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चुनाव सुधार से जुड़ा कानून एक अच्छा विधायी कदम हो सकता था, लेकिन चुनाव कानून (संशोधन) बिल, 2021 में वोटर आईडी से आधार को जोड़कर केंद्र ने तमाम आलोचनाओं को हवा दे दी है.
बेशक इन आलोचनाओं से केंद्र सरकार के कानों पर जूं तक नही रेंगी. उसने संसद में बिल पास करके बहुत आसानी से उसे सब पर थोप दिया. 21 दिसंबर को राज्यसभा में वॉयस वोट के जरिए बिल पास हो गया. इससे पहले चर्चा के बिना इसे लोकसभा में पास कर दिया गया था.
प्राइवेसी एक्सपर्ट्स की चिंताओं के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद, मोदी सरकार निर्ममता से उस कार्यक्रम को बढ़ाने में लगी हुई है, जिसे 2014 से पहले खुद प्रधानमंत्री ने ‘नौटंकी’ कहा था.
वैसे काफी समय से लग रहा था कि आधार को वोटर्स लिस्ट से जरूर जोड़ा जाएगा (इसका एक पायलट प्रॉजेक्ट 2015 में शुरू किया गया था), और इसलिए बिना सोचे-समझे कोई सरकार के इस कदम की अनदेखी कर सकता है.
लेकिन इस कदम को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए. इसकी एक बहुत सीधी सी वजह है- यह वोट देने के अधिकार के लिए बहुत बड़ा और गंभीर खतरा है.
यह काल्पनिक और बेबुनियाद फिक्र नहीं है. इसका मकसद भारत की मतदाता सूचियों की साफ-सफाई है, जिसे बिल के उद्देश्यों और कारणों के कथन में- “एकाधिक नामांकनों का खतरा” कहा गया है.
समस्या यह है कि भले ही यह काम अच्छे से अच्छे इरादे से किया गया हो, फिर भी आधार को इस “शुद्धिकरण प्रक्रिया” का जरिया बनाने से एक खतरा और पैदा होता है- किसी के लिस्ट से छूट जाने का. यहां यह सच्चाई भी बताई जानी चाहिए कि जिन चुनाव अधिकारियों ने इस प्रक्रिया को जवाबदेह बनाकर सबका भरोसा जीता है, उनकी बजाय किसी बाहरी अथॉरिटी की मदद ली जा रही है, जिसकी जवाबदेही न के बराबर है.
लोक प्रतिनिधित्व एक्ट, 1950 के सेक्शन 23 में मतदाता सूचियों में नाम जोड़ने की प्रक्रिया से संबंधित प्रावधान हैं, यानी किसी खास चुनाव क्षेत्र में आपके वोट करने का रजिस्ट्रेशन.
कोई स्थानीय चुनाव पंजीकरण अधिकारी मतदाता सूचियों में किसी व्यक्ति का नाम जोड़े, उससे पहले उसे यह जांचना होता है कि क्या वह व्यक्ति पंजीकरण का हकदार है, और वेरिफिकेशन करना होता है.
संशोधन में यह भी कहा गया है कि चुनाव पंजीकरण अधिकारी चुनाव क्षेत्र में पहले से पंजीकृत व्यक्ति से भी आधार नंबर मांग सकता है ताकि मतदाता सूची में प्रविष्टियों का प्रमाणन यानी ऑथेंटिकेशन किया जा सके. केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिरिजू के मुताबिक, यह एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है, अनिवार्य नहीं है. बिल पास होने के बाद एनडीटीवी से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा:
हालांकि, 2021 के संशोधनों में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, वे किसी और बात की तरफ इशारा करते हैं. उनमें कहा गया है कि चुनाव पंजीकरण अधिकारी पंजीकरण और ऑथेंटिकेशन के लिए आधार मांग “सकता” है, और आधार नंबर न देने पर पंजीकरण के किसी भी आवेदन को ठुकराया नहीं जा सकता है और न ही किसी प्रविष्टि को सूची से हटाया जा सकता है. पर इसमें यह भी कहा गया है कि “उचित कारण, जिन्हें निर्दिष्ट किया जा सकता है” के आधार पर ही आधार नंबर देने से इनकार किया जा सकता है.
इसका मतलब यह है कि केंद्र सरकार कुछ नए नियम/रेगुलेशंस बनाएगी, जिनमें निर्दिष्ट किया जाएगा कि व्यक्ति को किन स्थितियों में इस बात की इजाजत मिल सकती है कि वह चुनाव पंजीकरण अधिकारी को अपना आधार नंबर न दे. इसलिए यह प्रक्रिया स्वैच्छिक नहीं होने वाली, जैसा कि कानून मंत्री ने दावा किया है.
लोक प्रतिनिधित्व कानून, 1950 के सेक्शन 22 में चुनाव पंजीकरण अधिकारियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे मतदाता सूचियों में प्रविष्टियों को सही कर सकते हैं. अगर कोई प्रविष्टि "गलत या दोषपूर्ण" है, या कोई व्यक्ति किसी चुनाव क्षेत्र से बाहर चला गया है, या उसकी मृत्यु हो गई है तो अधिकारी प्रविष्टि को बदल या हटा सकता है.
मतदाता सूची में कोई भी बदलाव करने से पहले चुनाव पंजीकरण अधिकारी को संबंधित व्यक्ति को सुनवाई का उचित मौका देना होता है.
2015 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में नेशनल इलेक्टोरल रोल प्यूरिफिकेशन एंड ऑथेंटिकेशन प्रोग्राम (एनईआरपीएपी) नाम से एक पायलट प्रॉजेक्ट चलाया गया था, जिसमें आधार नंबरों को वोटर आईडीज से लिंक किया गया था.
इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ही महीने बाद इस प्रक्रिया पर स्टे लगा दिया, तब तक लाखों वोटर्स की सीडिंग हो चुकी थी. 2018 में जब इन दोनों राज्यों की मतदाता सूचियां प्रकाशित हुईं तो उनमें बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम गायब थे: तेलंगाना में करीब 30 लाख और आंध्र प्रदेश में 21 लाख से ज्यादा.
तेलंगाना में विधानसभा चुनावों से पहले हंगामा मच गया. हजारों लोगों को उसी दिन पता चला कि मतदाता सूची में उनका नाम है ही नहीं. वह भी बिना किसी पूर्व सूचना के (इसके बावजूद कि सेक्शन 22 में कहा गया है). यह इतनी बड़ी समस्या थी कि दोनों राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारी को माफी मांगनी पड़ी थी.
आरटीआई दस्तावेजों से पता चलता है कि जब आधार को वोटर आईडी से जोड़ा गया था, तब इस प्रक्रिया के लिए कोई डोर-टू-डोर वेरिफिकेशन नहीं किया गया था, बस एक डी-डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर था.
27 मार्च 2018 को, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई), वह सरकारी प्राधिकरण जो आधार कार्यक्रम चलाता है, ने सुप्रीम कोर्ट में माना था कि सरकारी सेवाओं के लिए आधार ऑथेंटिकेशन 12 प्रतिशत बार विफल रहता है.
जब मतदाता सूची से लिंक करने की बात आती है तो उम्मीद की जा सकती है कि इस स्तर की गलती न हो, क्योंकि कम से कम बायोमीट्रिक ऑथेंटिकेशन की जरूरत नहीं होनी चाहिए- हालांकि यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि नियमों के तहत ऑथेंटिकेशन की क्या शर्तें होंगी.
फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर की गड़बड़ियां समस्याएं पैदा कर सकती हैं, चाहे वह गड़बड़ नेट कनेक्शन हो या साइट फेल्योर. अगर व्यक्तिगत रूप से कोई फॉलो-अप वेरिफिकेशन नहीं किया जाता तो इसका मतलब यह हो सकता है कि आधार और वोटर आईडी के मिलान के दौरान असल वजह से नहीं, सिर्फ तकनीकी वजह से किसी का नाम मतदाता सूची से गायब हो जाए.
इन विवरणों को वैरिफाई करने के लिए तकनीक की मदद लेना से (तेलंगाना में यूआईडीएआई के साथ चुनाव अधिकारियों ने ऐसा ही किया था और गुजरात में भी एक कोशिश की गई थी), किसी के छूट जाने का खतरा पैदा हो सकता है.
इसके अलावा झारखंड का उदाहरण ले सकते हैं. एक अध्ययन में पाया गया कि आधार लिंक करने के बाद वेरिफिकेशन किया गया और इसके बाद 88 प्रतिशत राशन कार्ड डिलीट हो गए, जोकि असली थे- इसके बावजूद उन्हें डिलीट कर दिया गया था.
चुनाव पंजीकरण अधिकारियों को हमेशा यह अधिकार होता है कि वे मतदाता सूची में बदलाव कर सकते हैं. फिर कोई कह सकता है कि अगर कोई छूट जाए तो उसका नाम सूची में फिर से डाला जा सकता है.
लेकिन आधार को लिंक करने से यह मुश्किल और बड़ी हो सकती है. अगर ऑथेंटिकेशन की समस्या यूआईडीएआई के साथ है तो इस समस्या को हल करना दिक्कत भरा है. क्योंकि तब व्यक्ति को स्थानीय चुनाव अधिकारी के पास नहीं, यूआईडीएआई के शिकायत निवारण तंत्र में शिकायत करनी होगी.
यह वोट देने के अधिकार पर बड़ा खतरा है कि चुनाव आयोग से अलग एक अथॉरिटी को इतना महत्व दिया जा रहा है. यह सिर्फ ऑथेंटिकेशन की समस्या नहीं है, यह बात उससे भी आगे जाती है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि यूआईडीएआई के पास यह शक्ति है कि वह किसी व्यक्ति को नोटिस दिए बिना एकतरफा तरीके से आधार नंबर को डीएक्टिवेट कर सकता है. डीएक्टिवेशन के बाद उस व्यक्ति को इसकी सूचना दी जाती है. इसके बाद वह यूआईडीएआई के शिकायत निवारण तंत्र से संपर्क कर सकता है और तंत्र सिर्फ एक कॉन्टैक्ट सेंटर है (यूआईडीएआई के अपने आधार (नामांकन और अपडेट रेगुलेशन 2016) के अनुसार).
अगर समस्या का किसी तरह समाधान हो भी जाता है तो इसमें काफी समय और मेहनत लगेगी- और इसका यह मायने होगा कि अगर दिक्कत चुनाव से ऐन पहले होती है तो व्यक्ति वोट नहीं दे पाएगा, चाहे उसने बहुत पहले पंजीकरण कराया हो, और वह अनगनित बार वोट दे चुका हो.
चूंकि, एनईआरपीएपी को रोक दिया गया था इसलिए 2018 में सुप्रीम कोर्ट को आधार पर फैसला देते समय इस सवाल से नहीं जूझना पड़ा था.
अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि आधार का इस्तेमाल केवल सरकार की तरफ से दिए जाने वाले लाभ, सब्सिडी और सेवाओं के लिए किया जा सकता है, इसलिए उस आधार पर वोटर आईडी और आधार को लिंक करना अनिवार्य नहीं किया जा सकता.
केंद्र यह तर्क देगा कि बेशक यह प्रक्रिया अनिवार्य नहीं है (इसके बावजूद कि 2021 के संशोधन में ‘उचित कारण’ जैसे शब्द दिए गए हैं) और 2020 मे उसने नए आधार गुड गवर्नेंस रूल्स लागू किए हैं जो "सुशासन के हित में, पब्लिक फंड्स के लीकेज को रोकने, लोगों के जीवन को आसान बनाने और उन्हें बेहतर सेवा उपलब्ध कराने के लिए" आधार को स्वेच्छा से लिंक करने की बात करते हैं.
भले ही अदालतें यह निर्धारित करें, फिर भी यह कहना जरूरी है कि सरकार अब तक तथाकथित “एकाधिक नामांकन की आशंका” पर कोई डेटा नहीं दे पाई है. अगर इस बिल पर संसद में चर्चा होती तो सरकार को इस मुद्दे पर डेटा पेश करने का मौका मिल सकता था लेकिन उसने ऐसा होने ही नहीं दिया.
जिस आनुपातिकता का जिक्र ऊपर किया गया है, उसके दूसरे अंग पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक दूसरे फैसले में रोशनी डाली थी. आधार के फैसले में उसका हवाला दिया गया था.
1995 में लाल बाबू हुसैन बनाम चुनाव पंजीकरण अधिकारी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वोट करने के अधिकार को पहचान के सिर्फ चार सबूत न देने के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता. दिल्ली के एक खास चुनाव क्षेत्र में कुछ प्रवासी मजदूरों के साथ ऐसा किया गया था. वोटर्स के पास यह अधिकार है कि वे अपने वोट के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए पहचान का कोई अन्य सबूत दे सकते हैं.
इसके अलावा कोर्ट ने इस मामले में एक दिलचस्प बात और कही थी. अदालत ने कहा था कि मौजूदा वोटर्स सहित सभी वोटर्स से नई आईडी मांगने का मतलब यह भी है कि चुनाव अधिकारी उन सभी वोटर्स की क्रिमिनैलिटी (धोखाधड़ी) का अनुमान लगा रहे हैं. यह सरासर असंवैधानिक है.
यूं 2021 के संशोधन को इस तरह लागू किया जाना चाहिए कि चुनाव अधिकारी किसी व्यक्ति के वोटर आईडी को आधार से वैरिफाई करने के लिए सिर्फ तयशुदा गुजारिश (टारगेटेड रिक्वेस्ट) करें. वरना, सरकार की इस योजना में भी दिक्कतें आने वाली हैं.
वैसे आधार-वोटर आईडी को जोड़ने में जो परेशानियां सामने आने वाली हैं, उससे भी बड़ी एक समस्या और है. इस मुद्दे का दूसरा गंभीर पहलू यह भी है कि इससे वोटर्स की प्रोफाइलिंग हो सकती है- खासतौर से यह देखते हुए कि हाल के वर्षों में राज्य रेजीडेंट डेटा हब्स जिस तरह डेटा कलेक्शन और सीडिंग कर रहे हैं.
एक बात और. इन संशोधनों के चलते चुनाव से पहले किस तरह चालबाजियों की जा सकती हैं, या लोगों का वोट देने का हक छीना जा सकता है, उसका विश्लेषण तो यहां किया ही नहीं गया है. हां, जैसा कि देखा जा सकता है, सिर्फ यह सच्चाई कि अब आधार मतदाता सूची और वेरिफिकेशन प्रोसेस का हिस्सा बन जाएगा, इसी से यह आशंका पैदा हो रही है कि बहुत से लोग छूट जाएंगे और उनकी शिकायत दूर नहीं हो पाएगी. यह वोट देने के अधिकार को बड़ा खतरा है.
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