्पियां’ देना शुरू कर दें तो इतनी बड़ी समस्या चुटकियों में सुलझ जाएगी. लोगों के आपस में घुलने मिलने से सरकारें भी एक दूसरे के करीब आएंगी.
पाकिस्तान के इतने प्रयासों के बाद भारत सरकार के पास उसे अपनाने के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता न बचेगा. अंत में, मैं पुनः दोहराना चाहता हूं कि ‘महाविनाश’ और ‘जादू की झप्पी’ के बीच मैं ‘जादू की झप्पी’ को ही प्राथमिकता दूंगा.
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