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CAA से लेकर प्रवासी मजदूरों तक, कैसा रहा CJI बोबडे का कार्यकाल?

CJI बोबडे का 15 महीने का कार्यकाल विवादों से भरा रहा

अशित श्रीवास्तव
भारत
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(फोटो: altered by the quint)
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23 अप्रैल 2021 की समाप्ति के साथ ही भारत के 47वें मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे के कार्यकाल की भी समाप्ति होगी. पिछले CJI की तरह ही न्यायमूर्ति बोबडे का 15 महीने का कार्यकाल विवादों से भरा रहा, मुख्य रूप से राजनीतिक विवाद.

इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि CJI का पद भारत में सबसे ज्यादा समीक्षा भरे पदों में से एक है, संभवतः प्रधानमंत्री पद के बराबर ही. ऐसे पद पर बैठकर मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम करना चुनौती भरा है .आपको पता होता है कि आपके हर एक कार्य की समीक्षा बारीकी से की जाएगी. चाहे आपका नागपुर में हार्ले डेविडसन पर बैठना हो या न्यूज चैनलों द्वारा आपके बयान ('विल यू मैरी हर' वाली टिप्पणी) को किसी और संदर्भ में लेना हो.

और हमें इस बात से चौंकना भी नहीं चाहिए, यह जानते हुए कि भारत के लोग न्यायपालिका में कितना भरोसा रखते हैं. वह न्यायपालिका को उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं और इस बात को लेकर आश्वस्त होते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में उनके अधिकारों की रक्षा होगी. सुप्रीम कोर्ट समाज की तमाम ज्यादतियों के आगे ढाल जैसा खड़ा होगा. इसलिए लगातार समीक्षा की यह स्थिति भारत के मुख्य न्यायाधीश पद के शर्तों का अंग है. 

कॉलेजियम का गतिरोध

सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में CJI बोबडे पहले मुख्य न्यायाधीश होंगे जिनके अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में एक भी जज की नियुक्ति नहीं हुई. ऐसी विरासत से वह शायद ही अपने आप को जोड़ना चाहेंगे .भूतपूर्व CJI एचसी दत्तू ही बोबडे के आसपास है जिन्होंने अपने कार्यकाल में सिर्फ एक जज (न्यायमूर्ति अमितावा रॉय )को हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया था.

खास बात यह है कि अपने 15 महीने के कार्यकाल में बोबडे ने कॉलेजियम की कई मीटिंग रखी, कई नामों पर चर्चा की. फिर भी रिपोर्टों के अनुसार जस्टिस अकील कुरैशी के नाम पर गतिरोध बड़ा बना रहा, जो कि भारत के सारे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की सीनियर लिस्ट में वरिष्ठ जज है. 

जस्टिस कुरैशी वर्तमान में त्रिपुरा हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश है और 6 मार्च 2022 को रिटायर होंगे. अपनी ईमानदारी और ज्ञान के लिए जाने जाने वाले न्यायमूर्ति कुरैशी सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की लाइन में आगे हैं.

यह पहली बार नहीं है जब जस्टिस कुरैशी किसी विवाद का हिस्सा हैं. इससे पहले 2019 में कॉलेजियम ने उन्हें मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफारिश की थी परंतु केंद्र सरकार से बातचीत के बाद कॉलेजियम ने अपनी सिफारिश बदलते हुए उन्हें त्रिपुरा हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया.

कॉलेजियम में यह गतिरोध बेशक 'टैलेंट किलर' का काम कर रहा है. जस्टिस कुरैशी के अलावा विभिन्न हाईकोर्ट में कई ऐसे टैलेंटेड जज है जो पिछले 15 महीनों से सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त होने के इंतजार में है. ऐसे में कई जज खुद ही CJI बोबडे के कार्यकाल में या आने वाले महीनों में रिटायर हो जाएंगे. इसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर भी शामिल है जो हाल ही में अपने पद से रिटायर हुए और जिनकी गिनती व्यक्तिगत आजादी के महान रक्षक के रूप में होती है.

इसी तरह जज थोट्टाथिल बी राधाकृष्णन (कोलकाता हाई कोर्ट), जस्टिस रामाचंद्रा मैनन (छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट), जस्टिस हीमा कोहली (तेलंगाना हाई कोर्ट) और राघवेंद्र सिंह चौहान (उत्तराखंड हाई कोर्ट) इसी साल 2021 में रिटायर हो जाएंगे. 

यह स्थिति आने वाले CJI ( जस्टिस रमन्ना) पर लीगल दबाव बनाएगी. सुप्रीम कोर्ट बेंच पहले से ही जजों की कमी से गुजर रही है, वर्तमान में स्वीकृत 34 जजों में से मात्र 29 ही नियुक्त है जबकि उनमें से भी पांच इस साल रिटायर होने वाले हैं. ऐसे में आने वाले मुख्य न्यायाधीश के लिए जजों की इस कमी को समाप्त करना कठिन काम होगा. ऐसी विरासत को अधिकतर जज टालना चाहेंगे.

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जेंडर डायवर्सिटी पर

जस्टिस बोबडे के कार्यकाल का दूसरा पहलू, जो कि समान महत्व रखता है, सुप्रीम कोर्ट में जेंडर डायवर्सिटी के मामले पर मुस्तैदी का है. हाल ही में जस्टिस बोबडे सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर मुखर रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट वुमन लॉयर्स एसोसिएशन द्वारा एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रही मेधावी महिला वकीलों और हाईकोर्ट की महिला जजों पर विचार करने का अनुरोध किया था .

जस्टिस बोडबे ने याचिका के सुनवाई में कहा (जस्टिस संजय किशन कौल भी बेंच का हिस्सा थे) कि “सिर्फ उच्च न्यायपालिका ही क्यों, हमें लगता है कि वह समय आ गया है जब भारत की मुख्य न्यायाधीश एक महिला होनी चाहिए.” हालांकि उसी सुनवाई में उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि बहुत सारी महिला वकील ‘घरेलू उत्तरदायित्व’ के कारण जज के पद को नकार देती है. उनकी इस टिप्पणी पर बार एसोसिएशन की महिला वकीलों ने विरोध जताया था. 

हालांकि रिटायर होते CJI द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व को स्वीकार करना निकट भविष्य में जेंडर पैरिटी के लक्ष्य को पाने में मदद करेगा. वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ एक सीटिंग महिला जज (जस्टिस इंदिरा बनर्जी) हैं और 1950 से सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 8 महिला जज की ही नियुक्ति हुई है.

महामारी, विवाद और CJI

महामारी का समय आम लोगों के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के लिए भी कठिन रहा है. इसने सुप्रीम कोर्ट की दक्षता को बुरी तरह प्रभावित किया है. इसलिए इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस महामारी के वक्त 'मास्टर ऑफ रोस्टर' होना आसान काम नहीं था. जहां 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 1370 मामलों पर निर्णय दिया था वहीं 2020 में यह संख्या 697 तक सिमट गई.

इसके बाद भी महामारी का असर CJI बोबडे की दक्षता पर कम ही रहा. उन्होंने महामारी के दौरान 57 मामले सुनें (22 मार्च 2020 से 20 अप्रैल 2021 तक) और उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में 90 से ज्यादा मामले सुने.

CJI बोबड़े की विरासत उनके तीन निर्णयों की वजह से गर्मायी रहेगी:

  • CAA याचिकाओं पर ; CAA संशोधन के दिसंबर 2019 में आने के तुरंत बाद लगभग 140 याचिकायें उसकी संवैधानिकता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई. इसके बाद भी यह याचिका 2020 में सिर्फ 3 बार सुनी गई और अभी भी लंबित हैं.
  • दूसरा प्रवासी मजदूरों का मामला; लॉकडाउन ने लाखों प्रवासियों को पैदल या साइकिल पर अपने अपने गांव लौटने पर मजबूर कर दिया था. इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिका दायर की गई पर उन्हें अस्वीकार कर दिया गया. न्यायिक समाज की ओर से भारी दबाव के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लिया.
  • तीसरा कृषि कानूनों का मुद्दा; किसी कानून के संवैधानिकता के प्रश्न, जहां सुप्रीम कोर्ट यह जांचती है कि कानून संवैधानिक है या नहीं, की जगह इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कानून पर स्टे लगाकर एक कमेटी बैठा दी. यह SC के निर्णय पर सवाल खड़ा करता है.

इन सबके बाद भी जस्टिस बोबडे के कार्यकाल को हम उतार-चढ़ाव भरा मान सकते हैं. यकीनन कुछ ऐसे मुद्दे है जिन्हें सुधारना जरूरी है, फिर भी CJI बोबडे अच्छे भविष्य की नींव रखने के लिए जाने जाएंगे. खासकर सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर.

(अशित कुमार श्रीवास्तव जबलपुर की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पहले वो ओडिशा की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर रह चुके हैं. उनकी रिसर्च का फोकस संवैधानिक कानून, डेटा सुरक्षा कानून और साउथ-एशियाई संविधानवाद है.)

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