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32 साल की सुनीता उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के गागोल गांव में एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) के रूप में काम करती हैं. COVID-19 महामारी के दौरान सुनीता कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग के लिए घर-घर जाती हैं, वह कहती हैं कि उन्हें इसके बदले सिर्फ 1,000 रुपये महीने का प्रोत्साहन (इन्सेंटिव) मिलता है, जोकि उनके काम की तुलना में बहुत कम है.
सुनीता की तरह ही गांव के कई और आशा कार्यकर्ता भी इसी तकलीफ का सामना कर रही हैं. उनमें से कई ने द क्विंट को बताया कि वे भारत के ग्रामीण समुदाय और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी होने के बावजूद, प्रशासन द्वारा कम वेतन, ज्यादा काम और अनदेखा महसूस करती हैं.
कुपोषण, पोलियो और कई अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के खिलाफ भारत की लड़ाई में सबसे आगे रहने के बाद, 2020 में, लगभग 9 लाख आशा कार्यकर्ता कोरोनोवायरस महामारी के खिलाफ देश की लड़ाई में शामिल हुईं - राशन वितरित करना, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग में मदद करना और लोगों को वायरस के बारे में जागरूक करना.
हालांकि, वायरस के खिलाफ इस जंग में भारत की रक्षा के लिए सबसे आगे की लाइनों में रहने के बावजूद, हेल्थ वर्कर कम्यूनिटी में ये महिलाएं सबसे खराब वेतन पाने वालों में से एक हैं, इसलिए क्योंकि इनके काम को स्वैच्छिक (voluntary) और पार्ट टाइम काम माना जाता है.
मेरठ के गागोल गांव की एक औरआशा कार्यकर्ता धर्मवती कहती हैं, “जब हम किसी गर्भवती महिला को सरकारी अस्पताल ले जाते हैं और वो बच्चे को जन्म देती हैं, तब हमें 600 रुपये का भुगतान किया जाता है. यह ठेका पर मिलने वाला काम है.” वह आगे कहती हैं, "हालांकि, अगर बच्चे के जन्म के दौरान कुछ गलत हो जाता है या अगर महिला उन नौ महीनों के दौरान एक निजी अस्पताल में शिफ्ट हो जाती है, तो हम इस पैसे को भी खो देते हैं."
धर्मवती ने 2018 में एक आशा के रूप में काम करना शुरू किया. उन्हें लगता है कि उनकी कुल आय उनके काम के साथ न्याय नहीं करती है.
2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा आशा समुदाय का गठन किया गया था. गांव से चयनित एक आशा इसके प्रति जवाबदेह होती है.
हालांकि, सुनीता और धर्मवती दोनों हमें ऐसे उदाहरणों के बारे में बताती हैं जब महामारी के दौरान संपर्क ट्रेसिंग के लिए उनके गांवों के लोगों ने उन्हें देखकर अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए.
धर्मवती कहती हैं कि मरीज की हालत बिगड़ने के बाद ही उन पर दोष लगता है कि उन्होंने पहले इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया.
COVID-19 के दौरान घर-घर जाने वाली अधिकांश आशा कार्यकर्ताओं को भी उनके पड़ोस के लोग किनारे कर देते हैं, क्योंकि लोगों को लगता है कि इन आशा कार्यकर्ताओं की वजह से वायरस फैल सकता है.
एपिडेमियोलॉजिस्ट और पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट चंद्रकांत लहरिया ने द क्विंट को बताया कि महामारी के दौरान, उनकी चेकलिस्ट पर कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग और कोविड सर्वे के साथ, एक आशा कार्यकर्ता का काम कई गुना बढ़ गया है, हालांकि उनकी समस्याएं सिर्फ कम वेतन तक सीमित नहीं हैं.
लहरिया ने आगे कहा कि आशा कार्यकर्ताओं की इन समस्याओं का समाधान एक संस्थागत दृष्टिकोण में है. “हमें एक आशा की भूमिका को परिभाषित करने और सरकार के साथ उनके काम को संस्थागत रूप देने की जरूरत है ताकि उन्हें इंशोरेंस कवर और मानदेय जैसे लाभ मिल सकें. फिलहाल, आशा को असाइनमेंट की जरूरत के मुताबिक काम पर रखा जाता है और भुगतान किया जाता है, इस दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है. "
सुनीता और धर्मवती इन बातों से सहमत हैं. वे चाहती हैं कि सरकार उनके काम को पहचाने और उनका वेतन तय करे.
वो कहती हैं, “हमारे पास 8,000 रुपये से 10,000 रुपये प्रति माह का निश्चित वेतन क्यों नहीं है? हम ऊपर बैठे अधिकारी जो घर पर रहकर काम कर रहे हैं उनसे उलट हर दिन मैदान पर बाहर जा रहे हैं."
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