संडे व्यू : शहंशाह हैं शाह, BSP को बदलनी होगी रणनीति

बदले हुए संदेश की प्रयोगशाला हैं ताजा नतीजे, महापंडितों ने एक बार फिर दिखाई नाकामी

द क्विंट
भारत
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बदले हुए संदेश की प्रयोगशाला

हिंदी दैनिक जनसत्ता में पी. चिदंबरम ने पांच राज्यों में बीजेपी के प्रदर्शन का जायजा लिया और इसपर अपना नजरिया पेश किया है. वह लिखते हैं- इसमें दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को जैसी जीत हासिल हुई है उससे यह बात एक बार फिर साबित हुई कि नरेंद्र मोदी आज देश में सबसे प्रभावी राजनेता हैं. इन दो राज्यों में भाजपा को जो भारी जीत मिली है वह अप्रत्याशित और विस्मयकारी है.

यह समय नरेंद्र मोदी का है. उन्होंने असंदिग्ध रूप से यह साबित कर दिखाया है कि उनका प्रभाव अखिल भारतीय है. यह गुजरात और गोवा से लेकर असम और मणिपुर तक है. बिहार में फिसलने के बाद वे फिर से अपनी रौ में आ गए हैं, यह साबित करते हुए कि लोगों के गले अपनी बात उतारने में उनका कोई सानी नहीं है.

2014 में उनका संदेश था विकास; 2017 में उन्होंने बड़ी चतुराई से उस संदेश को बना दिया है विकास+, अब बहस इस पर होगी कि वह मायावी और अबूझ चीज क्या है जिसे उन्होंने अपने संदेश में जोड़ा है.

‘सबका साथ, सबका विकास’ के ‘सब’ को उन्होंने बड़ी होशियारी से बदल कर उसमें कुछ वर्गों को सम्मिलित किया है और बाकी को बाहर कर दिया है. उत्तर प्रदेश इस नए, बदले हुए संदेश को आजमाने की प्रयोगशाला थी.

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के अपने निहितार्थ हैं. बिहारचुनाव के ऐन पहले मैंने कहा था कि ‘जीते या हारे, भाजपा दो में से कोई एक दिशा चुन सकती है.’ मुझे उम्मीद थी कि वह थोड़ा ठहर कर हालात का जायजा लेगी, एक कदम पीछे हटेगी और देश को विकास के रास्ते पर ले जाएगी. हम उम्मीद करते हैं कि नए रोजगार सृजित होंगे, निवेश होगा, किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम मिलेंगे, आय का स्तर बढ़ेगा, गरीबों के लिए कल्याण योजनाएं लागू की जाएंगी, और यह कि हम एक खुला, आजाद, उदार और लोकतांत्रिक समाज बने रहेंगे.

मोदी–गरीबों का नया मसीहा

टाइम्स ऑफ इंडिया में एम जे अकबर में यूपी और उत्तराखंड में बीजेपी की शानदार जीत के बीच लिखा है कि नरेंद्र मोदी के तौर पर देश के गरीबों का नया मसीहा मिल गया है. लंबे समय तक वोटों के सौदागर गरीबी की सच्चाई पर परदा डाले रहे और पुराने और बनाए गई पहचान के पीछे लोगों की आकांक्षाओं को दबाते रहे. वोटों के सौदागर ने अल्पसंख्यक वोटरों के सामने एक नया शब्द पैदा किया है. और वह है- असुरक्षा. लालू यादव अक्सर गुड-गर्वनेंस का मजाक उड़ाया करते थे.

लेकिन नरेंद्र मोदी के तौर पर गरीबों को एक ऐसा नेता मिला है, जो उनके सपनों को पूरा करने के लिए काम कर रहा है. अकबर ने मुद्रा, जनधन जैसी योजनाओं का हवाला देकर लिखा है- यह धर्म का नहीं विकास का चुनाव था. यह हमें मिले गरीबी के अभिशाप को मिटाने का चुनाव था. यह गुड गर्वनेंस का चुनाव था.

यह एक ऐसे पीएम के नेतृत्व में लड़ा गया चुनाव था जो किसी भी कीमत पर भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं कर सकता. यह घिसे-पिटे राजनीतिक नेताओं का नहीं जनता का चुनाव था. यह चुनाव सबका साथ, सबके विकास के लिए था.

शहंशाह शाह

इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार कुमी कपूर अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में लिखती हैं कि अमित शाह भाजपा के अब तक सबसे प्रभावशाली अध्यक्ष साबित हुए हैं. लौह पुरुष माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी भी भाजपा अध्यक्ष के तौर पर अपने सबसे अच्छे दिनों में भी इतने ताकतवर नहीं रहे.

कुमी लिखती हैं- कुछ दिनों पहले जब विजिटर बीजेपी दफ्तर पहुंचे तो देखा कि पार्टी के पदाधिकारी गेट पर शाह की अगवानी को किस कदर आतुर थे. किसी अध्यक्ष का अब तक ऐसा स्वागत नहीं किया गया था. टीवी पर एग्जिट पोल दिखा रहे एक बड़े अंग्रेजी न्यूज चैनल ने संबंधित पार्टियों की टैली के आगे अखिलेश यादव,राहुल और मायावती के साथ मोदी का नहीं अमित शाह का फोटो दिखाया.

पीएम मोदी शायद इससे न चौंके हों. बहरहाल शाह भले ही विधानसभा चुनाव के सबसे बड़े रणनीतिकार रहे हों लेकिन यह मोदी का ही जादू था, जिसने यूपी की सीटें बीजेपी की झोली में डाली.

राजनीतिक पंडितों की नाकामी

दैनिक जनसत्ता में तवलीन सिंह ने चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करने में नाकाम रहने पर राजनीतिक पंडितों की खिंचाई की है. वह लिखती हैं- कल सुबह जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, आपने भी शायद देखा होगा कि किस तरह राजनीतिक पंडितों के चेहरे उतरे हुए थे. वही लोग, जो परसों तक ऐसे पेश आ रहे थे टीवी पर जैसे उनको राजनेताओं से भी ज्यादा जानकारी थी कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में क्या होने वाला है, मायूस और शर्मिंदा नजर आ रहे थे.

हम राजनीतिक पंडितों और देश के मतदाताओं के बीच इतनी दूरियां कैसे बन गई हैं कि 2014 के आम चुनाव से लेकर आज तक ये बढ़ती ही गई हैं. क्या इन दूरियों का खास कारण यह है कि हम सेक्युलर पंडितों की नजरों में नरेंद्र मोदी अब भी वही ‘मौत का सौदागर’ है, जिसको हमने देश का प्रधानमंत्री बनने के काबिल नहीं समझा था कभी? क्या हमने अब भी इस सच को हजम नहीं किया है कि भारत की जनता की नजरों में मोदी कुछ और ही हैं?

अब नौजवान मतदाता सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि विकास के तौर पर उनके लिए कौन क्या कर सकता है. हम राजनीतिक पंडित अब भी उस पुराने दौर में जी रहे हैं, जिसमें सारा खेल था जातिवाद और धर्म-मजहब का. सो, शर्म आनी चाहिए हमें, लेकिन शायद आएगी नहीं. चुनावों का कारवां गुजर जाएगा अगले हफ्ते तक, कारवां का गुबार हवाओं में उड़ जाएगा और हम शायद फिर बने रहेंगे उसी सेक्युलरिज्म के कुएं के मेंढक.

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2019 भी मोदी के खाते में

हिन्दुस्तान टाइम्स में शेषाद्रि चारी ने 2017 के विधानसभा चुनावों को लोकसभा 2019 के चुनावों के देखने का माध्यम करार दिया है. चारी का कहना है कि देश में वामपंथी राजनीति के अवशेष ही बच गए हैं. लिहाजा अब दो राष्ट्रीय पार्टी ही रह गई है. एक मोदी जैसे डायनेमिक नेता के नेतृत्व में बीजेपी और दूसरी लुंजपुंज नेता की अगुवाई वाली कांग्रेस.

चारी लिखते हैं कि लोकसभा 2019 के चुनाव में नतीजे बीजेपी के पक्ष में रहेंगे. लगता नहीं है कि कांग्रेस कभी गांधी परिवार से छुटकारा पाएगी. हालांकि गैर भाजपा (मोदी विरोधी) गठबंध बनाने की गंभीर कोशिश होगी लेकिन किसी वैकल्पिक सकारात्मक एजेंडे के अभाव में वोटरों का बीजेपी से नाता नहीं टूटेगा.

इसके अलावा राहुल गांधी लोगों को स्वीकार्य नहीं होंगे. दूसरी बात यह कि लगभग दस राज्यों में 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ चुनाव होंगे. ऐसे में उस दौरान ममता बनर्जी, नीतीश कुमार डीएमके या बीजेडी में से कोई भी कांग्रेस से गठजोड़ नहीं करना चाहेगा. बहरहाल, जीएसटी लागू होने को है. मेक इन इंडिया का भी स्थायी असर दिख रहा है. बेरोजगारी नियंत्रण में है. यूपी में बीजेपी अच्छा प्रशासन देगी और मानसून बेहतर रहने की उम्मीद है. साथ ही मोदी फैक्टर मिल कर 2019 के लोकसभा चुनाव को भी बीजेपी के पक्ष में मोड़ देंगे.

बीएसपी को बदलनी होगी रणनीति

हिन्दुस्तान टाइम्स में बद्रीनारायण ने बीजेपी की जीत और समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी की हार का विश्लेषण किया है. उन्होंने लिखा है कि अमित शाह ने गैर यादव पिछड़ी जातियों, गैर जाटव और गौड़, लुहार, कुम्हार, बिंद, मल्लाह, पाल, राजभर चौहान जैसी 40 अत्यंत पिछड़ी जातियों का गठजोड़ तैयार किया.

इन जातियों की आबादी काफी कम है लेकिन ये मिलकर एक बड़ा वोट बैंक बन जाते हैं. दूसरी पार्टियों ने भी दलितों और अत्यंत पिछड़ी जातियों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. मायावती के नेतृत्व में बीएसपी ने दलित वोट बैंक को एकजुट रखने की बात की जबकि बीजेपी और एसपी-कांग्रेस ने गैर जाटव दलित वोटरों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की.

मायावती ने जाटवों के अलावा गैर जाटव दलितों को भी साथ लेने की कोशिश की. इसमें कोई शक नहीं कि दलित मायावती के साथ रहे. लेकिन कई वजहें हो सकती हैं, जिससे बीएसपी हार गई. पहली वजह यह कि मायावती जाटव मध्य वर्ग की आकांक्षाओं को पूरा करने में कई बार नाकाम रही होंगी.

गैर दलितों को पार्टी में शामिल करने से भी दलितों का एक वर्ग उनसे दूर छिटका होगा. इसके अलावा दलित-मुस्लिम समीकरण ने उनके पीछे ठीक से काम नहीं किया. ग्रामीण क्षेत्र के मुसलमान बीएसपी के वादों से खुद को जोड़ नहीं पाए. साफ है कि बीएसपी को अब रणनीति पर नए सिरे से सोचना होगा.

नतीजों के बीच कुछ नीति की बात

दैनिक अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने नतीजों के बीच कुछ नीति की बात की ओर ध्यान दिलाया है. वह सीएसडीएस की एक शोध रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखते हैं- पूरे दक्षिण एशिया में अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं. नेपाल को छोड़ कर धार्मिक अल्पसंख्यकों ने धार्मिक बहुसंख्यकों की तुलना में लोकतंत्र के विचार का कहीं अधिक सक्रियता से समर्थन किया.

लोकनीति ने अपने पूर्व के अध्ययन में पाया था कि 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उत्तर भारत के मुस्लिमों ने अधिक संख्या में वोट देना शुरू किया. पुलिस की प्रताड़ना और बहुसंख्यक समुदाय के अनेक लोगों द्वारा संदेह से देखे जाने के कारण दक्षिण एशिया में अल्पसंख्यक वर्ग मतपेटियों की निष्पक्षता पर भरोसा करता है क्योंकि प्रत्येक मतदाता कोई भी भाषा बोलता हो या फिर किसी भी धर्म का, सबका वोट बराबर होता है.

पूरे दक्षिण एशिया में महिलाओं के साथ अनेक तरह के भेदभाव होते हैं. चाहे घर हो, या गांव या कार्यालय या शहर महिलाओं का हर जगह उत्पीड़न होता है. महिलाओं के प्रति व्यवहार के मामले में दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे अलोकतांत्रिक क्षेत्र है.

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