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बुल्ली डील (Bulli Bai) ऐप चलाने वाले गिरफ्तार कर लिए गए हैं. इस ऐप में खास तौर से मुस्लिम औरतों की सोशल मीडिया तस्वीरों को इस्तेमाल करके उनकी ‘नीलामी’ की जा रही थी. इस शर्मनाक हादसे पर लगातार बहस की जा रही है. कई दक्षिणपंथी सोशल मीडिया हैंडल्स दुहाई दे रहे हैं कि इस मुद्दे को बेमतलब तवज्जो दी जा रही है. अपराधी धर लिए गए हैं और यह एक सामान्य अपराध ही है. फिर इसे राजनीति और धर्म के नजरिए से क्यों देखा जा रहा है.
लेकिन यह जरूरी कि हम इस घटना के सामाजिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को समझें. हम समझें कि भले ही यह शारीरिक यौन हिंसा का मामला नहीं है लेकिन इस अपराध के पीछे की मानसिकता उस दैहिक हिंसा से कमतर भी नहीं. दोनों में इरादा एक ही है.
जब हम यौन हिंसा की बात करते हैं तो यह सिर्फ सेक्स से संबंधित नहीं होता. यह ताकत से जुड़ा होता है, जैसा कि अमेरिकी लेखक और वकील जिल निकोल फिलिपोविक ने गार्डियन के अपने पीस में लिखा है- बलात्कारी (या यौन हिंसा का अपराधी) को उसके वे संस्कार उकसाते हैं जिसमें औरतें दोयम दर्जे की नागरिक होती हैं. जहां औरतों की देह का राजनीतिकरण किया जाता है. जहां सोशल हेरारकी कुछ लोगों, खासकर मर्दों को ऊंचा दर्जा देती है.
अगर यौन हिंसा को ताकत की इस आजमाइश के लिहाज से समझें तो हम तमाम ऐसे हादसे याद कर सकते हैं जिनमें औरतों की देह और वजूद को जंग का मैदान बनाया गया है.
जैसे गुजरात नरसंहार को याद किया जा सकता है. खास तौर से बिलकिस बानो की आपबीती. बिलकिस का मामला गुजरात नरसंहार का सबसे भयावह मामला था. गुजरात में अहमदाबाद के पास भीड़ ने 3 मार्च 2002 को बिलकिस बानो के परिवार पर हमला किया था. बिलकिस उस समय 21 साल की थीं और गर्भवती थीं. उसके साथ गैंगरेप किया गया और उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया.
उस समय यूएस, यूके, फ्रांस, जर्मनी और श्रीलंका की जेंडर एक्टिविस्ट्स की एक इंटरनेशनल फैक्ट फाइंडिंग कमिटी ने कहा था कि राज्य में अल्पसंख्यक औरतों को डराने की रणनीति के तौर पर यौन हिंसा का इस्तेमाल किया गया था. ब्रिटिश साइकोलॉजिस्ट और एक्टिविस्ट रूथ सिफोर्ट 'द फीमेल बॉडी एज अ पॉलिटिकल बॉडी- रेप, वॉर एंड द नेशन' में इस बात को पुख्ता करती हैं.
उनके हिसाब से औरतों का शरीर सत्ता और प्रभुत्व की राजनीतिक प्रतीक है और बलात्कार (या उसकी धमकी) यह सुनिश्चित करती है कि वे उनकी जातीय प्रभुता पर सवाल न खड़े कर पाएं.
लेकिन यह बात सिर्फ धार्मिक हिंसा पर ही नहीं, जातीय हिंसा पर भी लागू होती है. जब अगड़ी जातियां, दलितों को यौन हिंसा का शिकार बनाती हैं तो इसका मकसद पूरे समाज, समुदाय को सबक सिखाना होता है. भारत के संदर्भ में यह कहना ही होगा कि खासकर दलित लड़कियां और औरतें यौन हिंसा के जोखिम में रहती हैं. पिछले साल जब हाथरस रेप का मामला सामने आया तो इस बीच एनसीआरबी के आंकड़े भी जारी किए गए.
दरअसल जब अगड़ी जातियां, पिछड़ी जाति की औरतों के साथ हिंसा करती हैं तो इसके पीछे जातीय श्रेष्ठता और उसके अधिकार का अहंकार भी शामिल होता है. हाथरस रेप मामले में अभियुक्त के परिवार वालों ने अपनी कई टिप्पणियों से यह साबित किया था.
उन्होंने इस अपराध को झुठलाने की कोशिश की थी. उनके खिलाफ प्रदर्शन किया था. एक पत्रकार से उन्होंने कहा था कि ये लोग हम ठाकुरों से मुआवजा लेने के लिए हमें झूठे मुकदमों में फंसा देते हैं. उनका कहना था कि वे उन लोगों के साथ बैठना-बोलना तक पसंद नहीं करते. उनके बेटे उस बेटी को कैसे छुएंगे. यह जातिगत हिंसा का सबसे कड़वा सच है.
बुल्ली डील ऐप वाला मामला इसकी मिसाल है कि कैसे अल्पसंख्यक औरतों के जरिए धार्मिक और राजनीतिक प्रभुत्व कायम किया जा रहा है.
और दिक्कत यह है कि उससे हममें से ज्यादातर को कोई ऐतराज नहीं. प्रशासन से लेकर सरकार और यहां तक कि आम लोगों को भी नहीं. इसीलिए यह भी जरूरी है कि इस मामले को हम लोन वुल्फ एंगल, यानी एक अलग-थलग हादसे की तरह न देखें. इसके पीछे का सामाजिक और राजनैतिक संदर्भ जानना इस अपराध को रोकने के लिए बेहद जरूरी है.
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