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वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी
महात्मा गांधी ने कहा था- बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो और बुरा मत देखो. गांधी जी की इस सलाह का बिहार सरकार अक्षरशः पालन कर रही है. राज्य की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय बुरे सवालों को सुनते ही नहीं और कान बंद करके चले जाते हैं. नीति आयोग की रिपोर्ट में लगातार बिहार के फिसड्डी होने के सवाल पर मुख्यमंत्री -'पता नहीं' कहकर अपना मुंह बंद कर लेते हैं और बुरा बोलने से बच जाते हैं. लेकिन हम बुरा देखेंगे और आपको दिखाएंगे भी क्योंकि आंखें बंद कर लेने से बुराइयां खत्म नहीं हो जाती. आज हम आपको बिहार में पब्लिक हेल्थ सिस्टम की सच्चाई बताएंगे.
दरअसल नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि देश भर के जिला अस्पतालों की स्टडी में बिहार नंबर वन है, नीचे से. रिपोर्ट के मुताबिक देश के जिला अस्पतालों में प्रति एक लाख की आबादी पर औसतन 24 बेड हैं. सबसे अच्छी स्थिति पुडुचेरी की है जहां के जिला अस्पतालों में औसतन 222 बेड उपलब्ध हैं. जबकि बिहार की हालत सबसे ज्यादा खराब है, बिहार के जिला अस्पतालों में औसतन मात्र 6 बेड मौजूद हैं. जबकि Indian Public Health Standards 2012 के दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रति 1 लाख जनसंख्या पर 22 बेड होने चाहिए.
और जब नीति आयोग की रिपोर्ट में सबसे बदतर स्थिति होने की वजह स्वास्थ्य मंत्री से पूछी गई तो वो सवालों से भागने लगे. हालांकि मुख्यमंत्री ने बड़ा दिल दिखाते हुए पूरा सवाल सुना, और ये कहकर चलते बने कि उन्हें कुछ नहीं पता. अब आप उस राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत का अंदाजा लगा सकते हैं जहां मुख्यमंत्री को कुछ पता नहीं और स्वास्थ्य मंत्री को अपने विभाग से ज्यादा क्रिकेट का स्कोर जानने में दिलचस्पी रहती है.
कोरोना की दोनों लहरों के दौरान लोगों को अस्पतालों में बेड की भारी कमी से जूझना पड़ा, खुद स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय के गृह जिले सिवान के सदर अस्पताल में मरीज बेड पर नहीं जमीन पर पड़े हुए थे. हालांकि सरकार हमेशा ये दावा करती रही कि अस्पतालों में बेड की कहीं कोई कमी नहीं है. लेकिन नीति आयोग की इस रिपोर्ट ने सरकार के दावों को झुठला दिया है क्योंकि इस रिपोर्ट के लिए आंकड़े कोरोना महामारी के फैलने से ठीक पहले जुटाए गए थे. ये तो बात रही अस्पतालों में बेड्स की कमी की, अब आपको बिहार में डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के बारे में बताते हैं.
हालांकि मार्च, 2021 में विधानसभा में स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने दावा किया था कि बिहार में WHO के मानकों के बराबर डॉक्टर उपलब्ध हैं. मंगल पांडेय के मुताबिक बिहार में 40,200 एलोपैथिक, 33,922 आयुष, 34,257 होमियोपैथिक, 5,203 यूनानी डॉक्टर और 6,130 डेंटिस्ट मौजूद हैं. यानी 12 करोड़ की आबादी पर लगभग 1 लाख 20 हजार डॉक्टर उपलब्ध हैं, तो हो गया 1,000 की आबादी पर 1 डॉक्टर.
खैर, सरकार ही जाने कि जब डॉक्टर भरपूर थे तो इसी साल कोरोना की दूसरी लहर के दौरान डॉक्टरों और पैरा मेडिकल स्टाफ की वॉक इन इंटरव्यू के जरिए भर्तियां क्यों कीं? हालांकि ये भर्तियां भी सिर्फ 3 महीने के लिए थीं और इसमें भी कई जगहों से बड़े पैमाने पर अनियमितता की खबरें आईं. लेकिन सूबे के स्वास्थ्य मंत्री पूरे देश में ही डॉक्टरों की कमी का हवाला देकर हमेशा अपना पल्ला झाड़ लेते हैं.
मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री भले ही नीति आयोग की रिपोर्ट पर कुछ न बोल रहे हों लेकिन बिहार सरकार के भवन निर्माण मंत्री अशोक चौधरी ने तो नीति आयोग की रिपोर्ट को मानने से ही इनकार कर दिया है. और अब खबर ये है कि बिहार का अपना खुद का 'नीति आयोग' होगा. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बिहार सरकार ने नीति आयोग की तर्ज पर जिलों की रैंकिंग करने का फैसला लिया है. 17 प्रमुख मानकों पर जिलों की क्या उपलब्धि रही है, इसके आधार पर रैंकिंग होगी. ताकि राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न मानकों पर बिहार की उपलब्धियों को और बेहतर किया जा सके.
ऐसा भी नहीं है कि बिहार सरकार ने कोई पहली बार नीति आयोग की रिपोर्ट को मानने से इनकार किया है. जून, 2021 में ही नीति आयोग के Sustainable Development Goals इंडेक्स में बिहार सबसे निचले पायदान पर था. और बीते 27 सितंबर को ही बिहार के योजना विकास मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव ने इस रिपोर्ट को मानने से इनकार करते हुए आरोप लगाया कि रिपोर्ट में आयोग ने बिहार की प्रगति को शामिल नहीं किया है और यह बिहार के साथ अन्याय है.
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