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“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा...''
बिहार विधानसभा के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थित 'शहीद-स्मारक' की वर्त्तमान दशा को देख कर सहसा इन ऐतिहासिक पंक्तियों का स्मरण बेईमानी सी लगती है. दरअसल इस स्मारक के बाहरी घेरे को बड़े ही बेरहमी से विभिन्न राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों द्वारा अपने प्रचार-प्रसार हेतु बैनरों-पोस्टरों को लगाने के लिए निरंतर प्रयोग में लाया जा रहा है.
बैनरों-पोस्टरों से इस पवित्र स्थल को पाटने की होड़ सी लगी हुई है. मानों यह स्थल इनके लिए सिर्फ इसी मायने के लिए है. इन बैनरों-पोस्टरों के बीच शहीदों की प्रतिमाएं एक ओर अपनी पहचान को तरसती नर आ रही हैं, दूसरी ओर हमारी नई पीढ़ी को भी गलत संदेश जा रहा है.
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बिहार विधानसभा भवन के ऊपर भारतीय तिरंगा फहराने के प्रयास में मारे गए इन शहीदों के सम्मान में, बिहार के पहले राज्यपाल जयरामदास दौलतराम ने 15 अगस्त, 1947 को इस स्मारक की नींव रखी थी. प्रख्यात मूर्तिकार देवी प्रसाद राय चौधरी द्वारा इन भव्य आदमकद मूर्तियों को इटली में बनाकर यहां लगाया गया था.
11 अगस्त, 1942 की शाम को पटना स्थित सचिवालय पर तिरंगा फहराने के इरादे से ओत-प्रोत इन क्रांतिकारियों पर जिले के कलेक्टर आर्चर ने गोली चलवा दी. इस गोलीकांड में सभी सात क्रान्तिकारी शहीद हुए और अनेकों घायल हो गए. 'शहीद-स्मारक' इन्हीं सात शहीदों की स्मृति में बनाया गया है. ये सभी क्रांतिकारी विद्यार्थी थे. शहीद होने वाले सात क्रांतिकारियों के नाम इस प्रकार हैं-
आज पूरा देश जहां 'जय भारत, जय हिंद', 'वंदे मातरम्' तथा 'भारत माता की जय' की प्रासंगिकता तलाशने में जुटा है, वहीं शहीदों के प्रति ऐसी संवेदनहीनता अत्यंत चिंतनीय विषय है. सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि शहर के अतिविशिष्ट स्थल पर स्थित इस 'शहीद-स्मारक' की दुर्गति पर अब तक राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं, प्रशासनिक अधिकारियों तथा बुद्धिजीवियों ने कभी कोई पहल नहीं की.
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