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बिहार: नीलगाय की वजह से महंगी खेती छोड़ रहे किसान, सरकारी फरमान कितना असरदार?

Bihar सरकार के द्वारा नीलगाय पर लिए गए फैसले में बार-बार बदलाव की वजह से किसानों को कितना नुकसान हुआ?

राहुल कुमार गौरव
भारत
Published:
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बिहार: नीलगाय की वजह से मंहगी खेती छोड़ रहे किसान, सरकारी फरमान कितना असरदार?

(फोटो- राहुल कुमार गौरव/क्विंट हिंदी)

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उत्तर प्रदेश की तरह बिहार (Bihar) में भी छुट्टा पशु किसानों की समस्या का बहुत बड़ा मुद्दा है. बिहार के कई किसान नीलगायों (Nilgai) और जंगली सूअरों से अपनी खड़ी फसल को बचाने के लिए खेत की निगरानी करते हुए रात में जागते रहते हैं. यहां तक कि कई ऐसे किसान हैं जिन्होंने नीलगायों के आतंक की वजह से खेती करनी ही छोड़ दी है.

सरकार के द्वारा नीलगाय पर लिए गए फैसले में बार-बार बदलाव की वजह से किसानों को कितना नुकसान हुआ और नीलगाय की संख्या में क्या बढ़ोतरी हुई है, आइए जानते हैं.

बिहार (Bihar) में 18 फरवरी 2022 को पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ने नीलगाय और जंगली सूअर के शिकार के लिए सूटर का पैनल तैयार करने से संबंधित आदेश जारी किया था. यह आदेश पूरे 6 साल बाद आया था. इससे पहले 2016 में ऐसा देखने को मिला था. 2022 के फरमान के मद्देनजर बिहार के कई गांवों में नीलगाय और जंगली सूअर का शिकार सरकार के द्वारा कराया जा रहा है.

बिहार सरकार ने पहली बार 2007 में नीलगायों को मारने की छूट दी थी. इसके बाद जून 2016 में सरकार के आदेश से पटना जिले के मोकामा टाल में लगभग 250 नीलगायों को मार डाला गया, जिस पर काफी सवाल उठने के बाद नीलगाय को मारना बंद किया गया.

फरवरी 2023 में बिहार सरकार ने नीलगाय और जंगली सूअर को मारने के लिए 13 पेशेवर निशानेबाजों को नियुक्त किया.

"नीलगाय की वजह से मैंने सब्जी की खेती छोड़ दी"

बिहार की राजधानी पटना से 250 किलोमीटर दूर सुपौल जिला के वीणा पंचायत के अनिल मिश्र किसानों से जमीन लीज पर लेकर करीब 5 बीघा (1 बीघा बराबर 20 कट्ठा) जमीन पर 2019 से सब्जी की खेती शुरू की.

2022 के जून आते-आते उन्होंने सब्जी की खेती छोड़कर गांव में ऑटो चलाना शुरू कर दिया. अनिल मिश्र के मुताबिक उन्होंने नीलगाय की वजह से सब्जी की खेती छोड़ दी है. पूरे वीणा पंचायत में करीब 300 से ज्यादा नीलगाय किसानों के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं. ये समस्या सिर्फ वीणा पंचायत के किसानों की नहीं है, बल्कि बिहार के लाखों किसान नीलगाय के आतंक से परेशान हैं.

"किसानों को कोई भी मुआवजा नहीं मिलता"

सुपौल के कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े किसान नेता अमित चौधरी बताते हैं कि नील गाय से होने वाले बर्बादी के लिए किसानों को कोई भी मुआवजा नहीं मिलता है.

नील गाय से होने वाले बर्बादी के लिए किसानों को कोई भी मुआवजा नहीं मिलता है.

बिहार सरकार के एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट और जनसंपर्क विभाग के सोशल मीडिया और वेबसाइट पर भी नीलगाय से संबंधित कोई भी जानकारी नहीं दी गई है, जबकि कृषि विभाग और सूचना जनसंपर्क विभाग सोशल मीडिया बहुत ही एक्टिव है.

किसानों के मुताबिक नीलगाय की संख्या में बढ़ोतरी ही हो रही है, जबकि राज्य में नीलगायों या जंगली सूअरों की संख्या का कोई रिकॉर्ड नहीं है.

"गाम छोड़े के अलावा कोई रास्ता नहीं"

सुपौल जिला के वीणा पंचायत के वार्ड नंबर 13 के अतुल कुमार मिश्रा बताते हैं...

झुंड का झुंड नीलगाय पूरे खेत को बर्बाद कर देता है. गांव में मक्का और सब्जी की खेती लगाना लोग भूल चुके हैं. करीब 5 साल पहले से इसकी शुरुआत हुई है. पहले नीलगायों की संख्या 10-20 थी, अभी कम से कम 300-400 होगी. अगर प्रशासन ने कार्रवाई नहीं की तो किसानों के लिए आने वाला वक्त बहुत ही मुश्किल है. बार-बार शिकार की बातें होती हैं, लेकिन हो कुछ नहीं रहा है.

खेतों में नीलगायों का झुंड

(फोटो- राहुल कुमार गौरव/क्विंट हिंदी)

वीणा पंचायत के पड़ोसी पंचायत करिहो की जगिया देवी अपने दर्द बयां करती हुई अपनी भाषा में कहती हैं कि ना गेंहू-ना चिकना-ना खेसारी कुछो फसल नहीं होने दे रहा हैं नील गाय. आमक टिकुला तक खा लेता है. सब्जी का खेती तो भूलए गए है. किसानों के पास गाम छोड़े के अलावा कूनूं रास्ता नै बचा है. (नीलगायों का झुंड कोई फसल नहीं होने दे रहा है, छोटे कच्चे आम तक को खा जाते हैं. किसान सब्जी की खेती भूल गए हैं. किसानों के पास गांव छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है.)

सुपौल के अलावा भी कई जिलों में जानवरों का आतंक

सुपौल जिला के अलावा मुजफ्फरपुर, मधेपुरा, वैशाली, सीतामढ़ी, भोजपुर, शिवहर और पश्चिम चंपारण में नीलगाय और जंगली सूअर की संख्या बहुत ज्यादा है. हालांकि कमोबेश सभी जिले में इन जानवरों का आतंक है. तभी तो राज्य सरकार ने पेशेवर निशानेबाजों की सूची सभी 38 जिलों के अधिकारियों को भेज दी है, ताकि जहां भी जरूरत हो उपयोग किया जा सके.

कशेरुकी कीट प्रबंधन (VPM) पर एआईएनपी (अखिल भारतीय नेटवर्क परियोजना) के रिसर्च के मुताबिक जंगली सूअर के कारण 15-40 प्रतिशत एवं नीलगाय के कारण 10-30 प्रतिशत तक फसलों का नुकसान होता है.

नीलगाय को मारने का सरकारी फरमान बेअसर?

शिकार के समर्थन और विरोध के बीच नियम-कानून कागजों में सिमटकर रह गए हैं. हालात यह हैं कि नीलगाय की वजह से किसान खेती छोड़ दिए या फिर खेत की रक्षा कर रहे हैं. पर्यावरणविद और गंगा संरक्षक दीपक कुमार बताते हैं कि

बिहार सरकार के द्वारा कई बार शिकार का फरमान जारी हो चुका है लेकिन जंगली सूअर और नीलगाय से मुक्ति नहीं मिली है. उम्मीद है इस बार सरकार किसानों को नीलगाय की समस्या से मुक्ति दिला देगी. एक तरफ नीलगाय को शिकार करने का फरमान निकलता है, वहीं दूसरी तरफ राज्य के कई आदिवासी जंगली सुअर की शिकार में जेल में हैं.

मधेपुरा जिला के साहूगढ़ पंचायत में 2023 के अप्रैल महीने में 20 से ज्यादा नीलगायों को मारा गया. फॉरेस्टर रेनू कुमारी के मुताबिक आगे भी इस गांव में कैंप किया जाएगा, जिसके बाद सुपौल के किसानों को भी एक उम्मीद जगी है.

बिना पंचायत के अतुल कुमार मिश्र उम्मीद भरी आवाज में कहते हैं कि हमारे जनप्रतिनिधियों को भी इस मसले पर सोचना चाहिए.

सुपौल के जिला वन पदाधिकारी रमेंद्र कुमार सिन्हा कहते हैं कि

पंचायत के मुखिया ग्राम सभा बुलाकर प्रस्ताव पारित कर आवेदन दें. आवेदन देने के बाद हम लोग कार्रवाई करेंगे.

'गाय' नाम नीलगाय के लिए संकट मोचन?

खेतों में नीलगायों का झुंड

(फोटो- राहुल कुमार गौरव/क्विंट हिंदी)

नीलगाय और जंगली सुअर के खिलाफ राज्य के कई जिलों में सरकार के खिलाफ किसानों के द्वारा आंदोलन किया गया है. वैशाली जिला स्थित ऑल इंडिया किसान खेत मजदूर संगठन के संजय पासवान बताते हैं कि

बिहार के हर जिले में अलग-अलग किसान संगठन है, जो सिर्फ जिले की अपनी समस्या रखते हैं. हरियाणा और पंजाब की तरह बिहार में भी एक मजबूत किसान संगठन होना चाहिए. किसान वक्त रहते आंदोलन करते तो नीलगाय की समस्या खत्म हो गई रहती. किसान अभी भी नहीं चेते तो प्रत्येक जिले में इससे भी भयानक तस्वीर देखने को मिलेगी.
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कोसी क्षेत्र स्थित जन संघर्ष समिति के अध्यक्ष लक्ष्मण कुमार झा बताते हैं कि सरकार के आदेश के बाद भी मुखिया नीलगाय को मारने का आवेदन नहीं दे रहे हैं. किसानों के लगातार आंदोलन के बावजूद ना नीलगाय का निपटारा हो रहा ना ही नुकसान के लिए किसानों को मुआवजा मिल रहा.

मार्च 2021 में नीलगाय के मुद्दे को विधानसभा में उठाने वाले बिहार के विभूतिपुर विधानसभा के विधायक अजय कुमार बताते हैं कि

'गाय' नाम नीलगाय के लिए संकट मोचन बना हुआ है. धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत व्यक्ति गाय और नीलगाय में फर्क नहीं कर पा रहा है. हालांकि अब किसान समझ चुके हैं. सरकार भी कड़े फैसले लेने के लिए तैयार है.

सड़कों पर नीलगाय का खतरा बेशुमार

खेतों को तबाह कर रहे नील गाय की वजह से कई बार हुए सड़क हादसों में कई लोगों की जान जा चुकी है. समस्तीपुर के रहने वाले रजनीश बताते हैं कि 2021 के जनवरी महीने में समस्तीपुर जिला के पटोरी के रहने वाले गोपाल भारती अपने किसी मित्र को बाईक से हवासपुर छोड़कर घर लौट रहे थे, तभी अचानक नीलगाय का झुंड सड़क से गुजरने लगा. इसमें कई नीलगाय गोपाल के ऊपर से होते हुए गुजरे.

हादसे में गोपाल अपना एक आंख गंवा बैठे. साथ ही सिर में बहुत ज्यादा चोट के कारण गोपाल 3 दिन तक कोमा में रहे. समस्तीपुर में ही 2021 के अक्टूबर महीने में रोसड़ा प्रखंड के मुरादपुर के राम विलास साह की 60 वर्षीय पत्नी कबूतरी देवी की मौत नीलगाय की वजह से हुई थी. इस तरह के घटनाओं की खबरें बिहार के लिए आम हो चुकी हैं.

नीलगाय मुद्दे पर जब दो सांसदों में ठनी

बिहार सरकार ने पहली बार 2007 में नीलगाय को मारने की अनुमति दी थी. आदेश के अनुरूप ही अप्रैल 2012 में इस शर्त के साथ नीलगाय को शिकार का आदेश दिया गया कि पहले जिलाधिकारी या एसडीएम से लिखित अनुमति लेनी होती थी, फिर नीलगाय के शव का अंतिम संस्कार करना अनिवार्य था.

आदेश कागजों तक ही सीमित रहा. साल 2013 में बिहार सरकार ने नीलगाय को संरक्षित प्रजातियों की सूची से हटा दिया. इसके बाद साल 2015 में केंद्र सरकार भी नीलगाय को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची 3 से अनुसूची 5 यानी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले जीवों की श्रेणी में ट्रांसफर कर दिया.

साल 2015 के दिसंबर महीने में ही केंद्र सरकार ने एक साल की अवधि के लिए नीलगायों को मारने की अनुमति छूट दी थी. आदेश के मुताबिक जून 2016 में तीन दिनों के अंदर पटना जिले के मोकामा टाल में लगभग 250 नीलगायों को मार दिया गया था.

इसके बाद संसद में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री, मेनका गांधी और प्रकाश जावड़ेकर में जबरदस्त ठन गई थी. फिर से बिहार सरकार ने नील गाय को मारने के लिए बिहार सरकार ने 13 शूटर्स नियुक्त किए हैं.

बिहार के मुख्य वन्यजीव वार्डन पी के गुप्ता ने बताया कि

पशुओं की पहचान करने और उन्हें मारने की अनुमति देने के लिए मुखिया को ‘नोडल अथॉरिटी’ के रूप में नियुक्त किया गया है. मुखिया अपने क्षेत्र के किसानों की शिकायतों को सत्यापित करने के बाद निशानेबाजों को शिकार का परमिट जारी करेगा. अभियान के तहत जानवरों को मारने से लेकर उन्हें दफनाने तक की प्रक्रिया होगी.

शिकार के विरोध और समर्थन में क्या कहते हैं लोग?

2016 में नीलगाय के शिकार के बाद सिर्फ संसद में ही नहीं बल्कि बिहार में भी कई लोगों ने इसका विरोध किया था. मुजफ्फरपुर जिले में मरवण पंचायत के स्थानीय जनप्रतिनिधि विकास सिंह भी इसमें शामिल थे. वो बताते हैं

नीलगाय को मारने के बाद उसके मांस की तस्करी शुरू हो गई थी. मैं चाहता था कि नीलगाय की नसबंदी हो या फिर इसे यहां से बाहर लेकर जाया जाए.

वहीं मधेपुरा जिला के मौसम राज ग्रामीण व्यवस्था पर वीडियो बनाने के लिए सोशल मीडिया पर मशहूर हैं. वो बताते हैं कि शिकार के अलावा और भी वैकल्पिक उपाय हो सकते हैं. नीलगाय को वाल्मीकि टाइगर रिजर्व या अन्य पर्यावरण संरक्षित क्षेत्र, जैव विविधता विरासत स्थल भेज सकते हैं. गोली चलाकर मार रहे हैं, ये तो सरेआम सरकारी शिकार है. जानवरों को मारने का भी एक प्रोसेस होता है, जिसे अंग्रेजी में यूथेनेशिया कहते हैं.

नीलगाय की वजह से खेत को घेरकर खेती करते किसान

(फोटो- राहुल कुमार गौरव/क्विंट हिंदी)

पर्यावरण वन विभाग के द्वारा दिसंबर 2021 में सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया था कि घोड़परास/नीलगाय की संख्या नियंत्रण के लिए उन्हें प्राकृतिक निवास वाल्मिकी टाइगर रिजर्व में सफलतापूर्वक छोड़ दिया जा रहा है. देश में पहली बार जानवरों की संख्या नियंत्रण के लिए नसबंदी का सफल उपयोग बिहार वन विभाग द्वारा किया गया.

बिहार के मोकामा के रहने वाले किसान अजय पाठक बताते हैं कि

बिहार का मोकामा टाल एक तो यूं ही सरकार की उपेक्षा के कारण श्मशान होता जा रहा है. उस पर भी अगर नीलगाय सैंकड़ों एकड़ फसल को रौंद दे तो क्या होगा. नीलगाय के शिकार का विरोध करने वालों को समझना चाहिए कि करोड़ों लोगों की थाली में दाल-रोटी दिखे, इसके लिए भी नीलगाय पर नियंत्रण जरुरी है. नीलगाय की वजह से दलहन फसल कम होती जा रहा है. नीलगाय किसी जंगल की रक्षा नहीं करती और न ही इनके मर जाने से उत्तर भारत में फूडचैन पर कोई असर होने वाला है.

शिकार के अलावा कोई रास्ता है?

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय पूसा के सह निदेशक प्रोफेसर डॉ एस.के. सिंह नीलगाय से होने वाले नुकसान के बारे में लिखते हैं कि किसानों की सबसे बड़ी समस्या नीलगाय में 'गाय' शब्द होने की वजह से है क्योंकि इसे गोवंश मानने की वजह से किसान इसकी हत्या नहीं कर पा रहे हैं. जंगल-झाड़ियों के खत्म होने के बाद नीलगाय खेतों में शरण ले रहे हैं.

समस्तीपुर के एक किसान सुधीर शाह के अनुभव से मैं बता रहा हूं कि नीलगाय मांसाहारी नहीं होता है इसलिए अपने खेत में दो अंडे को 15 लीटर पानी में घोलकर 15-20 दिन छोड़ कर छिड़काव करेंगे, तो नीलगाय उस खेत की तरफ नहीं आएगी. यह जानवर स्वभाव से सख्त शाकाहारी होते है. उन्हें सड़े हुए अंडे की दुर्गंध बिल्कुल नापसंद है.
डॉ एस.के. सिंह, सह निदेशक, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, पूसा, बिहार

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