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देश भर में मकर संक्रांति बड़े धूमधाम से मनाई जा रही है. भारतीय ज्योतिष विज्ञान में इस दिन का खास महत्व रहता है.
महाराष्ट्र के लोगों के लिए मकर संक्रांति एक ऐसा त्योहार है जिसमें मिठास भी है लेकिन उससे कहीं ज्यादा एक बुरी याद.
मकर संक्रांति के दिन, अब से करीब 250 साल पहले 14 जनवरी 1761 को ही पेशवाओं के नेतृत्व में मराठाओं ने सबसे बड़ी और भयानक सैन्य आपदा झेली थी. दरअसल 14 जनवरी 1761 को ही पानीपत की तीसरी लड़ाई छिड़ी थी.
दिल्ली के उत्तर में करीब 97 किलोमीटर दूर पानीपत में छिड़ी ये जंग 18वीं सदी में हुई सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक थी. ये एक ऐसी जंग थी जिसमें एक दिन में मारे गए लोगों की संख्या किसी भी दूसरी जंग की तुलना में कहीं अधिक थी. उस दिन, मराठा राज्य संघ की सेना को अहमद शाह अब्दाली के अफगान छापामारों ने परास्त कर दिया था.
1740 में ईरान के नादिर शाह के हस्तक्षेप के चलते मराठा, पंजाब के कूटनीतिक महत्व को स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए. उसी समय मराठा, कर्नाटक में निजाम से भी युद्ध कर रहे थे. जिनकी राजधानी उस समय औरंगाबाद में थी.
ये दोनों ही जगहें महाराष्ट्र से करीब हजार मील की दूरी पर थीं. साल 1750 में मराठाओं ने दूर-दराज के इलाकों में लड़ने के लिए अपने संसाधन कम कर लिए.
पानीपत के युद्ध में मराठाओं की पराजय पहले से ही तय हो गई थी. 1760 में महाराष्ट्र के पटदूर में 10 महीने के कैंपेन के शुरू होने के साथ ही उनकी हार की मौन घोषणा हो गई थी.
उस समय मराठा सेना के सेनानायक इब्राहिम खान थे, जो दाखनी मुस्लिम थे और तोपों के नेतृत्व में शानदार थे. उनकी समग्रता बेहतरीन थी. पेशवाओं के साथ जुड़ने से पहले वो हैदराबाद के निजाम के यहां रह चुके थे.
मराठा सेना के लिए उनके पास दस हजार सैनिकों का बल था, जिसमें पैदल सैनिक और तोपें भी शामिल थीं. 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफगान सेना ने उन्हें पकड़कर उनकी हत्या कर दी.
घिर जाने के बाद अब्दाली, नाजिब खान रोहिल्ला और शुजा उद्दौला से जा मिला और उन्होंने मराठा कैंपों को दी जाने वाली मदद वापस ले ली. बावजूद इसके मराठा सैनिकों ने पूरी बहादुरी से सिंधिया और होल्करों का मुकाबला किया.
लेकिन उन्हें भारत के उत्तरी हिस्से में पड़ने वाली ठंड का कोई अनुमान नहीं था. पानीपत के खूनी मैदान पर 40 हजार मराठा सैनिकों को मार गिराया गया.
न जाने कितने ही कैंप के लोग अफगान सेनिकों की लूट का शिकार बने. इन कैंपों में केवल सैनिक नहीं थे. दरअसल, मराठा सेना अपने पहले के प्रदर्शनों और जीत से काफी आशांवित थी. इसलिए उसने अपने सामान्य नागरिकों को भी सेना के बीच में रहने की अनुमति दे रखी थी.
इन नागरिकों को उत्तर के धार्मिक स्थलों की यात्रा करनी थी जिसके लिए वे भी इन कैंपों में ही रह रहे थे. ऐसा कहा जाता है कि युद्ध जीतने के बाद अब्दाली सैकड़ों महिलाओं और बच्चों को अपने साथ युद्ध में जीती गई चीजों की तरह ही गुलाम बनाकर ले गया था.
जो युद्ध में जीवित बच गए और पकड़ में नहीं आए वो उत्तर भारत के ही दूसरे हिस्सों में बस गए.
14 जनवरी 1761 में मराठा आ गए और सुबह नौ बजे ही हमला शुरू कर दिया और महज छह घंटे बाद सबकुछ खत्म हो चुका था. ज्यादातर सेनानायक, जिनमें पेशवा का बेटा विश्वास राव और खुद सदाशिव राव भाऊ भी मारे गए. ये थी उस वक्त महाराष्ट्र की मकर संक्रांति.
ये एक ऐसा नुकसान था जिसकी कोई भरपाई नहीं हो सकती थी.
आज, मकर संक्रांति के ही दिन हजारों मराठा मारे गए थे, बच्चों और औरतों को गुलाम बनाया गया था. महाराष्ट्र में आज के दिन को संक्रांत कोसाली के रूप में जाना जाता है. जिसका मतलब है, एक ऐसी दुर्घटना जिसने सबकुछ बर्बाद कर दिया.
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