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उत्तर प्रदेश की तरह बिहार (Bihar) में भी छुट्टा पशु किसानों की समस्या का बहुत बड़ा मुद्दा है. बिहार के कई किसान नीलगायों (Nilgai) और जंगली सूअरों से अपनी खड़ी फसल को बचाने के लिए खेत की निगरानी करते हुए रात में जागते रहते हैं. यहां तक कि कई ऐसे किसान हैं जिन्होंने नीलगायों के आतंक की वजह से खेती करनी ही छोड़ दी है.
सरकार के द्वारा नीलगाय पर लिए गए फैसले में बार-बार बदलाव की वजह से किसानों को कितना नुकसान हुआ और नीलगाय की संख्या में क्या बढ़ोतरी हुई है, आइए जानते हैं.
बिहार (Bihar) में 18 फरवरी 2022 को पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ने नीलगाय और जंगली सूअर के शिकार के लिए सूटर का पैनल तैयार करने से संबंधित आदेश जारी किया था. यह आदेश पूरे 6 साल बाद आया था. इससे पहले 2016 में ऐसा देखने को मिला था. 2022 के फरमान के मद्देनजर बिहार के कई गांवों में नीलगाय और जंगली सूअर का शिकार सरकार के द्वारा कराया जा रहा है.
फरवरी 2023 में बिहार सरकार ने नीलगाय और जंगली सूअर को मारने के लिए 13 पेशेवर निशानेबाजों को नियुक्त किया.
बिहार की राजधानी पटना से 250 किलोमीटर दूर सुपौल जिला के वीणा पंचायत के अनिल मिश्र किसानों से जमीन लीज पर लेकर करीब 5 बीघा (1 बीघा बराबर 20 कट्ठा) जमीन पर 2019 से सब्जी की खेती शुरू की.
2022 के जून आते-आते उन्होंने सब्जी की खेती छोड़कर गांव में ऑटो चलाना शुरू कर दिया. अनिल मिश्र के मुताबिक उन्होंने नीलगाय की वजह से सब्जी की खेती छोड़ दी है. पूरे वीणा पंचायत में करीब 300 से ज्यादा नीलगाय किसानों के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं. ये समस्या सिर्फ वीणा पंचायत के किसानों की नहीं है, बल्कि बिहार के लाखों किसान नीलगाय के आतंक से परेशान हैं.
सुपौल के कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े किसान नेता अमित चौधरी बताते हैं कि नील गाय से होने वाले बर्बादी के लिए किसानों को कोई भी मुआवजा नहीं मिलता है.
किसानों के मुताबिक नीलगाय की संख्या में बढ़ोतरी ही हो रही है, जबकि राज्य में नीलगायों या जंगली सूअरों की संख्या का कोई रिकॉर्ड नहीं है.
सुपौल जिला के वीणा पंचायत के वार्ड नंबर 13 के अतुल कुमार मिश्रा बताते हैं...
सुपौल जिला के अलावा मुजफ्फरपुर, मधेपुरा, वैशाली, सीतामढ़ी, भोजपुर, शिवहर और पश्चिम चंपारण में नीलगाय और जंगली सूअर की संख्या बहुत ज्यादा है. हालांकि कमोबेश सभी जिले में इन जानवरों का आतंक है. तभी तो राज्य सरकार ने पेशेवर निशानेबाजों की सूची सभी 38 जिलों के अधिकारियों को भेज दी है, ताकि जहां भी जरूरत हो उपयोग किया जा सके.
कशेरुकी कीट प्रबंधन (VPM) पर एआईएनपी (अखिल भारतीय नेटवर्क परियोजना) के रिसर्च के मुताबिक जंगली सूअर के कारण 15-40 प्रतिशत एवं नीलगाय के कारण 10-30 प्रतिशत तक फसलों का नुकसान होता है.
शिकार के समर्थन और विरोध के बीच नियम-कानून कागजों में सिमटकर रह गए हैं. हालात यह हैं कि नीलगाय की वजह से किसान खेती छोड़ दिए या फिर खेत की रक्षा कर रहे हैं. पर्यावरणविद और गंगा संरक्षक दीपक कुमार बताते हैं कि
मधेपुरा जिला के साहूगढ़ पंचायत में 2023 के अप्रैल महीने में 20 से ज्यादा नीलगायों को मारा गया. फॉरेस्टर रेनू कुमारी के मुताबिक आगे भी इस गांव में कैंप किया जाएगा, जिसके बाद सुपौल के किसानों को भी एक उम्मीद जगी है.
सुपौल के जिला वन पदाधिकारी रमेंद्र कुमार सिन्हा कहते हैं कि
नीलगाय और जंगली सुअर के खिलाफ राज्य के कई जिलों में सरकार के खिलाफ किसानों के द्वारा आंदोलन किया गया है. वैशाली जिला स्थित ऑल इंडिया किसान खेत मजदूर संगठन के संजय पासवान बताते हैं कि
कोसी क्षेत्र स्थित जन संघर्ष समिति के अध्यक्ष लक्ष्मण कुमार झा बताते हैं कि सरकार के आदेश के बाद भी मुखिया नीलगाय को मारने का आवेदन नहीं दे रहे हैं. किसानों के लगातार आंदोलन के बावजूद ना नीलगाय का निपटारा हो रहा ना ही नुकसान के लिए किसानों को मुआवजा मिल रहा.
मार्च 2021 में नीलगाय के मुद्दे को विधानसभा में उठाने वाले बिहार के विभूतिपुर विधानसभा के विधायक अजय कुमार बताते हैं कि
खेतों को तबाह कर रहे नील गाय की वजह से कई बार हुए सड़क हादसों में कई लोगों की जान जा चुकी है. समस्तीपुर के रहने वाले रजनीश बताते हैं कि 2021 के जनवरी महीने में समस्तीपुर जिला के पटोरी के रहने वाले गोपाल भारती अपने किसी मित्र को बाईक से हवासपुर छोड़कर घर लौट रहे थे, तभी अचानक नीलगाय का झुंड सड़क से गुजरने लगा. इसमें कई नीलगाय गोपाल के ऊपर से होते हुए गुजरे.
हादसे में गोपाल अपना एक आंख गंवा बैठे. साथ ही सिर में बहुत ज्यादा चोट के कारण गोपाल 3 दिन तक कोमा में रहे. समस्तीपुर में ही 2021 के अक्टूबर महीने में रोसड़ा प्रखंड के मुरादपुर के राम विलास साह की 60 वर्षीय पत्नी कबूतरी देवी की मौत नीलगाय की वजह से हुई थी. इस तरह के घटनाओं की खबरें बिहार के लिए आम हो चुकी हैं.
बिहार सरकार ने पहली बार 2007 में नीलगाय को मारने की अनुमति दी थी. आदेश के अनुरूप ही अप्रैल 2012 में इस शर्त के साथ नीलगाय को शिकार का आदेश दिया गया कि पहले जिलाधिकारी या एसडीएम से लिखित अनुमति लेनी होती थी, फिर नीलगाय के शव का अंतिम संस्कार करना अनिवार्य था.
आदेश कागजों तक ही सीमित रहा. साल 2013 में बिहार सरकार ने नीलगाय को संरक्षित प्रजातियों की सूची से हटा दिया. इसके बाद साल 2015 में केंद्र सरकार भी नीलगाय को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची 3 से अनुसूची 5 यानी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों की श्रेणी में ट्रांसफर कर दिया.
इसके बाद संसद में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री, मेनका गांधी और प्रकाश जावड़ेकर में जबरदस्त ठन गई थी. फिर से बिहार सरकार ने नील गाय को मारने के लिए बिहार सरकार ने 13 शूटर्स नियुक्त किए हैं.
बिहार के मुख्य वन्यजीव वार्डन पी के गुप्ता ने बताया कि
2016 में नीलगाय के शिकार के बाद सिर्फ संसद में ही नहीं बल्कि बिहार में भी कई लोगों ने इसका विरोध किया था. मुजफ्फरपुर जिले में मरवण पंचायत के स्थानीय जनप्रतिनिधि विकास सिंह भी इसमें शामिल थे. वो बताते हैं
वहीं मधेपुरा जिला के मौसम राज ग्रामीण व्यवस्था पर वीडियो बनाने के लिए सोशल मीडिया पर मशहूर हैं. वो बताते हैं कि शिकार के अलावा और भी वैकल्पिक उपाय हो सकते हैं. नीलगाय को वाल्मीकि टाइगर रिजर्व या अन्य पर्यावरण संरक्षित क्षेत्र, जैव विविधता विरासत स्थल भेज सकते हैं. गोली चलाकर मार रहे हैं, ये तो सरेआम सरकारी शिकार है. जानवरों को मारने का भी एक प्रोसेस होता है, जिसे अंग्रेजी में यूथेनेशिया कहते हैं.
बिहार के मोकामा के रहने वाले किसान अजय पाठक बताते हैं कि
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय पूसा के सह निदेशक प्रोफेसर डॉ एस.के. सिंह नीलगाय से होने वाले नुकसान के बारे में लिखते हैं कि किसानों की सबसे बड़ी समस्या नीलगाय में 'गाय' शब्द होने की वजह से है क्योंकि इसे गोवंश मानने की वजह से किसान इसकी हत्या नहीं कर पा रहे हैं. जंगल-झाड़ियों के खत्म होने के बाद नीलगाय खेतों में शरण ले रहे हैं.
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