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'मैं लखनऊ का था, लखनऊ का हूं और लखनऊ का रहूंगा' ये पंक्तियां जब भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आते थे तो उनके मुहं से सुनाई देती थीं. वो कहते थे कि मैं यहां मेहमान नहीं बल्कि मेजबान बनकर आया हूं क्योंकि मैं लखनऊ का हूं और लखनऊ मेरा है. अटल बिहारी ऐसा इसलिए कहा करते थे क्योंकि जिस लखनऊ पर लोग फिदा थे वो शहर और उस शहर के लोग अटल बिहारी पर फिदा हो चुके थे. अटल का लखनऊ से कनेक्शन सालों पुराना है. तब हिंदुस्तान आजाद भी नहीं हुआ था.
बात साल 1947 की है. जब भाऊराव देवरस उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक थे. संघ के सह प्रांत प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय हुआ करते थे. जुलाई के महीने में दीनदयाल उपाध्याय, भाऊराव देवरस और अटल बिहारी वाजपेयी की बैठक हुई. तय हुआ कि संघ के प्रचार प्रसार के लिए एक पत्रिका निकाली जाए. चर्चा पत्रिका को लेकर शुरू हुई. किसी ने नाम सुझाया “राष्ट्रधर्म”. यही नाम फाइनल हो गया. अटल जी को इस पत्रिका का संपादक बनाया. राष्ट्र धर्म के पहले अंक की तीन हजार प्रतियां प्रकाशित हुई थीं. उस दौर में कोई भी हिंदी पत्रिका 500 से अधिक नहीं छपती थी. राष्ट्रधर्म की सभी कॉपियां हाथों हाथ बिक गईं. इसीलिए 500 और प्रतियां प्रकाशित करनी पड़ीं. राष्ट्रधर्म के दूसरे अंक की 8 हज़ार और तीसरे अंक की 12 हजार कॉपियां छापनी पड़ीं.
अटल बिहारी वाजपेयी जब लखनऊ में पत्रकारिता करते थे तो गलियों में घूमते रहते थे. अटल जी को लखनऊ का खान-पान भी काफी पसंद था. पान की दुकान से लेकर चौक की राजा की ठंडई पीने के लिए अटल जी अक्सर जाया करते थे. अटल जी सांसद बनने के बाद जब भी आते थे तो गणेशगंज में तिवारी चाट की दुकान पर खुद जाकर चाट का मजा जरुर लेते थे. ऐसा कहा जाता है कि तिवारी का चाट उनको इतना पसंद था कि अक्सर शाम को निकल जाते थे और आम लोगों की तरह चाट का आनंद लेते थे. अटल जी को शंभू की जलेबी भी काफी पसंद थी. तिवारी चाट के मालिक राम नारायण तिवारी के बड़े पोते दीप प्रकाश तिवारी बताते हैं कि उनके बाबा उनसे कहते थे कि अटल जी जब आते थे तो हमारे यहां का दही बड़ा जरुर खाते थे. अटल जी हमारे यहां का चाट बिना खाए जाते नहीं थे और बोलते थे तिवारी जी चाट में अदरक की मात्रा थोड़ी बढ़ा देना.
अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ लोकसभा सीट से पांच बार सांसद चुने गए. 1954, 1957 और 1962 का चुनाव हारने के बाद वह 1991 तक यहां से चुनाव नहीं लड़े. पर, लखनऊ बराबर आते-जाते रहे. वह 1991 में जब लोकसभा चुनाव के यहां से उम्मीदवार हुए तो बोले, ‘आप लोगों ने क्या सोचा था, मुझसे पीछा छूट जाएगा तो यह होने वाला नहीं. मेरो मन अनंत कहां सुख पावे, लखनऊ मेरा घर है. इतनी आसानी से मुझसे रिश्ता नहीं तोड़ सकते. साल 1991, 1996, 1998, 1999, 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से सांसद रहे. उसके बाद वर्ष 2009 का लोकसभा चुनाव स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्होंने नहीं लड़ा.
अटल बिहारी जब भी लखनऊ आते थे तो शायद ही गेस्ट हाउस में रुकते थे. उनकी एक दिली इच्छा थी कि लखनऊ के बख्शी का तालाब में खुद का आशियाना हो. बख्शी का तालाब अटल बिहारी को इसलिए पसंद था क्योंकि वहां पर चारों तरफ हरियाली रहती थी जो उन्हें बहुत भाती थी. एक बार उन्होंने इसका जिक्र एक जनसभा में भी किया था कि वो बख्शी का तालाब में अपना आशियाना बनाएंगे क्योंकि वहां की हरियाली उन्हें अपनी तरफ अनायास खींच लेती है. लेकिन उनका ये सपना अधूरा ही रह गया.
अटल जी की राजनीतिक पाठशाला अमीनाबाद की मारवाड़ी गली के मशहूर कलंत्री निवास में लगा करती थी. कलंत्री निवास गवाह है अटलजी के लखनऊ प्रवास के उस दौर का जब वह कानपुर से पढ़ाई कर यहां आए और राष्ट्रधर्म से जुड़ गए. तब के हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और समाजसेवी स्वर्गीय कृष्ण गोपाल कलंत्री और पं. दीनदयाल करीबी व घनिष्ठ मित्र थे. स्वर्गीय कृष्ण गोपाल के पुत्र राजेन्द्र गोपाल कलंत्री ने बताया कि हालांकि अटलजी और पिताजी की उम्र में आठ से दस साल का अंतर था, लेकिन दोस्ती बड़ी पक्की थी. 1950 के दशक में जब वह लखनऊ आए तो कई मित्रों के घर उनके ठिकाने बने, लेकिन शुरुआती दिनों में कलंत्री निवास उनकी पहचान बना था.
राजेन्द्र गोपाल बताते हैं कि हमारे ऊपर के हॉलनुमा कमरे में जनसंघ की लंबी बैठकों का दौर आए दिन चलता था. सुबह से दोपहर और दोपहर से रात तक हो जाती थीं. वह बताते हैं कि अटजी खाने के शौकीन थे. माताजी गौरा देवी व घर के अन्य बड़े सबके लिए खानपान की व्यवस्था रखते थे. अटलजी बीच-बीच में शंभू हलवाई को कमरे की खिड़की से आवाज लगा देते. कभी जलेबी तो कभी रबड़ी. खुद भी खाते और हम सबको भी बुला कर खिलाते थे.
राजेन्द्र कलंत्री कहते हैं कि 1951-52 में लोकसभा चुनावों के दौरान घर पर एक बड़ी बैठक हुई, जो दोपहर से लेकर लगभग रात तक चली. वह बताते हैं कि उसी में तय हुआ कि अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ से लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे और पिताजी विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे. पर्चा दाखिल हुआ और जुलूस घर से ही निकला, अमीनाबाद समेत कई इलाकों में घूमा. पिताजी और अटलजी दोनों ने एक दूसरे के लिए खूब वोट मांगे. नतीजा मनमाफिक नहीं रहा, लेकिन उसके बाद भी अपनी पत्रिका के लिए अमीनाबाद में उनका प्रवास लंबे समय तक रहा.
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