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चीफ जस्टिस यूयू ललित: थोड़े से दिनों में काम किया काफी, लेकिन कुछ सवाल बाकी

CJI ललित का कार्यकाल कामकाज और दक्षता से भरा बेदाग माना जाएगा अगर एक केस को छोड़ दें

मेखला सरन
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>चीफ जस्टिस यूयू ललित: थोड़े से दिनों में काम किया काफी</p></div>
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चीफ जस्टिस यूयू ललित: थोड़े से दिनों में काम किया काफी

The Quint

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74 दिन पहले जब जस्टिस यूयू ललित ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभाला था, तो किसी को उनसे बहुत उम्मीदें नहीं थीं.  CJI रमणा का कार्यकाल उनसे पहले के कुछ न्यायधीशों की तरह धूमिल नहीं था, लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जो किया जाना बाकी रह गया था. ऐसे में इतने कम समय के नए चीफ जस्टिस से कार्यकाल से ज्यादा उम्मीद क्या ही की जा सकती थी?  

लेकिन शायद CJI ललित मजबूत इरादे लेकर आए थे कि उनका कार्यकाल दो कार्यकालों के बीच सिर्फ एक हाइफन बनकर नहीं रह जाएगा. वो ऐसे शख्स नहीं थे जो सिर्फ अपने उत्तराधिकारी के आने का इंतजार करते. उनको अपनी ही छाप छोड़नी थी. उन्होंने शपथ लेने से पहले एक टेलीविजन इंटरव्यू में साफ कर दिया था कि उनका कार्यकाल "सीमित संसाधनों के बीच भी ज्यादा कुशलता " के साथ काम करने वाला होगा.  

और ऐसा हुआ भी

File photo of CJI UU Lalit.

(Photo Courtesy: Wikipedia, Altered by The Quint)

बड़े फैसले: संविधान पीठ, लाइव स्ट्रीमिंग, रेगुलर केस

साल 2000 के बाद 10 से अधिक संविधान पीठ नहीं बनाई गईं लेकिन CJI ललित के संक्षिप्त कार्यकाल के दौरान ही पांच संविधान पीठ बनीं.  संविधान पीठ ने दो मामलों में फैसला भी सुनाया.

इसके अलावा, वो संविधान पीठ की कार्यवाही को लाइव-स्ट्रीम करने के लिए सहमत हुए - अब हर कोई देख सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के भीतर क्या चल रहा है (और सॉरी बॉलीवुड की तरह जज नहीं, असली जज जो ना तो विग पहनते हैं और ना ही लगातार हथौड़े पटकते हैं)... पूरी गंभीरता से काम करते हैं. यह जवाबदेही और पारदर्शिता की जीत थी.

इसके अलावा, नियमित मामले जिन पर धूल जम रही थीं उनको भी सुनवाई के लिए लिया गया और लंच से पहले की प्राथमिकताएं तय की गईं. ‘विविध’ मामलों को लंच के बाद के लिए रखा गया.

सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही जोर शोर से आगे बढ़ी. इतना कि वकील और कानूनी संवाददाताओं को भी सांस लेने का वक्त नहीं मिल पाता था.  

यहां तक कि कुछ ऐसे भी खबरें उड़ीं कि एक सीनियर जज मामलों की लिस्टिंग की प्रक्रिया और टाइमिंग से हैं क्योंकि विविध मामलों के लिए वक्त नहीं मिल पा रहा. लेकिन सीजेआई ललित ने उन रिपोर्टों को यह कहकर बेबुनियाद बताया कि - " सभी जज पूरी तरह से एक पेज पर हैं!"

बात यह है कि CJI ललित के पास करने के लिए बहुत कुछ था और समय बहुत कम. भारत की अदालतें लंबे समय से सनी देओल के "तारीख पे तारीख" के आरोप के लिए दोषी रही हैं. दुर्भाग्य से स्थिति को बदलने की बहुत कम कोशिशें हुईं. इस मुद्दे से सीजेआई को डील करते हुए देखना और कम से कम न्याय की गति को तेज करने की कोशिश करन है...

मौलिक अधिकार को प्राथमिकता: सीतलवाड, कप्पन को बेल

लेकिन यह केवल प्रशासनिक कोशिशें नहीं हैं, जिसका श्रेय CJI ललित को जाता है.  कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को 6 सितंबर को अंतरिम जमानत देने का उनका निर्णय राहत की बात थी. फैसला व्यक्ति के स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को मजबूती के तौर पर आया. सीतलवाड़ 24 जून से हिरासत में थीं, हालांकि, जैसा कि सीजेआई ललित ने बताया था, ऐसा कुछ भी नहीं था, कोई ऐसा आरोप उनके ऊपर नहीं था जिसकी वजह से उनकी जमानत रोकी जा रही थी.  

आगे सुनवाई के दौरान, CJI ने मौखिक रूप से टिप्पणी की थी:

"इस तरह के मामले में, हाईकोर्ट 3 अगस्त को नोटिस जारी करता है और इसे 19 सितंबर को वापस कर देता है? क्या यह गुजरात हाईकोर्ट का स्टैंडर्ड प्रैक्टिस है? हमें एक ऐसा मामला बताएं जहां एक महिला ऐसे आरोपों में शामिल रही हो और हाईकोर्ट ने इसे छह सप्ताह के लिए वापस करने योग्य बना दिया है?"  

इस मामले में CJI ललित का फैसला भी प्रासंगिक है, क्योंकि सरकार तो सीतलवाड़ को सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने के विचार के ही खिलाफ थी, जबकि उनका केस हाई कोर्ट में लंबे वक्त से लंबित था. तथ्य यह है कि उन्हें अंतरिम जमानत देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने खुद आगे बढ़कर कदम उठाया .मामले को सिर्फ योग्यता के आधार पर विचार करने की ये कोशिश कानून और स्वतंत्रता के बीच एक बढ़िया संतुलन है.  सुप्रीम कोर्ट ने मामले में राज्य के सबमिशन का सम्मान किया लेकिन व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकार पर भी ध्यान दिया.

Civil rights activist Teesta Setalvad.

(Photo: PTI)

नोट: सितलवाड़ को जालसाजी और साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. इससे तुरंत पहले जाकिया जाफरी और सितलवाड़ की उस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया था, जिसमें उन्होंने मोदी समेत बड़े नेताओं को गुजरात दंगों में SIT से क्लीनचिट मिलने को चुनौती दी थी. सिविल सोसाइटी के कुछ सदस्यों ने सितलवाड़ की गिरफ्तारी की आलोचना की थी और इसे सत्ता के दुरुपयोग का नाम दिया था. उन्होंने कहा था कि इससे ये दूसरों में डर पैदा करने का काम करता है.

CJI ललित ने यह भी दिखाया कि UAPA मामले में भी नागरिक के मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता देना संभव है, जो कि जमानत की अपनी कड़ी शर्तों के लिए कुख्यात है. 9 सितंबर को, CJI की अगुवाई वाली पीठ ने UAPA मामले में पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को जमानत दे दी, जिसमें "अपीलकर्ता की हिरासत की अवधि" और उनके मामले के "अजीब तथ्यों और परिस्थितियों" को ध्यान में रखा गया था.

File photo of journalist Siddique Kappan. 

(Photo: Twitter/Altered by The Quint)

कप्पन को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया गया था, जब वह एक दलित लड़की के सामूहिक बलात्कार और हत्या को कवर करने के लिए हाथरस जा रहा था और सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने पर वह लगभग दो साल से जेल में था.

सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ललित ने मौखिक रूप से टिप्पणी की:

“हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है.  इसलिए वह अपने विचार के प्रचार की कोशिश कर रहा है कि एक पीड़ित को न्याय की दरकार है और इसके लिए आवाज उठाएं , क्या यह कानून की नजर में अपराध जैसा कुछ है?” उन्होंने सरकार से इस बारे में भी सवाल किया कि कथित तौर पर कप्पन के पास पाया गया साहित्य कैसे उकसाने वाला था और अगर यह था तो क्या कप्पन ने इसका इस्तेमाल करने का कोई प्रयास किया था.

दुर्भाग्य से, हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कप्पन की रिहाई नहीं हो पाई. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के दो महीने बाद, लखनऊ की एक स्थानीय अदालत ने उन्हें पीएमएलए मामले में जमानत देने से इनकार करने का फैसला किया (जो संयोग से एक अपराध पर आधारित है जिसमें 2013 में प्राथमिकी दर्ज की गई थी - जिसमें कप्पन का नाम भी नहीं था).

लेकिन सीतलवाड़ और कप्पन दोनों के मामले में सीजेआई ललित ने जो रुख लिया उससे पता चलता है  कि वो स्वतंत्रता के अधिकार को महत्व देते थे और सरकार से कुछ कठिन सवाल पूछने से डरते नहीं थे.  

असहमति से हिचकिचाहट नहीं 

उन्होंने बेंच के अन्य सदस्यों से असहमति जताने में भी संकोच नहीं किया. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने (3: 2 के अनुपात से) 103 वें संवैधानिक संशोधन की वैधता को बरकरार रखा, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण पर मुहर लगाता है, न्यायमूर्ति रवींद्र भट और सीजेआई ललित इस फैसले से असहमत थे.

अपनी असहमतिपूर्ण राय में, न्यायमूर्ति भट ने लिखा:

"मुझे लगता है कि इस अदालत ने गणतंत्र के सात दशकों में पहली बार, साफ तौर पर ‘अलग-थलग करने वाले और भेदभावपूर्ण सिद्धांत’ को मंजूरी दी है"
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इसके अलावा, न्यायमूर्ति भट के अनुसार संशोधन "सामाजिक न्याय के ताने-बाने" और संविधान की मूल संरचना को कमजोर करता है. उन्होंने यह भी कहा कि यह विश्वास करना बहकना है कि सामाजिक और पिछड़े वर्ग के लाभ प्राप्त करने वाले "किसी तरह बेहतर स्थिति में हैं".

चीफ जस्टिस के तौर पर अपने अंतिम दिन में यूयू ललित ने भी इस नजरिए पर सहमति जताई . ऐसा करते हुए, उन्होंने हमें फिर से संवैधानिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता, कानून की गहरी समझ और कार्यपालिका से असहमत होने की क्षमता की याद दिलाई - जिसकी न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है, लेकिन वह लगातार कम होती जा रही है.

CJI ललित ने अपने 74 दिनों के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट के कामकाज में सुधार किया. राजनीतिक कैदियों को जमानत दी . असहमति की आवाज को पूरी ताकत से अपनी मुहर लगाई. 

फिर कहां रह गई कमियां?

यही वजह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने DU के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा को बरी करने के हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ एक शनिवार को अपील पर तत्काल सुनवाई करने का फैसला किया, तो यह गंभीर आश्चर्य का विषय था.  

14 अक्टूबर को बॉम्बे हाई कोर्ट ने यूएपीए मामले में साईबाबा और उनके सह-आरोपियों को आरोपमुक्त कर दिया और उनकी रिहाई का आदेश दिया. ठीक एक दिन बाद, सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को सुनवाई की और रिहाई के आदेश को निलंबित कर दिया, जिससे साईबाबा को एक दिन के लिए भी जेल से बाहर निकलने से रोक दिया गया.

नोट: डीएन साईबाबा व्हीलचेयर पर हैं. कई बीमारियों से ग्रसित हैं. 90 फीसदी तक विक्लांग हैं. लेकिन ये प्राथमिक वजह नहीं है जिससे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में दिक्कत है.

जैसा कि वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंजाल्विस ने बताया, सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के आदेश को प्रथम दृष्टया गलत नहीं पाया, और कहा :

"जब तक उच्चतर कोर्ट निचली अदालत के आदेश को गलत नहीं बताता, आप उस आदेश को रोक नहीं सकते. सिर्फ इसलिए किसी फैसले पर रोक नहीं लगाई जा सकती कि अदालत कानून के कुछ बहुत अच्छे बिंदुओं पर गौर करना चाहती है.”

यह सच है कि यह फैसला जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच से आया है, न कि CJI ललित की तरफ से. फिर आप सोचेंगे कि आखिर इसका जस्टिस यूयू ललित की विरासत के विश्लेषण से क्या लेना देना ?

इसका जवाब इस बात में है कि भारत के चीफ जस्टिस को यह तय करने की शक्ति है कि कौन सा मामला कब और किस पीठ के समक्ष सूचीबद्ध हो. जैसा कि लाइव लॉ के प्रबंध संपादक मनु सेबेस्टियन ने कानूनी-समाचार वेबसाइट लाइव लॉ में प्रकाशित एक लेख में बताया है:

“जिस जल्दबाजी के साथ कल 3.59 बजे दायर याचिका को एक गैर-कार्य दिवस पर सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया था, वह भी एक विशेष पीठ (वर्तमान बैठक व्यवस्था के अनुसार, न्यायमूर्ति एमआर की कोई नियमित पीठ नहीं है) शाह और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी) के समक्ष, उसने कई लोगों को चौंका दिया है.  और सवाल भारत के मुख्य न्यायाधीश जो कि मास्टर ऑफ द रोस्टर भी हैं, उनपर उठते हैं.

विशेषज्ञों ने क्विंट को बताया कि इससे पहले कभी भी किसी व्यक्ति के बरी होने (या डिस्चार्ज) पर रोक लगाने के लिए तत्काल शनिवार की सुनवाई नहीं हुई. राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस प्रदीप नंदराजोग ने कहा, "यह अभूतपूर्व है. "

किसी की स्वतंत्रता छीनने के लिए शनिवार को होने वाली यह सुनवाई सीजेआई ललित के बेदाग कार्यकाल पर एक सवाल बना रहेगा.  

सुप्रीम कोर्ट की इस सुनवाई के बाद सीजेआई ललित की विरासत का विश्लेषण करते हुए, एडवोकेट गौतम भाटिया ने अपने ब्लॉग में लिखा:

“…क्या संगठनात्मक क्षमता से किसी की आजादी छिनने की क्षतिपूर्ति हो जाती है? जैसे कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हों? एक दूसरे के खिलाफ आजमाने के लिए? या स्वतंत्रता अपने आप में कोई वस्तु है, जहां एक व्यक्ति को जमानत देने से दूसरे छह को जेल में रखना उचित हो जाता है?''

यदि अगले CJI के शब्दों में कहा जाए तो बात कुछ यूं है, "एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता से वंचित करना काफी है, ठीक वैसे ही एक भी व्यक्ति की स्वतंत्रता को छीना जाना भी उतना ही अहम होता है. फिर भी, CJI ललित को सुप्रीम कोर्ट को उसकी मूढ़ता से हिलाने और काम करवाने के लिए श्रेय मिलना चाहिए और वो भी इतने कम समय में ये सब करने के लिए.  

लॉर्ड अल्फ्रेड टेनीसन की 'द ब्रूक' के शब्दों में कहें तो : कोई उम्मीद रखता है कि (यहां तक कि) एक चीफ जस्टिस आ सकते हैं और एक जा सकते हैं लेकिन कुशलता और दक्षता हमेशा के लिए बनी रहे.  

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