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भारतेंदु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra) को आज का आम पाठक किस रूप में देखता है? या ये कहें कि किस रूप में देखना चाहता है? क्योंकि भारतेंदु ने तो खुद को हर तरह से परोसा है, आप जैसा चाहें चुन लें. भारतेंदु को आधुनिक काल का प्रारंभ कहें, नवजागरण का अग्रदूत कहें, जनवादी साहित्यकार या आधुनिक हिंदी रंगमंच और कविता के पितामह, या फिर 'भारतेंदु' ही कह लें जो उनका नाम नहीं बल्कि उपाधि है, जो समय के साथ नाम का पर्याय बन गई. जिनकी पंक्तियों में "गोपी पद-पंकज पावन की रज जामै सिर भीजै" जैसी कठिनाई भी है, तो "गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में" जैसी सरलता भी.
भारतेंदु हरिश्चंद्र का पैतृक निवास स्थान 'भारतेंदु भवन' आज बाहर से कुछ ऐसा दिखाई देता है.
इस तस्वीर में बाईं ओर तामजान है, इसे आज भी घर के दालान में सहेजकर रखा गया है. इसी में बैठकर भारतेंदु काशी की गलियों में सैर करने निकलते थे. इसके बगल में पालकी है, कहा जाता है कि भारतेंदु की पत्नी तारामती इसमें बैठ कर ससुराल आईं थी.
भारतेंदु भवन का आंगन
भारतेंदु भवन के आंगन में रखा कलश. आज भी ये भवन अपनी प्राचीन आभा को बनाए हुए है. भारतेंदु भवन को भारतेंदु हरिश्चंद्र के वंशजों ने संजोकर रखा है.
भारतेंदु भवन में भारतेंदु से जुड़ी कुछ वस्तुएं ही मिलती हैं. बाकी सभी ऐतिहासिक धरोहरों को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत कला भवन में संरक्षित किया गया है.
भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में ही बनाई गई ये पेंटिंग आज भी भवन में संरक्षित है.
भारतेंदु भवन में बने कमरे और घर का डिजाइन
नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से लागाया गया बोर्ड
भारतेंदु भवन के एक कोने में गोपाल मंदिर स्थित है. भारतेंदु जी का परिवार वल्लभाचार्य का अनुयाई माना जाता है. आज भी भारतेंदु भवन में छप्पन भोग की परम्परा का पालन होता है.
बांई ओर भारतेंदु हरिश्चंद्र के वंशज दीपेश चौधरी हैं, जो इसी भवन में अपने परिवार के साथ रहते हैं और इसका संरक्षण करते हैं. दांई ओर क्विंट के धनंजय कुमार.
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