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बिहार में इंसेफलाइटिस से बच्चों की मौत को लेकर डॉक्टर निशाने पर हैं. रिपोर्टर अस्पताल के ICU में घुसकर डॉक्टरों से तीखे सवाल कर रहे हैं. लेकिन कैमरे के सामने गलत लोगों से गलत सवाल पूछने और बयान देने का स्टंट करके टीआरपी और वोट तो बटोरे जा सकते हैं, एक के बाद एक बेजान हो रहे बच्चों के जिस्म में जान नहीं लौटाई जा सकती है. बिहार और देश के बीमार मेडिकल सिस्टम की नब्ज पकड़नी है तो थोड़े गहरे में जाना होगा..
WHO के मुताबिक प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए यानी 10 हजार की आबादी पर कम से कम दस. अब जरा अपने देश का हाल जानिए.
संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2015 तक देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 27% डॉक्टरों के पद खाली थे. सेकंडरी लेवल यानी कम्युनिटी हेल्थ सेंटरों के 68% डॉक्टरों के पद खाली थे. अगर आपको देश में डॉक्टरों की कम संख्या पर बुखार आ रहा है तो बिहार का हाल देख बीमार हो जाएंगे.
स्थिति और भी भयानक हो सकती है. क्योंकि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बिहार में डॉक्टरों की संख्या और भी कम है. हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में बिहार हेल्थ सर्विसेज एसोसिएशन के महासचिव डॉ. रंजीत कुमार का दावा है कि बिहार में 11 हजार से ज्यादा स्वीकृत पदों के मुकाबले महज 2700 रेगुलर डॉक्टर काम कर रहे हैं.
कोई ताज्जुब नहीं कि जब बिहार में बुखार से मौतों पर बवाल मचा और उसके लिए डॉक्टरों को दोषी ठहराया जाने लगा तो कई लोगों ने सोशल मीडिया पर असल मुद्दे की तरफ ध्यान दिलाया.
क्विंट से बातचीत में पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के एक डॉक्टर ने नाम न लिखे जाने की शर्त पर बताया कि बिहार के सरकारी हेल्थ सिस्टम में कोई डॉक्टर काम ही नहीं करना चाहता. पिछले साल BPSC के जरिए जिन डॉक्टरों की भर्ती हुई उनमें से कई ने नौकरी ज्वाइन ही नहीं की, कुछ लोगों ने ज्वाइनिंग के एक महीने के भीतर नौकरी छोड़ दी.
जिस मुजफ्फरपुर के SKMCH में डॉक्टरों से ये पूछा जा रहा है कि एक ही बेड पर दो-दो मरीज क्यों रखे हैं, उसी मुजफ्फरपुर शहर से थोड़ा अंदर जाते ही मोतीपुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का हाल देख सारा माजरा समझ में आ जाता है. इस केंद्र में अक्सर बेड खाली रहते हैं. वहां मरीज जाते ही नहीं. सीधे मुजफ्फरपुर भागते हैं. वजह यहां चिकित्सा केंद्र में सही इलाज मिलने का भरोसा नहीं रहता. मरीज शहरों की तरफ भागते हैं और वहां भीड़ बढ़ जाती है.
अभी हाल ही में देश भर में डॉक्टरों की हड़ताल हुई. मामला शुरू हुआ कोलकाता के एक अस्पताल से, जहां एक मरीज की मौत के लिए डॉक्टरों पर लापरवाही बरतने का आरोप लगा. ऐसा नहीं है कि डॉक्टरों से लापरवाही नहीं होती लेकिन ये भी सच्चाई है कि मरीज ज्यादा हैं और डॉक्टर कम. ऐसे में कई बार सही समय पर इलाज नहीं मिलता और हादसे हो जाते हैं. ऐसे में मरीज के रिश्तेदारों और डॉक्टरों में टकराव स्वाभाविक प्रतिक्रिया है.
बड़े सरकारी अस्पतालों में एक-एक स्पेशलिस्ट के पास मरीजों का अंबार होता है. आप दिल्ली के एम्स का हाल देख लीजिए. यहां छोटी से छोटी सर्जरी के लिए महीनों का इंतजार होता है.
शोर मचाना किसी समस्या का हल नहीं. बच्चे मर रहे हैं, कैमरे के सामने स्टंट बंद कीजिए. गलत सवालों और खोखले बयानों से काम नहीं चलेगा. कुछ ठोस कीजिए. हेल्थ सिस्टम का इलाज कीजिए. डॉक्टरों को सुविधा दीजिए. खाली पद भरिए. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भरोसा बढ़ाइए. पंचायत लेवल पर एक एंबुलेंस दीजिए. मुजफ्फरपुर में हर साल दिमागी बुखार से मौतें होती हैं. साल भर जागरूकता अभियान चलाइए, खासकर गर्मियों के शुरू में. गर्मियों में शाम का स्कूल कीजिए. नहीं तो कभी बंगाल, कभी मुजफ्फरपुर तो कभी यूपी में हादसे होते रहेंगे.
फौरी राहत के लिए मुजफ्फरपुर में देश के दूसरे हिस्सों से डॉक्टर लाइए. मुजफ्फरपुर में एक को छोड़ निजी अस्पतालों ने मरीज लेने बंद कर दिया हैं, उन्हें तुरंत टाइट कीजिए.
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