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राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इन चुनावों में आदिवासी वोट बैंक की खासी अहमियत रहने वाली है। इसे दोनों ही राजनैतिक दल बेहतर तरीके से जानते हैं, क्योंकि राज्य में आदिवासी वोट का प्रतिशत लगभग 23 प्रतिशत है। राज्य की 230 विधानसभा सीटों में से इस वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 47 है मगर 84 सीटें ऐसी हैं जहां यह वर्ग चुनाव परिणाम को प्रभावित करता है।
दोनों ही राजनीतिक दल चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, यह मानकर चल रहे है कि अगर इस वर्ग का दिल जीत लिया, तो सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना आसान हो जाएगा। कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा 23 नवंबर को मध्यप्रदेश आ रही है और यह यात्रा 13 दिन राज्य के निमाड़-मालवा इलाके से होकर गुजरने वाली है। यह वही इलाका है जिसमें से एक बड़ा हिस्सा जनजातीय वर्ग बाहुल्य का है। कुल मिलाकर सियासी तौर पर कांग्रेस की नजर आदिवासी वोट बैंक पर है।
एक तरफ जहां कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा के जरिए आदिवासियों को लुभाने की कोशिश में जुटी है तो दूसरी ओर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार ने पेसा कानून को लागू कर आदिवासियों को और ताकतवर बनाने का दावा ठोक दिया है। इतना ही नहीं पेसा कानून के प्रति जागृति लाने के लिए आदिवासी क्षेत्रों में सम्मेलनों का दौर भी भाजपा की ओर से शुरू कर दिया गया है।
दोनों ही राजनीतिक दल इस बात को जानते हैं कि आदिवासी वोट बैंक को लुभाया जा सकता है और यही कारण है कि इसके लिए अभी से राजनीतिक दांवपेच शुरू हो गए हैं। अब तक यही सामने आया है कि राज्य में जिस भी राजनीतिक दल को आदिवासियों का साथ मिला, उसने सत्ता हासिल की। इस बात की गवाही पिछले चुनाव भी हैं। वर्ष 2013 में जहां 47 सीटों में से भाजपा को 31 सीटें मिली थी और वह सत्ता में आई थी तो वहीं वर्ष 2018 के चुनाव में इन 47 सीटों में से कांग्रेस को 30 सीट मिली थी और सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई थी।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राज्य की राजनीति में आदिवासी वोट बैंक की खासी अहमियत है, इस वोट बैंक के जरिए सत्ता का रास्ता आसान भी होता है। यही कारण है कि दोनों राजनीतिक दल सबसे ज्यादा जोर इसी वर्ग पर लगा रहे हैं क्योंकि इस वर्ग को लुभाना दीगर वर्गों की तुलना में आसान जो है।
--आईएएनएस
एसएनपी/एसकेपी
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