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आज हार न मानने की भावना एक असाधारण चीज है. दैनिक जीवन में जो अनगिनत चुनौतियां आती हैं, उसके बारे में सब शिकायत करते हैं, उससे हर कोई वाकिफ है. यहां तक कि एक वैश्विक महामारी भी लोगों के अंदर एक हीन भावना पैदा करती है कि ये समस्या मेरे साथ ही क्यों है और यह कब खत्म होगी? अधिकतर लोगों की यही प्रतिक्रिया होती है. लेकिन मैं एक ऐसे व्यक्ति की कहानी साझा करना चाहती हूं, जिसने 90 साल के जीवन में इनमें से कोई भी वाक्य नहीं बोला, जो मेरे अपने पिता, डॉ जवाहरलाल वैद हैं. उनके संस्मरणों पर आई किताब ''ए सेल्फ मेड सक्सेस स्टोरी-मेम्वॉर्स पर डॉ. जवाहरलाल वैद'' के कुछ खास हिस्से भी आपके सामने पेश करूंगी.
अगर मैंने इस प्रोजेक्ट को शुरू नहीं किया होता तो मैं शायद उस असाधारण साहस और धैर्य को कभी नहीं जान पाती, जिससे उन्होंने पेरशानियों का सामना किया. चार साल की उम्र में अपनी मां को टीबी के कारण खो दिया था.
आर्थिक समस्याओं की वजह से उच्च शिक्षा का कोई साधन नहीं था, कोई मार्गदर्शन नहीं था और आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता नहीं था. फिर भी जवाहरलाल वैद देश के सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों तक पहुंचने में कामयाब रहे और अपनी पीएचडी को पूरा करने के लिए भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु में दाखिला लिया.
किस आंतरिक शक्ति ने एक 17 साल के लड़के को अपनी जेब में 100 रुपये लेकर दिल्ली आने के लिए प्रेरित किया और आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया? बाद में किस तरह के आत्मविश्वास ने उन्हें सुरक्षित नौकरियों को अस्वीकार करने और सफल होने के लिए चुनौतीपूर्ण नए रास्ते तलाशने के लिए प्रेरित किया? जब सब कुछ दांव पर लगा था तो किस बात ने उन्हें निडर बना दिया और उन्होंने जोखिम उठाया? मेरे पिता डॉ. वैद की एक बात जो मुझे सबसे पसंद है, वो ये कि उन्होंने कभी मुश्किलों की शिकायत नहीं की.
मैंने IISc में बहुत सी चीजें सीखीं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम स्वतंत्र कैसे रहें. जो बात संस्थान आपको सिखाता है वह यह है कि दुनिया बहुत बड़ी है और आपको खुद पर विश्वास करने की जरूरत है. मेरे पूरे करियर के दौरान, मेरे अंदर यह नैतिक शक्ति संस्थान से आई कि यदि आप सही हैं, तो इसके लिए लड़ें.
मैं कभी नर्वस नहीं महसूस करता. ज्यादा से ज्यादा आप असफल होते हैं और फिर वापस जाकर कुछ और करते हैं.
मैं अपने एमएससी और आगे पीएचडी के लिए पुणा विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग में दाखिल हुआ. विभाग का नेतृत्व करने वाले प्रो. एस. के. जाटकर ने मुझे कुछ सलाह देने के लिए जून (1951) में बुलाया. मैं उनकी बातों को कभी नहीं भूला.
उन्होंने कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आप अपना एमएससी और पीएचडी प्राप्त करेंगे, आपका एकेडमिक रिकॉर्ड अच्छा है. लेकिन इस विश्वविद्यालय को, इस विभाग को, पुणे के बाहर दुनिया में कौन पहचानेगा? कोई भी नहीं. यह रसायन विज्ञान विभाग, पुणे विश्वविद्यालय उन लोगों के लिए है जो पुणे और उसके आसपास और महाराष्ट्र में रह रहे हैं. ये लोग अपने घरों से पढ़ने के लिए आते हैं और वापस चले जाते हैं. इसमें उनका कुछ भी खर्च नहीं होता है. आपने अपने घर से 2,000 मील की यात्रा की है, इतनी कठिनाई से आपने अपनी पढ़ाई पूरी की है. मैंने देखा कि 1947 में आप लाहौर में थे. इन सबके बाद आप यहां आए हैं, क्योंकि आपका भाई यहां एनसीएल में है. आपको बेंगलुरु में भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) जाना चाहिए?
मैंने झिझकते हुए जवाब दिया कि मैंने आईआईएससी के बारे में सुना था लेकिन वहां जाने का कोई साधन नहीं था और अब तक एडमिशन खत्म हो गया होगा. प्रो.जाटकर ने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा और मैंने सोचा कि वह आगे क्या करने जा रहे हैं.
उन्होंने अपनी मेज पर रखे पैड से एक साधारण प्लेन पेपर लिया और उस पर कुछ लिखा.
'प्रो कृष्णास्वामी, मैं इस लड़के को आपके पास भेज रहा हूं. यह एमएससी और पीएचडी करना चाहता है. कृपया आप इसे स्वीकार करें. यह लाहौर, दिल्ली, पंजाब के रास्तों से होते हुए आ रहा है और अब मैं इसे तुम्हारे पास भेज रहा हूं. इसका ख्याल रखना. उसके बाद उन्होंने हस्ताक्षर किया और नीचे एक नोट लिखा था.
'मुझे नहीं लगता कि इसके पास ज्यादा पैसा है, कृपया यदि संभव हो तो विभाग से उसकी आर्थिक मदद करें.'
प्रो. जाटकर ने मुझे यह कहते हुए दिया, "यह भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलुरु में आपका प्रवेश पत्र है.
मुझे अपनी आंखों और कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि पुणे में बैंगलोर से लगभग 800 मील दूर बैठे एक प्रोफेसर के पास यह अधिकार था कि वह किसी को प्रवेश दे सके और उस व्यक्ति को मुझे भर्ती करने के लिए निर्देश दे सके.
मेरे विभाग में लगभग 12 स्टाफ सदस्य, आठ या नौ लैब बॉय और टाइपिस्ट और 13 या 14 छात्र थे. आधी रात तक सभी ने लैब में काम किया. हमें इस तरह काम करने के लिए किसी ने नहीं कहा था. यह पूरी तरह से हमारी अपनी इच्छा थी कि हम अपने असाइनमेंट को पूरा करें. प्राध्यापकों का यह कहना था कि आप काम समय पर समाप्त कर लें. जब आपको मार्गदर्शन की आवश्यकता थी वह दिया गया लेकिन अब आपसे यह उम्मीद की गई है कि आप अपने पैरों पर खड़े हों. आपको स्वतंत्र रूप से काम करने की आदत बनानी है. आपको पुस्तकालय में स्वयं किताबें खोजनी थीं. यदि आप ऊब रहे हैं तो आप कुछ समय के लिए कैम्पस के बाहर जा सकते हैं और अपने दिमाग को तरो-ताजा करके वापस आ सकते हैं.
मैं संस्थान के माहौल को देखकर चकित था. मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था. कक्षा में प्रोफेसर कहते थे, "सज्जनों, यदि आप टाई पहने हुए हैं तो ढीला कर दें और अगर आप चाहें तो धूम्रपान कर सकते हैं. आप में से जिन लोगों का क्लास लेने का मन नहीं है, बाहर जा सकते हैं क्योंकि आप सभी लोगों को प्रजेंट कर दिया जाता है, हम कोई अटेंडेंस नहीं लेते हैं. उसके बाद कुछ लोग बाहर निकल जाते, कुछ लोग धूम्रपान करने लगते. प्रत्येक प्रोफेसर के पास लगभग तीन या चार छात्र होंगे. अनुपात बहुत अच्छा था.
वहां का माहौल बहुत ही स्वतंत्र था और हर 3-4 महीने में परीक्षा के समय प्रश्न पत्र हमें दिया जाता था और हमें बताया जाता था कि हम इसे अपने कमरे या पुस्तकालय में ले जा सकते हैं. उत्तर ढूंढ़ने के लिए किसी भी किताब का सहारा ले सकते हैं. बस एक वादा करना था कि किसी सीनियर या किसी और से कोई मदद नहीं लेंगे.
एक और चीज जिस पर मैंने गौर किया वह यह थी किस तरह से पूरा दिन गुजरता था. अधिकांश शोध-छात्र सुबह 9.30 बजे प्रयोगशालाओं में जाते थे, दोपहर 1 बजे तक काम करते थे, दोपहर के भोजन के लिए वापस आते थे और फिर शाम 4 बजे तक पुस्तकालय या प्रयोगशाला में पढ़ाई करने के लिए वापस चले जाते थे. यह एक अलिखित परंपरा थी कि आप शाम 4.30 बजे काम करना बंद कर देंगे और अपने शाम के टिफिन के लिए जाएंगे. उसके बाद हम जिमखाना में खेल खेलने जाते थे. हमारे यहां छह टेनिस कोर्ट, दो इंडोर बैडमिंटन कोर्ट और यहां तक कि एक बिलियर्ड्स टेबल भी थी. फिर सभी नहाते, भोजन करते और प्रयोगशाला या पुस्तकालय में वापस चले जाते.
विभाग के मेरे सीनियर साथियों ने मुझसे कहा, "जवाहर जब खालीपन आए तो यह चला भी जाएगा, तुम छुट्टी मनाने जाओ. तुम अपनी लैब पर एक नोटिस लगा दो कि जवाहरलाल वैद छुट्टी पर गए और इस तारीख को वापस आएंगे, कोई भी तारीख लिख दो. डिपार्टमेंट में किसी से पूछने की कोई जरूरत नहीं है,कुछ भी नहीं है. और मैंने यही कर दिया. मैं दक्षिण के विभिन्न मंदिरों में गया, रामेश्वरम गया. एक बार श्रीलंका भी गया, जिसमें नाव से केवल दो घंटे लगे थे. किसी परमिट की जरूरत नहीं थी केवल संस्थान का आईडी कार्ड ही काफी था वो भी क्या दिन थे.
आईआईएससी हमेशा मेरा संस्थान रहेगा, मेरे छोड़ने के 70 साल बाद भी, मैंने वहां बहुत सी चीजें सीखीं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वतंत्र कैसे हों. दुनिया बहुत बड़ी है, और आपको खुद पर विश्वास की जरूरत है, जो संस्थान आपको सिखाता है. मेरे पूरे करियर के दौरान, मेरे अंदर वह नैतिक शक्ति संस्थान से आई - कि यदि आप सही हैं, तो इसके लिए लड़ें.
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