Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Gandhi Jayanti 2022: गांधी के देश में गांधी की कितनी अनिवार्यता?

Gandhi Jayanti 2022: गांधी के देश में गांधी की कितनी अनिवार्यता?

Mahatma Gandhi ने सबसे पहले छुआछूत के विरोध में दलितों को 'हरिजन' सम्बोधित करते हुए देश को समरसता का ध्येय दिया.

डॉ. अर्पण जैन
न्यूज
Published:
<div class="paragraphs"><p>Mahatma Gandhi</p></div>
i

Mahatma Gandhi

Quint Hindi

advertisement

Gandhi Jayanti: देश की माटी का गौरव, समाज का अस्तित्व, जन का मान, सर्वहारा वर्ग की चिन्ता, हर तबके का विशेष ख़्याल, भाषाई एकता और अखण्डता के बीच हिन्दी की स्वीकार्यता, राष्ट्र की आजादी के रण के नायक, नेतृत्वकर्ता, सत्यवादी, मितव्ययी, स्वावलम्बी, समरस और सर्वहितैषी, राजनीति की कलुषता से परे, राष्ट्र तत्व का स्वाभिमान, सामंजस्यता की अद्भुत, अनुपम मिसाल, उम्दा शिक्षक, श्रेष्ठ पत्रकार, कुशल राष्ट्रनायक, संगठन कौशल के धनी, समभाव का पर्याय और आसान शब्दों में कहें तो भारतीय आजादी की लड़ाई का अकल्पनीय पर्याय यदि किसी को माना जा सकता है तो वह साबरमती के संत यानी मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी (Mahtama Gandhi) तक की यात्रा के यात्री ‘बापू’ को माना जा सकता है.

कद-काठी से अकल्पनीय किन्तु यथार्थ के आलोक में अंग्रेजी हुकूमत के सामने निहत्थे, निडर और निर्लोभी रहकर चर्चिल जैसे बीसियों को बौने करने का सामर्थ्य रखने वाले महात्मा गांधी सम्पूर्ण विश्व में भारत के सैंकड़ो परिचय में से एक परिचय हैं.

राजनैतिक या कहें कूटनीतिक दृष्टि से भी बापू उस अंग्रेजी सल्तनत को उखाड़ फेंकने के स्वर का प्राण तत्व रहे, देश को एकजुट करके स्वाधीनता समर के लिए तैयार करने का सामर्थ्य उस ऊर्जावान बापू में सहज ही उपलब्ध था, जिनके कहने मात्र से राष्ट्रवासी तैयार खड़े रहते थे. अहमदाबाद का साबरमती आश्रम दिल्ली के हुकूमतरानों के नाको चने चबवाने में अव्वल था.

गांधी न केवल एक व्यक्ति थे बल्कि गांधी एक ऐसी विचारधारा रही, जिसका अनुसरण कर राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुचारु रूप से सुव्यवस्थित तरीके से और सुमङ्गल के साथ यापन कर सकता है. आज राष्ट्र ही नहीं अपितु वैश्विक परिदृश्य में गांधी के अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है.

भारत की आजादी अपने पछत्तर वर्ष का सौष्ठव प्राप्त कर गई और लगभग उतना ही समय देश ने अब तक गांधी विहीन बिताया है, किन्तु बीते पछत्तर वर्षों में बिना गांधी की नीति के यह देश पछत्तर कदम भी नहीं चल पाया.

कल्पना में भी जब गांधी के दृष्टिकोण पर बुद्धि जाती है तो यह आभास हो ही जाता है कि यहीं कहीं बापू इस समस्या का भी हल दे रहे हैं. देश की नीति निर्धारण में गांधी के विचारों, कार्यशैली और दृष्टि की अत्याधिक मान्यता है. यदि भाषाई एकजुटता की बात करें तो बापू सम्पूर्ण भारत की एक राष्ट्रभाषा हो, इस बात के पक्षधर थे. उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत की थी.

वे स्वयं संवाद में हिन्दी को प्राथमिकता देते थे. आजादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिन्दी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे. राजनीतिक दलों से अपेक्षा थी कि वे हिन्दी को लेकर ठोस एवं गंभीर कदम उठायेंगे. लेकिन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से ऑक्सीजन लेने वाले दल भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे गये हैं. हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं. कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेजी जरूरी है. ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि श्री नरेन्द्र मोदी की शानदार एवं सुनामी जीत और विश्व में प्रतिष्ठा का माध्यम यही हिन्दी बनी है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
गांधी तर्कवादी दृष्टि के साथ समाधानमूलक दृष्टिकोण के पक्षधर रहे हैं. उन्होंने ही सबसे पहले क्षुद्रप्रथा का उन्मूलन करते हुए 'हरिजन' सम्बोधित करते हुए देश को समरसता का ध्येय दिया.

आज जिस स्वच्छता का अनुसरण देश की सरकारें कर रही हैं, वह स्वच्छता का मन्त्र भी बापू की पौथी से निकला है. एक बार 1935 में गाँधी जी जब इंदौर आए थे, तब बापू के भोजन की व्यवस्था सर हुकुमचंद सेठ के घर पर थी. नगर सेठ ने बापू को सोने-चांदी के पात्र में भोजन परोसा, बापू ने चुटकी लेते हुए यह कहा कि 'मैं जिस बर्तन में भोजन करता हूँ, वह मेरे हो जाते हैं.' मजाक के बाद बापू ने अपने सहायक से अपने मिट्टी के बर्तन बुलवाए और उसमें भोजन किया. इस बात से गांधी जी की मितव्ययिता और सहज जीवनशैली का अंदाजा लगाया जा सकता है.

एक और घटना इंदौर से ही गांधी जी की जुड़ी हुई है, जिससे उनका हिन्दी प्रेम प्रदर्शित होता है. बापू 1935 हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षता करने आने से मना कह चुके थे, अत्याधिक मनुहार के बाद बापू ने एक शर्त रखी, कि मैं तब ही आऊंगा जब मुझे एक लाख रुपए दान दिए जायेंगे, बापू ने कारण नहीं बताया, किन्तु बनारसीदास चतुर्वेदी ने बापू से हामी भर ली. आयोजन के दिन तक व्यवस्था कुल जमा साठ हज़ार रुपयों की हुई, बापू ने वह स्वीकार करते हुए उन पैसों से वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय और दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचारिणी सभा की स्थापना कर देश को दो अनुपम सौगात देकर अनुग्रहित किया.

आज हम भारत की आजादी की शताब्दी की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे दौर में कुछ कुपढ़ लोगों के द्वारा जिस तरह से गांधी की महिमा की मूर्ति को खंडित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है, यह निहायती घटियापन है. ऐसे दौर में विद्यालय, महाविद्यालयों में गांधी की जीवन शैली संबधित पाठ्यक्रम पुनः शुरू किए जाने चाहिए, सहायकवाचन जैसी पुस्तकों के माध्यम से इतिहास को ठीक ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए, गांधी के दर्शन को जनमानस को समझाया जाना चाहिए. इन्हीं सब कार्यों से गांधी के देश में गांधी की पुनर्स्थापना होगी.

भारत भू पर ऐसा कोई वर्ग, विधा, कार्य, शासकीय-अशासकीय नीति नहीं है जो बिना गांधी के दर्शन के पूर्ण होती हो. ऐसे कालखंड में गांधी को उसी गांधीवादी दृष्टिकोण के साथ जनमानस के बीच स्थापित किया जाना चाहिए क्योंकि गांधी एक हाड़-माँस का शरीर या मिट्टी-सीमेंट का पुतला नहीं है बल्कि गांधी जीते जागते राष्ट्र हैं. गांधी तो जीवन शैली, विचार, आध्यात्म, नीति निर्धारक, नीति निर्माता, दर्शन और व्यवस्था है. इसी प्रकार गांधी का अनुसरण युवा पीढ़ी के सजग भविष्य का नवनिर्माण है. इसी तरह गांधी को आत्मसात करना आज की आवश्यकता है.

(लेखक डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT