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टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि चीन के आर्थिक विकास की पटकथा फिर से लिखे जाने की स्थिति बन रही है. इस वक्त दुनिया की अर्थव्यवस्था में एक देश के रूप में चीन का योगदान सर्वाधिक है. वैश्विक आर्थिक वृद्धि में एक तिहाई योगदान चीन का है. इसका मतलब यह हुआ कि जब चीन में मंदी आएगी तो दुनिया भर में मंदी आएगी. जब चीन में मांग घटेगी तो हर चीज की कीमत गिरेगी.
यह कर्ज भारत में कारोबारी जगत के कुल कर्ज के लगभग बराबर है. एवरग्रैंड के शेयरों की कीमत एक साल पहले के मुकाबले छठा हिस्सा बमुश्किल रह गया है. एवरग्रैंड का 300 अरब डॉलर का कर्ज चीन के कुल कर्ज का एक फीसदी भर है. दरअसल चीन में खुले ऋण प्रवाह से उत्पन्न हुई यह समस्या है.
चीन का कर्ज जीडीपी का करीब तीन गुना है. यह खतरनाक स्तर है. अगर चीन एवरग्रैंड को उबारने की कोशिश करती है तो चीन की बाकी कंपनियां भी ऐसी ही उम्मीद रखेगी. ऐसा जरूर है कि एवरग्रैंड का अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रभाव सीमित है क्योंकि अधिकांश कर्ज घरेलू है. फिर भी इसके दूसरे दौर के प्रभाव अवश्य होंगे. अगर एवरग्रैंड बच भी जाती है तो उसे अपने बहीखाते सही करने में वर्षों लगेंगे. चीनी अर्थव्यवस्था में चमत्कारी वृद्धि का यह वह मोड़ है जिसके बाद संशोधित पटकथा लिखने की आवश्यकता आ पड़ने वाली है.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि टीवी पत्रकारिता का पहला नियम होता है कैमरे से मुकाबला नहीं करना. जो चीजें तस्वीरें बयां कर रही है उनकी चर्चा करने की जरूरत नहीं होती. मगर, जब महीनों बाद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा के लिए रवाना हुए तो वरिष्ठ टीवी पत्रकारों ने इस नियम को ताक पर रख दिया.
तवलीन सिंह मानती हैं कि पहले की तरह मोदी का स्वागत होना दो कारणों से संभव नहीं रह गया है. एक, कोविड की महामारी के कारण दुनिया बदल गयी है, राजनेता बदल गये है. और, दूसरा भारत की आर्थिक अहमियत कम हो गयी है दुनिया के बाजारों में. लॉकडाउन के दौरान सड़क पर पैदल चलते गरीबों की तस्वीरों ने दुनिया बता दिया है कि यही भारत की सच्चाई है. नरेंद्र मोदी की दुनिया में ऐसी छवि बन गयी है कि वेअपने आपको लोकतंत्र की तमाम संस्थाओँ से ऊपर मानते हैं.
मोदी ने दिखाया है कि जो पत्रकार उनकी प्रशंसा नहीं करते हैं उनको दुश्मन माना जाएगा और उनके साथ इस तरह की कार्रवाई होगी जिससे उनका मुंह बंद कर दिया जाएगा. लेखिका लिखती हैं कि राजनीतिक तौर पर मोदी की दूसरी समस्या यह है कि उनके राज में इस देश के मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक बन गये हैं. गौमाता और लव जिहाद के नाम पर मुसलमानों पर हमले, हिन्दू इलाके में चूड़ियां बेचने पर पिटाई, ‘जय श्रीराम’ बोलने के लिए पिटाई ऐसी घटनाएं रही हैं जिनकी कभी प्रधानमंत्री ने आलोचना नहीं की. इन कारणों से मोदी की छवि दुनिया की नजरों में कम हो चुकी है.
न्यूयॉर्क टाइम्स में रॉबिन कैसर शात्जिलीन ने लिखा है अमेरिका के अरबपति कैपिटल गेन टैक्स से बचते हुए अपनी दौलत अपने उत्तराधिकारियों को सौंपते आए हैं. कर वसूली की व्यवस्था में कमी के कारण ऐसा संभव होता रहा है. इस बुरी व्यवस्था को लेखक ने ‘स्टेप्ड अप बेसिस’ यानी ‘चरणबद्ध आधार’ के तौर पर पहचाना है.
उदाहरण के लिए एक माता-पिता एक डॉलर में शेयर खरीदता है और अपने बच्चे के लिए छोड़ जाता है. मान लें कि व्यक्ति के मरने के वक्त वह शेयर 100 डॉलर का हो गया था. अगर उसी शेयर को बच्चा 150 डॉलर में बेचता है तो बच्चे को 149 डॉलर के बजाए केवल 50 डॉलर के लिए टैक्स देना होता है. अप्रैल में नॉर्थ डकोटा के पूर्व सीनेटर हीदी हिटकैंप ने इसे ‘इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला’ करार दिया था.
लेखक का कहना है कि राष्ट्रपति इसे दुरुस्त करना चाहते हैं लेकिन खुद उनकी ही पार्टी के लोग रिपब्लिकन्स के साथ मिलकर अमीरों के लिए लॉबिंग कर रहे हैं. इंस्टीच्यूट ऑफ पॉलिसी स्टडीज़ के मुताबिक 1983 के बाद से अमेरिका के 27 अमीर अमेरिकी वंशवादी परिवारों की साझा दौलत में 1007 प्रतिशत का इजाफा देखा गया है. इसी दौरान आम परिवार की दौलत महज 93 प्रतिशत बढ़ी है. महामारी में भी शीर्ष 10 परिवारों की आमदनी में 25 फीसदी का इजाफा देखा गया है. यह स्थिति अधिक समय तक नहीं बनी रहनी चाहिए कि कोई परिवार अनिश्चितकाल तक टैक्स से बचा रहे.
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में इतिहास के हवाले से लिखा है कि धर्मयुद्ध के नाम पर जीसस क्राइस्ट के हजारों साल बाद और पैगंबर मोहम्मद के साढ़े चार सौ साल बाद लड़ाई हुई. इसके बावजूद ईसाइयत और इस्लाम आज तक चले आ रहे हैं. मतलब साफ है कि धर्म या धार्मिक संगठन किसी को हरा नहीं सकते. जिहाद का मतलब अच्छे को बढ़ावा देने और गलत को रोकने के लिए इंसान का संघर्ष माना जाता है. मगर, आधुनियक युग में हिंसक अभियानों का पर्याय बन चुका है. कभी लव जिहाद तो कभी नारकोटिक जिहाद के नाम पर विकृत मानसिकता ही प्रदर्शित की जा रही है.
मुसलमानों में प्रजनन दर हिंदुओँ और दूसरे धार्मिक समूहों से थोड़ी ही ज्यादा है. फिर भी 2050 तक हिन्दुओं की कुल आबादी सतहत्तर प्रतिशत तक बने रहेंगे. आश्चर्य की बात नहीं है कि हिन्दू अतिवादी बिशप के समर्थन में उतर आते हैं जब उनके निशाने पर मुसलमान होते हैं. केरल में मुख्यमंत्री के उस बयान का विपक्ष ने भी समर्थन किया जब उन्होंने कहा कि किसी को किसी धर्म के खिलाफ जहर उगलने नहीं दिया जाएगा.
नारकोटिक्स जिहाद की रट लगा रहे लोगों को गुजरात मे एक बंदरगाह पर 3 टन हेराइन पकड़े जाने के बारे में भी सोचना चाहिए. ऐसा ‘आयात’ बगैर किसी उच्च सरकारी संरक्षण के नहीं हो सकता. प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को इसकी निंदा करनी चाहिए.
शोभा डे ने टाइम्स ऑफ इंडिया में राज कुंद्रा और सोनू सूद के मामलों के जरिए व्यवस्था पर सवाल उठाया है. वह लिखती हैं कि मुंबईकरों को घूस, धोखाधड़ी, मोटे लेनदेन जैसे मामले देखने-सुनने की आदत रही है. पूर्व पुलिस कप्तान परम बीर सिंह ‘गायब’ हैं. क्या हमारी पुलिस इतनी बेवकूफ हो सकती है कि वे उनका पता न लगा सके.
शोभा डे बताती हैं कि राज कुंद्रा को कुछ दिनों पहले जमानत मिल गयी. कुछ लोग कहते हैं कि यह मामला कुंद्रा को ब्लैकमेलिंग का था. पुलिस की ओर से मांग बढ़ती जा रही थी. जब मना किया गया तो बदले की कार्रवाई हुई. पुलिस में जो भाईचारगी है एक-दूसरे के लिए वह इस मामले में भी नजर आती है. सोनू सूद का मामला थोड़ा अलग दिखता है.
कभी प्रवासियों का मसीहा आज हर बात में गलत नज़र आ रहा है. अरविंद केजरीवाल ने सोनू सूद को ब्रांड अंबेस्डर बनाने की घोषणा की उसके बाद से सोनू सूद की मुसीबत बढ़ती चली गयी. नेता नेक्सस के लिए कुख्यात होते हैं. मनी लाउन्ड्रिंग, टैक्स की चोरी, जैसी घटनाएं क्या एक दिन में होती हैं! यहां तो हम सिर्फ हाई प्रोफाइल मामलों की चर्चा कर रहे हैं. हजारों ऐसे मामले में जिनमें अनजान लोग जेलों में सड़ रहे हैं भले ही उन्होंने अपराध किए हों या नहीं किए हों. हमारे पास ऐसे लोगों के अधिकारों की रक्षा करने का कोई मैकेनिज्म नहीं है.
‘द सरदार ऑफ स्पिन’ मतलब बिशन सिंह बेदी
रामंचद्र गुहा ने टेलीग्राफ में क्रिकेटर बिशन सिंह बेदी के 75वें जन्मदिवस पर 25 सितंबर को विशेष लेख लिखते हुए बताया है कि उनका आदर सिर्फ उनकी उपलब्धियों के लिए ही नहीं है. बल्कि, इसलिए क्योंकि वे ऐसे गिने चुने क्रिकेट खिलाड़ियों में हैं जो बहुत शानदार इंसान हैं. स्पिनर के रूप में ख्यातिप्राप्त बिशन सिंह बेदी की बल्लेबाजी वाली पारी को लेखक याद करते हैं.
1969 में ऑस्टेरिलया के खिलाफ दिल्ली टेस्ट में बेदी ने मैच के चौथे दिन स्टंप उखड़ने तक न सिर्फ अपना विकेट बचाया था बल्कि अगले दिन डेढ़ घंटे तक वे अजित वाडेकर के साथ जमे रहे थे और यादगार जीत की नींव रखी थी. उस मैच की हर गेंद का आनंद लेखक ने ऑल इंडिया रेडियो की कमेंट्री सुनकर लिया था.
दिल्ली के सलामी बल्लेबाज वेंकट सुंदरम ने इसकी पहल की जो बिशन सिंह बेदी की कप्तानी में खेल चुके हैं. बेदी ने ग्रेग चैपल, माइक बियरले जैसे विदेशी खिलाड़ियों के साथ खेला जिनका योगदान भी इस पुस्तक में है. मुरली कार्तिक और अनिल कुंबले जैसे क्रिकेटरों ने भी पुस्तक में योगदान दिया है जिन्होंने जीवन में बेदी से सीखा.
लेखक कहते हैं कि आज के दिन जो जितना बड़ा क्रिकेटर है वह उतना बड़ा अवसरवादी और इंसान के रूप में रीढ़विहीन है. क्रिकेट प्रशासन के खिलाफ खिलाड़ियों के लिए बोलने वाले लोगों में बिशन सिंह बेदी जैसे उदाहरण नहीं मिलते. 1875 में दलित के घर पैदा हुए पलवांकर जब 100 टेस्ट विकेट लेकर इंग्लैंड से भारत लौटे तो उनके स्वागत में बीआर अंबेडकर ने 1911 में भाषण दिया था. महाराजा रणजीत सिंह जैसे महान खिलाड़ी भी हुए.
विजय मर्चेंट जैसे खिलाड़ी भी हुए जिन्होंने महात्मा गांधी और दूसरे नेताओं के जेल में होने के कारण 1932 में इंग्लैंड का दौरा करने से इनकार कर दिया था. बिशन सिंह बेदी भी भारतीय समाज के बारे में अच्छी समझ रखते हैं और मजबूत नैतिक मानदंड के साथ जीते हैं. बीते साल इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखकर बेदी ने गलत तरीके से किए गये लॉकडाउन का विरोध किया था और महामारी में मौत के आंकड़े छिपाए जाने की आलोचना की थी. लेखक लिखते हैं कि अगर तेंदुलकर या गावस्कर या कोहली या धोनी या गांगुली के पास बिशन सिंह बेदी वाले चरित्र का आधा भी होता तो भारतीय क्रिकेट में लोकतंत्र और पारदर्शिता की कमी कभी नहीं होती.
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